स्वाध्याय-सन्दोह

June 1961

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“धर्म की उन्नति से अन्यान्य विषयों में उन्नति अवश्यम्भावी है। यदि रक्त साफ और ताजा रहे तो देह में रोग का कोई कीटाणु (जर्म) प्रवेश नहीं कर सकता। धर्म ही हम लोगों का रक्त है। यदि इस रक्त-प्रवाह में कोई बाधा न पहुँचे और वह शुद्ध तथा ताजा रहे तो सभी बातों में कल्याण होगा। यदि यह रक्त शुद्ध हो तो राजनैतिक, सामाजिक अथवा कोई भी बाहरी दोष हो इतना ही नहीं, हमारे देश की घोर दरिद्रता भी दूर हो जायेंगे। जब तक शरीर अपने में रोग के जीवाणु को प्रवेश नहीं करने देता जब तक देह की जीवनी शक्ति क्षीण होकर रोग के जीवाणु को प्रवेश करने और बढ़ने नहीं देती, तब तक संसार के किसी रोग जीवाणु में शक्ति नहीं कि वह शरीर में रोग उत्पादन कर सके। सामाजिक जीवन को विषय में भी यही बात है। जिस समय जातीय-शरीर दुर्बल हो जाता है उस समय जगत के राजनैतिक, सामाजिक, मानसिक और शिक्षा सम्बन्धी विषयों में सब प्रकार के रोगाणु प्रवेश करते है और रोग उत्पन्न करते है। उस समय एक मात्र कर्तव्य होगा लोगों में शक्ति का संचार, रक्त का शुद्ध करना, शरीर को तेज युक्त करना जिससे वह सब तरह के बाहरी विषों को देह में प्रवेश करने से रोके और भीतरी विष को निकाल दे। हमारा धर्म ही हमारे तेज, वीर्य, और यही क्यों जातीय-जीवन की भी मूल भित्ति है।”

-स्वामी विवेकानन्द

“परमात्मा ने हमें बुद्धि दी है सोचने के लिये; इन्द्रियाँ दी है निरीक्षण के लिये। हमें भली प्रकार निरीक्षण कर वस्तुओं के गुण-दोष समझकर तर्क द्वारा ही सच्चाई की खोज करनी चाहिये। यही हमारा ब्रह्मास्त्र है। देशकाल के अनुसार परिस्थितियाँ बदल जाती है, नई बातें पुरानी हो जाती है। कोई बात नई या पुरानी होने से लाभदायक नहीं होती, बुद्धि से सिद्ध किया हुआ उसका उपयोग ही उसे व्यवहार के योग्य बनाता है।”

-सन्त सुकरात

“जो ब्रह्मचारी बनने की कोशिश कर रहा है उसके लिये अनेक बन्धनों (नियमों) की जरूरत है। आम के छोटे पेड़ को सुरक्षित रखने के लिये उसके चारों तरफ बाड़ लगानी पड़ती है। छोटा बच्चा पहले माँ की गोद में सोता है, फिर पालने में और फिर चालन-गाड़ी लेकर चलता है। जब बड़ा होकर खुद चलने लगता है तब सब सहारा छोड़ देता है। ब्रह्मचर्य पर भी यही चीज लागू होती हैं। ब्रह्मचर्य एकादश व्रतों में से एक व्रत बतलाया गया है। इस पर से यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य की मर्यादा या रक्षा करने वाली बाड़ एकादश व्रतों का पालन है। वास्तव में ब्रह्मचर्य मन की स्थिति है। बाहरी आचार या व्यवहार उसकी निशानी है। जिस पुरुष के मन में जरा भी विषय-वासना नहीं रही है, वह कभी विकार के वश में नहीं होगा। वह किसी स्त्री को चाहे जिस हालत में देखे, चाहे जिस रूप-रंग में देखे, तो भी उसके मन में विकार उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए ब्रह्मचारी को अपनी मर्यादा स्वयं ही बना लेनी चाहिये। उद्देश्य यही है कि हम सच्चे ब्रह्मचर्य को पहिचानें, उसकी कीमत जान लें और ऐसे कीमती ब्रह्मचर्य का पालन करें।”

-महात्मा गाँधी

“संसार में विवाह की भिन्न-भिन्न जितनी प्रथाऐं प्रचलित हैं, उनमें वैदिक पद्धति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। वैदिक पद्धति की विशेषता यह है कि इस पद्धति में अन्य पद्धतियों की तरह विवाह कोई व्यापारिक समझौता (कांट्रैक्ट) नहीं है, किन्तु ही एक पवित्र आत्मिक सम्बन्ध है, जो पति-पत्नी के बीच इसलिए होता है कि वे दोनों मिलकर संसार को यथा सम्भव पहले से अधिक सुखी बनाने का यत्न करें। उपनिषद् में एक जगह अलंकार के एंगल से गृहस्थ शरीर को उतना ही बतलाया है जितना स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर होते हैं। जब उसके दो भाग किये गये तो पति और पत्नी हुए। इसका स्पष्ट भाव यह है कि जिस प्रकार एक दाने के दो दल (दालें) अथवा एक सीप के दो अर्द्ध भाग बराबर-बराबर होते हैं, उसी प्रकार पति और पत्नी में समता होनी चाहिए, तभी वे गृहस्थाश्रम को अच्छा और गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बना सकते है।”

-नारायण स्वामी

“ इस संसार के निवासी तूफान में फँसे हुए जहाज के उन यात्रियों के समान हैं, जिनके पास भोजन की सामग्री बहुत कम रह गई है। ईश्वर या प्रकृति ने हमको ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि आपत्ति से बचने के लिए कम से कम भोजन करना और निरन्तर उद्योग करते रहना हमारे लिए अनिवार्य हो गया है। यदि हम में से कोई व्यक्ति ऐसा न करें और दूसरे के उस श्रम का उपभोग कर लें, जो सामान्य हित के लिए आवश्यक नहीं हैं, तो यह हमारे तथा हमारे महकारियों दोनों के लिए नाशकारी है। अपने आपको स्वाभाविक और न्यायोचित श्रम से बचाकर और उस का भार दूसरों के कन्धों पर लाद कर भी हम अपने को क्यों चोर और धोखेबाज नहीं समझते?”

-टालस्टाय

“स्वार्थी और धनी आदमियों की समझ में न आने वाली एक सबसे रहस्यमयी गुत्थी यह है कि जहाँ उन्होंने सुख पाने की आशा की थी, वहाँ उन्हें सुख क्यों नहीं मिला? धन-दौलत पैदा कर लेने वाले लोगों के सामने जो सबसे बड़ी निराशा आई हैं, वह यह है कि अपनी दौलत से उन्हें जिस सुख की आशा थी, वह या उससे मिलती -जुलती चीज भी उन्हें नहीं मिली। वे देखते है कि भौतिक वस्तुओं से भावनाओं की संतुष्टि नहीं होती, और बड़ी से बड़ी सुख सामग्री के बीच भी हृदय भूखा रहता है। वे देखते है कि धन बहुत से कार्य कर सकता है, पर हृदय की लालसा और हृदय की भूख को तृप्त करने की इसमें कुछ भी शक्ति नहीं हैं। मैं अपनी मेहनत से ऊँचे उठे हुए एक आदमी को जानता हूँ जिसने बड़ी दौलत कमाई थी। उसने मुझे बताया कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी पहेली और निराश यह है कि यद्यपि मैंने लाखों कमाये, पर मैं सुखी नहीं हूँ। वास्तव में कोई भी स्वार्थी जीवन कभी सुखी नहीं हो सकता।”

-स्वेट मार्डन

“प्रेम करने का अर्थ है विश्व के सब जीवों और वस्तुओं से आत्मीयता, बन्धुत्व और एकता का अनुभव करना, और इतना गहरा अनुभव करना कि अपने आस-पास के सब लोगों पर उसका प्रभाव पड़े ओर उन्हें अधिक सुरक्षा और एकता की प्रतीति हो। प्रेम से सब के कल्याण और उन्नति की भावना उत्पन्न होती है। प्रेम से निर्भीकता, स्पष्टता, स्वतंत्रता और सत्यता बढ़ती है। प्रत्येक माता जानती है कि प्रेम देश और काल से सीमित नहीं होता। प्रेम से हमें अपनी अनन्तता और असीमता का अनुभव होने में सहायता मिलती है। प्रेम द्वारा ऐसी भावना बनाने से घृणायुक्त व्यक्ति में भी अच्छाई और प्रेम का जीवन भरा जा सकता है। प्रेम में महान उत्पादक शक्ति है। इसका परिणाम प्रारम्भ में चाहे धीरे-धीरे हो किन्तु स्थायी होता है। यह प्रभाव जिस व्यक्ति से प्रेम या विश्वास किया जाता है, उसके हृदय और चरित्र में बैठ जाता है।”

बी-ग्रेग

*समाप्त*


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