गायत्री का देवता - ‘सविता’

June 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रत्येक वेद मन्त्र का एक देवता होता है जिसकी शक्ति से ही वह मंत्र सिद्ध एवं फलित होता है। गायत्री महामंत्र का देवता ‘सविता’ है। ‘तत् सवितुः’ इस आरम्भिक पद में उस सविता का उल्लेख करते हुए आगे उसी का ध्यान और धारणा करने का निर्देश दिया गया है। गायत्री की शक्ति इस सविता देवता पर ही अवलम्बित है।

सविता कहते हैं “सूर्य” को। गायत्री को एक प्रकार से सूर्य का मंत्र भी कहा जाता है। ‘पुनातु माम् तत्सवितुर्वरेण्यं इस अन्तिम पद वाले स्तोत्र में सूर्य देवता का ही स्तवन किया गया है। इसलिए कितने ही उपासक सूर्य की आराधना के लिए गायत्री का उपयोग करते हैं। गायत्री को माता रूप में मानने वाले साधक भी उसका रूप “सूर्य” मण्डल मध्यस्था’ सूर्य मण्डल के बीच में अवस्थित स्वरूप का, मातृदेवी के रूप में ही ध्यान करते हैं। किसी भी रूप में गायत्री मंत्र की उपासना की जाय ‘सूर्य’ का उसे अविच्छिन्न सम्बन्ध अनिवार्य रूप से रखना होगा। गायत्री का देवता ही सूर्य है तो उसका स्वरूप भी साथ में होना स्वाभाविक ही है।

स्थूल विज्ञान की दृष्टि से सूर्य एक अग्नि पिण्ड है। जो आकाश में अवस्थित अनंत आकाश गंगाओं में से ‘स्थाइरल’ नामक एक आकाश गंगा के परिवार के लगभग डेढ़ खरब तारों में से एक छोटा सा तारा मात्र है। इसका व्यास करीब 9 लाख मील अर्थात् पृथ्वी की अपेक्षा 110 गुना बड़ा है। उसके परिवार में 9 ग्रह हैं तथा प्रत्येक ग्रह के अनेक उपग्रह हैं। बुध, शुक्र और पृथ्वी का एक-एक चन्द्रमा है। मंगल के दो, बृहस्पति के बारह, शनि के नौ, वरुण के पाँच, हरिग्रह के दो और पीत ग्रह (प्लूटो) ?। इनके अतिरिक्त हजारों छोटे ग्रह तथा ग्रहिकाऐं एवं अगणित धूमकेतु, पुच्छल तारे इस सौर परिवार में सम्मिलित हैं। यह सब सूर्य की प्रबल आकर्षण शक्ति में जकड़े हुए उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। अपने इस सारे परिवार को लेकर सूर्य ‘स्याइरल’ आकाश गंगा की परिक्रमा करता है। इस एक परिक्रमा में उसे 25 करोड़ वर्ष लग जाते हैं। ज्योतिषियों का अनुमान है कि जब से सूर्य पैदा हुआ है तक से अब तक वह 16 ऐसी परिक्रमाएं कर चुका है।

स्थूल पदार्थ विज्ञान अभी तक सूर्य के सम्बन्ध में ऐसी ही जानकारियाँ एकत्रित कर सका है। तथा उसकी किरणों से सप्त रंग, विद्युत प्रवाह, एवं आणविक विकिरण का कुछ हद तक पता लगा सका है। इस दिशा में और भी जानकारी एकत्रित की जा रही है पर यह सूर्य के स्थूल रूप का ही परिचय है। जैसे मनुष्य की सत्ता का विश्लेषण करने के लिए उसके शरीर सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं माना जा सकता, उसकी विद्या, बुद्धि, गुण, कर्म, स्वभाव, प्रवृत्ति, भावना, चेतना एवं आत्मा का पता लगाना भी आवश्यक होता है। इसके बिना केवल शरीर विश्लेषण के आधार पर जो परिचय प्राप्त किया जाएगा वह अधूरा ही रहेगा। इसी प्रकार सूर्य की आत्मा को भी जानना आवश्यक है। इसके बिना गायत्री मंत्र का साधक इस अग्नि पिण्ड सूर्य के जान लेने मात्र से अपना प्रयोजन पूर्ण नहीं कर सकता।

इस अनन्त चैतन्य, जीवन एवं शक्ति का समुद्र इस विश्व में लहरा रहा है। जड़ प्रकृति का परमाणु संकुल, उस चेतन सत्ता की तरंगों से ही तरंगित होकर गतिवान हो रहा है। जड़ पदार्थों में अपनी निज की कोई शक्ति या चेतना नहीं है। जब प्रलय होती है तो वह सब राख के ढेर के समान निष्प्राण, गतिहीन हो जाता है। संसार में जो कुछ हलचल हो रही दीखती है उसके मूल में यह चेतना का महा भाण्डागार ही काम कर रही है। जैसे देह के निर्जीव कलेवर में आत्मा का ही संसार गतिशील रहता है वैसे ही जड़ प्रकृति में चेतना होती दिखाई पड़ती है उसका कारण वह चेतना सागर ही है जिसके लिए गायत्री मंत्र में ‘सविता’ शब्द का प्रयोग हुआ है, यह प्रकाश पिण्ड सूर्य उस सविता का एक बाह्य शरीर स्थूल कलेवर मात्र है।

सूर्य की गर्मी और रोशनी हर किसी को दीखती है, यह उसकी स्थूल शक्ति है। इसके भीतर एक और भी सूक्ष्म सत्ता उसके अन्तर में मौजूद है वह है- जीवनी शक्ति। प्राणियों को उत्पन्न करने, पोषण और अभिवर्धन करने का विश्व व्यापी कार्यक्रम उस सूर्य की आत्मा पर ही आधारित है। रोशनी और गर्मी मशीनों से भी पैदा की जा सकती है, पर उनसे जीवन नहीं मिल सकता। वैज्ञानिक जानते हैं कि यदि सूर्य न होगा तो पृथ्वी पर जीवन का भी कोई चिन्ह शेष न रहेगा।

श्रुति में सूर्य को संसार की आत्मा” बताया गया है। आँखों से आकाश में दौड़ने वाले सूर्य के बाह्य कलेवर को गर्मी और रोशनी का पिण्ड कह सकते हैं, उसकी आत्मा जगत का जीवन है । इस जीवनी शक्ति का दूसरा नाम प्राण शक्ति भी है। सूर्य की आत्मा को ही महाप्राण कहा गया है। उस महाप्राण की बूँदें विभिन्न प्राणियों में अल्प प्राण के रूप में दृष्टिगोचर होती है।

गय कहते हैं प्राण को। त्री कहते है- उद्धार, उत्थान करने वाली को। प्राणशक्ति का उत्थान करने वाली विद्या गायत्री महामंत्र में अभिहित होती है और उसी का एक अंश अपने में धारण करके गायत्री उपासक अपने आपको धन्य बनाता है।

सूर्य के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण परब्रह्म परमात्मा का वह अंश है जिससे इस विश्व ब्रह्माण्ड का संचालन होता है। एक से अनेक बनने का ब्रह्म संकल्प ही महाप्राण बनकर फूट पड़ा है। यह निर्झर जिस दिन तक बह रहा है उसी दिन तक सृष्टि है। जिस दिन परम प्रभु उस संकल्प को समेट लेंगे उसी दिन महाप्राण शान्त हो जाएगा और फिर महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहेगा। यह ब्रह्म संकल्प-महाप्राण परब्रह्म की सत्ता से भिन्न कोई बाहरी पदार्थ नहीं वरन उसी का एक अविच्छिन्न अंग है। परमात्मा अनन्त है उसकी सत्ता असीम है। उस अनन्त, असीम, अचिन्त्य का एक भाग जो सृष्टि के संचालन में, उसकी समस्त प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित रखने में लगा हुआ है। उस महाप्राण को ही सूर्य की आत्मा- सविता देवता समझना चाहिए। प्राणी का, जीवधारी का सीधा सम्बन्ध इसी से है।

जीवन की एक बाह्य और आन्तरिक सुव्यवस्था के लिए प्रगति और शान्ति के लिए परब्रह्म की महाप्राण सत्ता को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना प्राणी के लिए अभीष्ट होता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए गायत्री महामन्त्र द्वारा सविता देवता की उपासना की जाती है।

यह भ्रम नहीं रहना चाहिए कि गायत्री महामंत्र की शक्ति इस अग्नि पिण्ड सूर्य पर अवलम्बित है। यह तो रोशनी और गर्मी मात्र देता है। यह सब तो बिजली की मशीनों से भी प्राप्त किया जा सकता है। इतने मात्र के लिए किसी उपासना की क्या आवश्यकता थी? गायत्री सूर्य की आत्मा सविता शक्ति के साथ उपासक को सम्बन्धित करती है जिसके द्वारा वह परब्रह्म का महाप्राण अपने शरीर और अन्तःकरण में आवश्यक मात्रा में धारण करके लौकिक सुख एवं आत्मिक शान्ति को अनुभव करता हुआ जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

यह महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरुषार्थ, इन्द्रिय, शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है जब वह मनः क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो उत्साह, स्फूर्ति, प्रफुल्लता, साहस, एकाग्रता, स्थिरता, धैर्य संयम आदि सद्गुणों के रूप में देखा जा सकता है। जब उसका अवतरण आध्यात्मिक क्षेत्र में होता है तो त्याग तप, श्रद्धा, विश्वास, दया, उपकार, प्रेम, विवेक, आदि के रूप में दिखाई देता है। तीनों ही क्षेत्र उस महाप्राण से जैसे जैसे भरते जाते हैं वैसे ही मनुष्य अपूर्ण तो उसे पूर्णता की ओर, लघुता से विभुता की ओर, तुच्छता से महानता की ओर बढ़ने लगता है। आत्मकल्याण का लक्ष्य प्राप्ति का यह मार्ग है। गायत्री के द्वारा सविता देवता को - महाप्राण को उपलब्ध करने का प्रयोजन भी यही है।

सविता देवता यद्यपि सूर्य का ही दूसरा नाम है। पर यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि जो अन्तर शरीर और आत्मा का है वही सूर्य और सविता का है। गायत्री महामंत्र का देवता सूर्य वही महाप्राण है। उसका स्पष्टीकरण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर विस्तार पूर्वक किया गया है।

योऽसावदित्वे पुरुषः सोऽहम्।

मैत्रेयी उपनिषद् 6।35

“सूर्य है सो ही मैं हूँ।”

प्राणो वै अर्कः- शतपथ 10। 4। 7।23

“प्राण ही सूर्य है।”

सएव वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणोऽग्निरुदयते

-प्रश्नोपनिषद् 1। 7

“सूर्य के उदय होने पर सारे विश्व में प्राणाग्नि का संचार होने लगता है।”

सहस्त्ररश्मिः शतघा वर्तमानः

प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।

-शतः 6। 7। 1 । 20

“प्राण ही सहस्त्र रश्मियों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान प्रजा को उत्पन्न करने वाला सूर्य है।”

योऽसौ तपन्न्देति ससर्वेषां भूतानां प्राणाना दायो देति।

-श्रुति

इस सूर्य से ही सब प्राणियों को प्राण प्राप्त होता है।

सएष वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणाऽग्नि रुदयति।

“यह प्राण ही सर्वव्यापी अग्नि के रूप में प्रकट होता है।”

आदित्यो वै बाह्रामण उदयत्येषत्द्ये

न चाक्ष्ज्ञुव प्राणमनुगृह्णीते।

- प्रश्नोपनिषद् 1। 7

बाह्य जगत में यह प्राण आदित्य रूप होकर दसों दिशाओं में विद्यमान है।”

विश्व रुपं हरिणं जात वेदसं

परायण ज्योतिरेकं तपन्तरम्।

सहस्त्र रश्मिः शतवा वर्तमानः

प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः

-प्रश्नोपनिषद् 1 । 8

“विश्वरूप, व्यापक, सर्वाधार, प्रकाशवान, तप्त किरणों वाला यह सूर्य समस्त जीवों का प्राण होकर उदय होता है।”

सूर्याद् भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु।

सूर्ये लयं प्राप्तुवन्तियः सूर्यः सोऽहयेव च ॥

-सूर्योपनिषद्

सूर्य से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उसी से उनका पालन होता है, उसी में वे लय हो जाते हैं जो सूर्य है सो ही मैं हूँ।

गायत्री का देवता सविता-सूर्य विश्व के जीवन का, ज्ञान और विज्ञान का केन्द्र है। अन्य समस्त देव शक्तियों का केन्द्र भी वही हैं। चारों वेदों में जो कुछ है वह सब भी इस सविता शक्ति का विवेचन मात्र है। तप, श्रद्धा और साधना के द्वारा योगीजन इसे ही प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। नाम रूप सुविधानुसार कोई भी माना जाय पर वस्तुतः वह सविता देवता ही सब का उपास्य है। उसी को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक साधक को प्रयत्नशील होना पड़ता है। देखिए :-

उद्यन्तं वादित्य मग्निरनु समारोहति

सुषुन्नः सूर्य रश्मिः चन्द्रमा गर्न्धवः।

-श्रुति

“इस सूर्य के अंतर्गत ही अग्नि, सुषुम्न, चन्द्र, गन्धर्व आदि हैं।”

ऋग्भिः पूर्वाह्रेदिषि देव ईयते,

यजुर्वेदेतिष्ठति मध्यअग्रः।

सामवेदनास्तमये महीयते,

वेदैरसन्यस्त्रिभिरेति सूर्यः॥

-श्रुति

“ यह सूर्य प्रातः ऋक् से, मध्याह्न को यजु से और सायं काल साम से युक्त होता है।”

ऋचेऽस्य मण्डलं सामान्यस्य मूतिर्याजूणिच।

त्रयीमयोऽयं भगवान् कालात्प कलकृदविभुः॥

-सूर्य सिद्धान्त

“ऋक् सूर्य का मण्डल और यजुः तथा साम उसकी मूर्ति है। वही काल रूप भगवान है।

“नत्वा सूर्य परंघाम ऋ्ग यजुः साम रूपिणाम्।

-सूर्य पुराण

“ऋक् यजु साम रूपी परंघाम सूर्य को नमस्कार है।”

ए एष वैश्वानरों विश्व रुपं प्राणोअग्नि रुदयते।

तदेतद्वचान्युक्तम।

-प्रश्नोपनिषद् 1 । 7

“यह उदय होने वाला सूर्य ही वैश्वानर (जठराग्नि) और विश्व रूप प्राण है। यही ऋचाओं में कहा गया है।”

अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मा नमन्विष्यादित्यभभिः जयन्ते एतद्वे प्राणनामायतन-मेतदभृतन मयमेतत्परायण मेतस्यान्न पुनरावर्तन्त इतयेषनिरोधः।

तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा तथा विद्या द्वारा जो आत्मा की खोजकर उस आदित्य को प्राप्त करते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते, हय आदित्य ही प्राणों का आश्रय है। वही मोक्ष है, वही पद है, जीव को उसी से परम आश्रय मिलता है।

भदृभत भविष्यं च जंगमंस्थावरं चयत्।

अस्यैकं सूर्यमैवैकं प्रभवं प्रलयविदुः।

असत्श्च सतश्रैव योनिरेषा प्रजापतिः।

तदक्षरं चाव्ययं च यच्चैतद् ब्रह्राशाश्वतम्।

कृत्वैवहि त्रिधान्माननेषु लोकेषुतिष्ठति।

देदान् यथायथं सर्वान् निवेश्य स्वेषु रश्मिषु।

-सूर्योपनिषद्

“जो जड़ चेतन पदार्थ इस संसार में अब मौजूद हैं, भूत काल में थे या भविष्य में होंगे वे सभी सूर्य से उत्पन्न हुए और उसी में तीन होते है। यह सूर्य ही प्रजापति है। यह सत् और असत् की योनि है। अक्षर अव्यय शाश्वत ब्रह्म यही हैं। यही तीनों लोकों में व्याप्त है। समस्त देवता इसी की किरणें हैं।

आदित्येह्मादि भूतस्वात् प्रसूत्या सूर्य उच्यते।

परंज्योतिः तमः पारे सूर्यऽयं सवितेति च॥

-सूर्य सिद्धान्त

“वह समस्त जगत का आदि कारण है इसलिए उसे आदित्य कहते है। सबको उत्पन्न करता है इसलिए सविता कहते हैं। अन्धकार को दूर करता है इससे उसे सूर्य कहा जाता है।

अथादित्य उदयन्यत्प्राचीदिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणाम् रश्मिषु संनिधतें। यदक्षिणाँ यत् प्रतीची यदुदीची यदधी यदर्द्वथ यदन्तरा दिशो यत्सर्वे प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषुसनिधत्तें

-प्रश्नोपनिषद् 1। 6

“पूर्व में उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरणों से पूर्व पच्छिम उत्तर दक्षिण, नीचे ऊपर तथा उनके कोणों की सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है। उसकी किरणों में समस्त जगत का प्राण धारण किया जाता है।

अपश्चं गोपायमतिपद्यमान

माच पराच पथिमिश्चरन्तम्।

स सध्रीचीः स विषूचीर्वचान

आनरीवर्ति भुवनेष्वन्तः॥

-ऐतरेय

“मैंने प्राण को देखा है। (साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट नहीं होता। यह नाड़ियों द्वारा शरीर में दौड़ता रहता है। मुख और नासिका द्वारा यह आता और जाता है। यह शरीर में वायु रूप है पर ब्रह्माण्ड में सूर्य रूप है।

इस कविता की उपासना में संलग्न ऋषि मुनि योग के द्वारा अपनी आत्मा को उस तेज पुँज, महाप्राण, परब्रह्म में प्रविष्ट करते है। शुकदेव जी अपनी साधना को पूर्ण करते हुए जिस स्थिति में प्रविष्ट हुए उसका उल्लेख महाभारत में इस प्रकार मिलता है :-

तस्माद् योग समास्यायत्यक्त्वागृहकलेवरम्।

वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाररम्।।

-महा.

शुकदेव जी ने कहा- मैं योग से स्थित होकर इस देह का त्यागकर तेजो राशि सूर्य में वायुभूत होकर प्रवेश करता हूँ। और अधिक बढ़ाया जाय। जो अपना जख्म लेकर मरहम की आशा से आया है क्या हमारा यही कर्तव्य है कि उसके घावों पर नमक छिड़कें?

साँप, और बिच्छू, छिपकली और छछूँदर जहर फैलाने के लिए इस दुनियाँ में बहुत बड़ी तादाद में मौजूद है। मनुष्य उनके काम को अपने जिम्मे न ले तो क्या हर्ज है? प्रेम और सान्त्वना, सहयोग और उदारता, सज्जनता और सौजन्य के साथ उसे पैदा किया गया है। क्या वह भी अपने इन स्वाभाविक गुणों में से एक टुकड़ा दूसरों को नहीं दे सकता? यह कोई खर्चीली बात नहीं है, पर यदि सहानुभूति हमारे अन्दर हो और उसका थोड़ा उपयोग पीड़ितों के लिए करे तो इसमें केवल उनकी ही भलाई नहीं है, अपना भी कल्याण सन्निहित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: