बड़ों की बड़ी बातें!

June 1961

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राष्ट्र का पैसा

गाँधी जी उन दिनों अपने भाषण के बाद हरिजन फण्ड के लिए चन्दा इकट्ठा किया करते थे। लोग उनकी ओर चल रहे थे और हाथ में पैसे देते जाते थे। गाँधी जी के हाथ से एक पैसा गिर गया वे उसे खोजने लगे। धक्का मुक्की में वह मिल नहीं रहा था। लोगों ने उन्हें परेशान देखकर कहा- बापू! एक पैसे के लिए इतनी चिन्ता न करें। उसकी क्षति पूर्ति हम कर देंगे। पर गाँधी जी उस पैसे को ढूँढ़ते ही रहे और कहा- आप और दें यह अलग बात है पर जो दिया गया है उसे सुरक्षित रखना मेरा कर्तव्य है। यह पैसा मेरा नहीं राष्ट्र का था और जो अमानत मुझे सौंपी गई उसकी सँभाल रखना मेरा कर्तव्य है।

जो लोग सार्वजनिक पैसे की परवा अपने निजी पैसे से भी अधिकार कर सकते हैं वस्तुतः वे ही सार्वजनिक सेवा कर सकने के अधिकारी है।

विकट अवसर का धैर्य

दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह के लड़कों को अंग्रेजों ने सरेआम फाँसी दी और उनका सिर काटकर थाली में रखा गया और उस उसे अंग्रेजों द्वारा बादशाह के सामने पेश किया गया बहादुर शाह न तो अधीर हुए और न शोकाकुल। उनने लापरवाही के साथ कहा- ‘वीर पुरुष ऐसे ही दिन के लिए बच्चे पालते हैं।’

शोक और आघात के अवसर पर मनुष्य के धैर्य और विवेक को परीक्षा होती है। बहादुरशाह का धैर्य वीर पुरुष के ही योग्य था।

नियत कर्तव्यों का पालन

क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फाँसी लगनी थी उस दिन सवेरे जल्दी उठकर वे व्यायाम कर रहे थे। जेल वार्डन ने पूछा आज तो आप को एक घंटे बाद फाँसी लगने वाली है फिर व्यायाम करने से क्या लाभ? उनने उत्तर दिया- जीवन आदर्शों और नियमों में बँधा हुआ है जब तक शरीर में साँस चलती है तब तक व्यवस्था में अन्तर आने देना उचित नहीं है।

थोड़ी सी अड़चन सामने आ जाने पर जो लोग अपनी दिनचर्या और कार्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देते हैं उनको बिस्मिल जी मरते मरते भी अपने आचरण द्वारा यह बता गये है कि समय का पालन, नियमितता एवं धैर्य ऐसे गुण हैं जिनका व्यक्तिक्रम प्राण जाने जैसी स्थिति आने पर भी नहीं करना चाहिए।

अपने सुख के लिए दूसरों के दुःख नहीं

सेवा ग्राम में गाँधी जी के पास एक कुष्ठ रोगी परचुरे शास्त्री रहते थे। उनके कुष्ठ रोग के लिए किसी ने दवा बताई कि- एक काला साँप लेकर हाँडी में बंद किया जाय फिर उस हाँडी को कई घंटे उपलों की आग में जलाया जाय। जब साँप की भस्म हो जाय तो उसे शहद में मिलाकर खाने से कुष्ठ अच्छा हो जायेगा। गाँधी जी ने पूछा- ‘क्या आप ऐसी दवा खाने को तैयार है?’ शास्त्री जी ने उत्तर दिया- बापू! यदि साँप की जगह मुझे ही हांडी में बन्द करके जला दिया जाय तो क्या हानि है? साँप ने क्या अपराध किया है कि उसे इस प्रकार जलाया जाय?

परचुरे शास्त्री की वाणी में उस दिन मानवता की आत्मा बोली थी। वे लोग जो पशु पक्षियों का माँस खाकर अपना माँस बढ़ाना चाहते हैं, इस मानवता की पुकार को यदि अपने बहरे कानों से सुन पाते तो कितना अच्छा होता।

उपकार का प्रत्युपकार

बेंजामिन फ्रेंकलिन ने एक अखबार निकाला। आर्थिक कठिनाई में पड़कर उसने अपने एक मित्र से बीस डालर लिये। जब उसकी स्थिति ठीक हो गई तो वह मित्र की वह रकम लौटाने लगा। मित्र ने कहा- वह रकम तो मैंने आपको सहायता में दी थी। फ्रेंकलिन ने कहा- सो ठीक है पर जब मैं लौटाने की स्थिति में हूँ तो आपकी सहायता का ऋणी क्यों बनूँ?

झगड़े का अन्त इस प्रकार हुआ कि मित्र ने वह रुपये फ्रेंकलिन के पास इस उद्देश्य से जमा किये कि जब कोई जरूरतमंद उधार माँगे तक इसे उसी शर्त पर देदें कि वह भी स्थिति ठीक होने पर उन रुपयों को अपने पास जमा रखेगा और फिर किसी जरूरतमंद को इसी प्रकार इसी शर्त पर दे देगा।

कहते हैं कि अमेरिका में वे 20 डालर आज भी किसी न किसी जरूरतमंद के पास इसी उद्देश्य से घूम रहे हैं।

आवश्यकता के समय दूसरों से सहायता ली जा सकती है पर यह ध्यान रखना चाहिए कि समर्थ होते ही वह सहायता किसी अन्य जरूरत मन्द को लौटा दी जाय। सहायता के साथ जो दान वृत्ति जुड़ी हुई है वह दुहरा कर्ज है। उसका चुकाना एक विशिष्ट नैतिक कर्तव्य है।

अद्भुत सहनशीलता

बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान विश्वनाथ शास्त्री एक शास्त्रार्थ कर रहे थे। विरोधी पक्ष उनके प्रचण्ड वर्क और प्रमाणों के सामने लड़खड़ाने लगा और उसे अपनी हार होती दिखाई देने लगी।

विरोधियों ने शास्त्री जी को क्रोध दिलाकर झगड़ा खड़ा कर देने और शास्त्रार्थ को अंगर्णित रहने देने के लिए एक चाल चली। उनने सुँघनी तमाखू की एक मुठ्ठी शास्त्री जी ने मुँह पर फेंक मारी जिससे उन्हें बहुत छींक आई और परेशानी भी हुई।

शास्त्री जी बड़े धैर्यवान थे, उनने हाथ मुँह धोया। तमाखू का असर दूर किया और शान्त भाव से मुसकराते हुए कहा- हाँ, सज्जनों यह प्रसंग से बाहर की बात बीच में आ गई थी, अब आइए मूल विषय पर आवें और आगे का विचार विनिमय जारी रखो।

शास्त्री जी की इस अद्भुत सहनशीलता को देखकर विरोधी चकित रह गये। उनने अपनी हार स्वीकार कर ली।

मनुष्य का एक बहुत ही उच्चकोटि का गुण सहनशीलता है। जो दूसरों के द्वारा उत्तेजित किये जाने पर भी विक्षुब्ध नहीं होते और अपनी मनः स्थिति को संतुलित बनाये रखते हैं वस्तुतः वे ही महापुरुष है। ऐसे ही लोगों का विवेक निर्मल रहता है।

श्रम से अधिक वेतन

जार्ज बर्नार्डशॉ को अपने आरम्भिक जीवन में एक अच्छी नौकरी मिली। उस नौकरी में काम कम और वेतन अधिक था। शॉ ने यह कहकर इस्तीफा दे दिया कि जितना पैसा मुझे मिलता है उतना काम मेरे पास नहीं है। यह एक आश्चर्यजनक त्यागपत्र था।

हरामखोरी करके भी श्रम से अधिक वेतन प्राप्त करने वाले इस घटना से कुछ सीख सकते हैं।

साधनहीन का साधन

श्रावस्ती नगरी में एक बार भारी अकाल पड़ा। सर्वत्र हाहाकार मच गया। लोग भूखों मरने लगे। भगवान बुद्ध उधर से निकले तो वहाँ की स्थिति देख कर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उनने वहाँ के धनीमानी नागरिकों की एक सभा बुलाई कि भूखे मरने वाले लोगों को सुखी प्रदेश तक पहुँचाने के लिए मार्ग में खाने को कुछ अन्न की सहायता की जाय ताकि वे अन्यत्र जाकर अपनी प्राण रक्षा कर सकें।

सब श्रीमंत चुप थे। वे अपनी कोठी और तिजोरी खाली नहीं करना चाहते थे। चारों ओर सन्नाटा था, एक एक करके सब लोग खिसकने लगे। कोई सहयोग देने को तैयार न था।

इस सन्नाटे को चीरती हुई एक लड़की खड़ी हुई उसने कहा- ‘मैं सब भूखों को भोजन देने का जिम्मा अपने ऊपर लेती हूँ।’ उसकी बात सुनकर सब लोग अवाक् रह गये। जिस जिम्मेदारी को बड़े-बड़े लक्षाधीश अपने कंधे पर उठाने को तैयार नहीं, उसे यह लड़की कहाँ से पूरा करेगी? लड़की ने कहा मैं कल से घर-घर जाकर भीख मागूँगी और उससे जो मिलेगा उसे ही भूखों को बाटूँगी।

उसने वैसा ही किया उसे प्रचुर अन्न मिलने लगा और उससे अगणित दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की प्राण रक्षा हुई।

अपने पास साधन न होने पर भी मनोबल के आधार पर मनस्वी लोग जन सहयोग के आधार पर प्रचुर साधन जुटा सकते है और उससे संसार का भला कर सकते हैं।

शत्रु से भी मनुष्यता का व्यवहार

बाजीराव पेशवा और हैदराबाद के नवाब में लड़ाई हो रही थी। मराठे जीत रहे थे। हारते हुए निजाम की फौज किले में अपनी प्राण रक्षा करने घुसी बैठी थी। धीरे धीरे उसकी रसद खत्म होने लगी। यहाँ तक कि एक दिन अन्न का स्टॉक बिल्कुल समाप्त हो गया।

निजाम ने अन्न की याचना पेशवा से की मंत्रियों ने सलाह दी कि यही मौका दुश्मन पर चढ़ाई करने का है। भूखी फौज को आसानी से जीता जा सकता है। पर पेशवा को यह बात नहीं रुची। उनने कहा- भूखों को मारना कायरता है। उनने तुरन्त बहुत सा अन्न निजाम के किले में पहुँचवा दिया। निजाम इस महानता के आगे नतमस्तक हो गये। उनने पेशवा से संधि कर ली।

युद्ध और शत्रुता में साधारणतः नैतिक नियमों की परवा नहीं की जाती पर भारतीय आदर्श इन विषम परिस्थितियों में भी अपनी अग्नि परीक्षा देकर विश्व भर में अपनी महानता सिद्ध करते रहे है।

ऋण मुक्ति का आदर्श

भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता चितरंजन दास के पिता दस लाख रुपया कर्ज छोड़कर मरे थे। नवयुवक दास ने निश्चय किया कि वे सब का कर्ज चुकायेंगे। कर्ज रिश्तेदारों का था। सभी आसूदा थे इसलिए लड़के की परेशानी को देखते हुए कर्ज वापिस लेना नहीं चाहते थे। पर दास बाबू भी किसी का ऋण रखना अपनी बेइज्जती समझते थे वे जो कमाते गये, अदालत में जमा करते गये। उनने विज्ञापन प्रकाशित कराया कि जिनका कर्ज हो वह अपना पैसा ले जायें। बहुत दिन वह पैसा जमा रहा जब उनने ढूँढ़ ढूँढ़कर कर्जदारों का पता लगाया, उनका हिसाब चुकता किया।

किसी व्यक्ति की बेइज्जती यह है कि वह अनिवार्य आपत्ति के अवसर को छोड़कर अपना खर्च बढ़ाकर उसके लिए कर्ज ले। और उससे भी बड़ी बेइज्जती यह है कि होते हुए भी ऋण चुकाने में अपना कानी करें। चितरंजन दास ने अपने लिए निर्धनता निमंत्रित करके भी ऋण मुक्त होना अपना कर्तव्य समझा। यही आदर्श हर ईमानदार व्यक्ति का होना चाहिए।

समाज सेवी की योग्यता

भगवान बुद्ध के एक शिष्य ने कहा- मैं धर्मोपदेश के लिए देश भ्रमण करना चाहता हूँ, आज्ञा दीजिए। इस पर बुद्ध ने कहा- धर्मप्रचार की पुनीत सेवा को भी अधर्मी और ईर्ष्यालु सहन नहीं कर पाते। वे तरह-तरह के मिथ्या लांछन लगाते हैं, बदनाम करते तथा सताते हैं। तुम्हें उनका सामना करना पड़ेगा तो अपना मानसिक सन्तुलन किस प्रकार ठीक रख पाओगे?

शिष्य ने कहा- मैं किसी के अपकारों के प्रति मन में दुर्भाव न रखूँगा। जो मुझे गालियाँ देगा समझूँगा इसने मारा नहीं इतनी दया की। जो कोई मारेगा तो समझूँगा इसने जीवित छोड़कर उदारता दिखाई। यदि कोई मार भी डालेगा तो समझूँगा इस भव बंधन (संसार) में अधिक कष्ट भोगने से छुटकारा दिलाकर इसने उपकार ही किया।


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