जीवन श्रृंगार

June 1961

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मनुज की देह मुक्ति का द्वार,मिलेगी क्या यह बारम्बार !

भूलता क्यों तू अपना रूप-बिछुड़कर जग में आ अनजान।

नहीं क्या करता लघु-सा बीज-विटप-वट का विशाल निर्माण॥

सत्य ही इस जीवन का सार, शेष सब क्षणभंगुर निःसार !

स्वार्थ से पूरित जग का स्नेह-मोह है बन्धन मधुर अनूप।

किया करती माया पथ भ्रष्ट-दिखाकर अपना रम्य स्वरूप॥

आत्म-बल का करके विस्तार, सहज ही हो भवसागर पार !

गहन तम, अन्तर का कर दूर-ज्योति बन हो जा उसमें लीन।

मिटाकर सरिताएँ अस्तित्व-जलधि में हो जाती ज्यों लीन॥

काल का चलता चक्र निहार,चेत कर जीवन का श्रृंगार !

-रामस्वरूप स्तरे साहित्यरत्न



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