जिन्दगी जीने की समस्या

June 1961

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जिन्दगी जीना भी एक महत्वपूर्ण विद्या हैं। इसके अभाव में असंख्य लोग रोते-झींकते मौत के दिन तो पूरे कर लेते है पर वह लाभ प्राप्त नहीं कर पाते जिसके लिए यह बहुमूल्य जीवन उपलब्ध हुआ है।

अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में कीमती मोटर दे दी जाय तो उसकी दुर्गति ही होगी। जिन्दगी एक मोटर है, उसे ठीक प्रकार चलाने के लिए उसका चलाना जानना आवश्यक है। संसार में जितने भी महत्वपूर्ण कार्य है उन्हें आरम्भ करने से पूर्व तत्सम्बन्धी ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। कारखानों में, उद्योगों में, सरकारी नौकरियों में हर जगह ट्रेन्ड आदमियों की ही नियुक्ति होती है। खेद है कि जिन्दगी जीने जैसे महान उत्तरदायित्व को हाथ में लेने वाले उस की ट्रेनिंग आवश्यक नहीं समझते।

हम सब किसी प्रकार जिन्दगी काटते तो है पर उसमें अव्यवस्था ही भरी होती है। कहते है कि बेताल नाम का पिशाच अपने बालों को बुरी तरह बिखेरे रहता है जिससे उसकी भयंकरता और भी बढ़ जाती है। बहुधा हमारा जीवन क्रम भी बेताल के बालों की तरह फूहड़पन के साथ अस्त-व्यस्त तथा बिखरा होता है। फलस्वरूप न जीने वाले को आनन्द आता है और न उससे संबंधित लोगों को कोई प्रसन्नता होती है।

प्राचीन काल में हमारे पूर्वज मनीषियों ने जीवन लक्ष्य की पूर्ति के महान विज्ञान का आविष्कार करते हुए इस बात पर बहुत जोर दिया था कि व्यक्ति का लौकिक जीवन पूर्ण रीति से सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत हो। आत्म कल्याण का मार्ग यही आरम्भ होता है। यदि मनुष्य अपने सामान्य जीवन क्रम को सन्तोषजनक रीति से चला न सका तो आध्यात्मिक जीवन में भी, परलोक में भी उसको सफलता अनिश्चित ही रहेगी।

इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए चार आश्रम की क्रमबद्ध व्यवस्था की गई थी। आरंभिक जीवन में शक्ति संचय, मध्य जीवन में कुटुम्ब और समाज की प्रयोगशाला में अपने गुण कर्म स्वभाव का परिष्कार, ढलते जीवन में लोकहित के लिए परमार्थ की तैयारी और अन्त में जब सर्वतोमुखी प्रतिभा एवं महानता विकसित हो जाय तो उसका लाभ समस्त संसार को देने के लिए विश्व आत्म परम आत्मा, समष्टि जगत् को आत्म समर्पण करना। यही ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की प्रक्रिया है।

लौकिक जीवन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिये बिना ही लोग पारलौकिक जीवन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते है। यह तो स्कूल का बहिष्कार करके सीधे एम. ए. की उत्तीर्ण का आग्रह करने जैसी बात हुई। इस प्रकार व्यतिक्रम से ही आज लाखों साधु संन्यासी समाज के लिए भार बने हुए है। वे लक्ष्य की प्राप्ति क्या करेंगे, शान्ति और संतोष तक से वंचित रहते है। इधर की असफलता उन्हें उधर भी असफल ही रखती है।

यह संसार एक कर्म भूमि है, व्यायामशाला है, विद्यालय है जिसमें प्रविष्ट होकर प्राणी अपनी आन्तरिक प्रतिभा को विकसित करता है और यह विकास ही अन्ततः आत्म कल्याण के रूप में परिणत हो जाता है। यह दुनियाँ भव बन्धन भी है, माया पाश भी है, नरक भी है, पर है उन्हीं के लिए जिनकी मनोभूमि अस्त-व्यस्त है जिनको जिन्दगी जीने की कला का ज्ञान नहीं है। सब के लिए यह दुनियाँ कुरूप नहीं है। दर्पण की तरह यह केवल उन्हें ही कुरूप दिखाई देती है जिनका अपना चेहरा बिगड़ा हुआ है।

महात्मा इमर्सन कहा करते थे, “मुझे नरक में भेज दो, मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” वे जानते थे कि दुनियाँ में चाहे कितनी ही बुराई और कमी क्यों न हो यदि मनुष्य स्वयं अपने आपको सुसंस्कृत बना ले तो उन बुराइयों की प्रतिक्रिया से बच सकता है। मोटर की कमानी-स्प्रिंग-बढ़िया हो तो सड़क के खड्डे उसको बहुत दचके नहीं देते। कमानी के आधार पर वह उन खड्डों की प्रतिक्रिया को पचा जाता है। सज्जनता में भी ऐसी ही विशेषता है, वह दुर्जनों को नंगे रूप में प्रकट होने का अवसर बहुत कम ही आने देती है। गीली लकड़ी को एक छोटा अंगारा जला नहीं पाता वरन् बुझ जाता है, दुष्टता भी सज्जनता के सामने जाकर हार जाती है।

फिर सज्जनता में एक दूसरा गुण भी तो है कि कोई परेशानी आ ही जाय तो उसे बिना सन्तुलन खोये, एक तुच्छ सी बात मानकर हँसते खेलते सहन कर लिया जाता है। इन विशेषताओं से जिसने अपने आपको अलंकृत कर लिया है उसका यह दावा करना उचित ही है कि “मुझे नरक में भेज दो मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” सज्जनता अपने प्रभाव से दुर्जनों पर भी सज्जनता की छाप छोड़ती ही है।

लोग धन कमाने में लगे है अपनी क्षमता के अनुरूप कमाते और खर्चते भी है। पर यह भूलते रहते है कि अन्य मूल्यवान वस्तुऐं, जो धन से भी अधिक उपयोगी है, उपार्जित की जा रही है या नहीं? स्वास्थ्य का मूल्य क्या धन से कम है? ज्ञान वृद्धि क्या व्यर्थ की चीज है? आमोद प्रमोद का क्या जीवन में कोई स्थान नहीं है? पूजा उपासना क्या निरुपयोगी ही है? स्त्री बच्चों को व्यक्तिगत दिलचस्पी से दूर रखकर क्या उन्हें रोटी कपड़ा देते रहना ही पर्याप्त है? जिस समाज में हम जन्मते और पलते है क्या उसके प्रति हमारे कोई कर्तव्य नहीं है?

इन बातों पर यदि विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि धन कमाने की तरह यह सब बातें भी उतनी ही आवश्यक है। केवल एक ही काम में सारा समय और मनोयोग खर्च कर देना उचित नहीं वरन् सर्वतोमुखी उत्कर्ष की आवश्यकता है। जिस प्रकार केवल घी खाने से ही स्वास्थ्य नहीं सध सकता, उसके लिए अन्न, शाक, लवण आदि से सम्मिश्रित सन्तुलित भोजन चाहिए इसी प्रकार हमारे उपार्जन भी सर्वतोमुखी-सन्तुलित होने चाहिए। जीवन विद्या का यह पहला पाठ है।

कितने लोग है जिनने यह पाठ पढ़ा है और व्यवहारिक जीवन में उतारा है? जो इस शिक्षा से विमुख रहे वे भले ही धन या जो अभीष्ट है वह एक वस्तु अधिक मात्रा में कमा लें पर इतने मात्र से उन्हें जीवन का सर्वतोमुखी आनन्द कदापि प्राप्त न हो सकेगा।

गौरव की, प्रतिष्ठा की, बड़प्पन की, सम्मान की सब कोई इच्छा करते है। पर कितने लोग हैं, जिनने यह सीखा हो कि अपना आदर्श एवं दृष्टिकोण महान रखने पर ही सच्ची और स्थिर प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है। जो भी काम करें उसमें अपने व्यक्तित्व की महानता की छाप छोड़ी जाय जिसके परिणाम में हमें सच्चा गौरव प्राप्त हो, इस बात को कौन सोचता है? आज तो लोग फैशन, श्रृंगार, अकड़, शान और शौकत, शेखी, अपव्यय, बहुसंचय, कोठी, मोटर, दावत, पार्टी जैसी बनावटों के आधार पर बड़े बनने की कोशिश कर रहे हैं। काश, उन्हें कोई यह समझा देता कि यह बाल-क्रीड़ाऐं व्यर्थ हैं। जो भी काम करो उसे आदर्श, स्वच्छ, उत्कृष्ट, पूरा, खरा, तथा शानदार करो। अपनी ईमानदारी और दिलचस्पी को पूरी तरह उसमें जोड़ दो, इस प्रकार किये हुए उत्कृष्ट कार्य ही तुम्हारे गौरव का सच्चा प्रतिष्ठान कर सकने में समर्थ होंगे। अधूरे, अस्त-व्यस्त फूहड़, निकम्मे, गन्दे, नकली, मिलावटी, झूठे और कच्चे काम, किसी भी मनुष्य का सबसे बड़ा तिरस्कार हो सकते है, यह बात वही जानेगा जिसे जीवन विद्या के तथ्यों का पता होगा।

अपनी आदतों का सुधार, स्वभाव का निर्माण, दृष्टिकोण का परिष्कार करना जीवन विद्या का आवश्यक अंग है। ओछी आदतें, कमीने स्वभाव, और संकीर्ण दृष्टिकोण वाला कोई व्यक्ति सभ्य नहीं गिना जा सकता। उसे किसी का सच्चा प्रेम और गहरा विश्वास प्राप्त नहीं हो सकता। कोई बड़ी सफलता उसे कभी न मिल सकेगी। कहते है कि बड़े आदमी सदा चौड़े दिल और ऊँचे दिमाग के होते है।” यहाँ लम्बाई चौड़ाई से मतलब नहीं वरन् दृष्टिकोण की ऊँचाई का ही अभिप्राय है। जिसे जीवन से प्रेम है वह अपने आपको सुधारता है, अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करता है। फलस्वरूप उसके सोचने और काम करने के तरीके ऐसे हो जाते है जिनके आधार पर महानता दिन-दिन समीप आती जाती है।

वचन का पालन, समय की पाबन्दी, नियमित दिनचर्या, शिष्टाचार, आहार विहार की नियमितता, सफाई व्यवस्था आदि कितनी ही बातें ऐसी है जो सामान्य प्रतीत होते हुए भी जीवन की सुव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पाश्चात्य देशों में इन छोटी बातों पर बहुत ध्यान दिया जाता है, फलस्वरूप भौतिक उन्नति के रूप में उन्हें उसका लाभ भी प्रत्यक्ष मिल रहा है। स्वास्थ्य, समृद्धि और ज्ञान की दृष्टि से पाश्चात्य देशों ने जो उन्नति की है उसमें इन छोटी बातों का बड़ा योग है। इन बातों के साथ-साथ यदि आध्यात्मिक सद्गुणों का समन्वय भी हो जाय तो फिर सोना और सुगन्धि वाली कहावत ही चरितार्थ हो जाती है।

ऊपर की पंक्तियों में जीवन विद्या के कुछ पहलुओं की थोड़ी चर्चा की गई है। ऐसे कितने ही कोणों से मिलकर एक सन्तुलित जीवन बनता है। यह सन्तुलित जीवन व्यक्ति को स्वस्थ विकास की ओर ले जाता है। और ऐसे ही सुविकसित व्यक्तियों का समाज किसी राष्ट्र को गौरवशाली बनाता है।

आज चारों ओर अगणित कठिनाइयाँ, परेशानियाँ और उलझने दिखाई पड़ती है उनका कारण एक ही है- अनैतिक, असंस्कृत जीवन। समस्याओं को ऊपर-ऊपर से सुलझाने से काम न चलेगा वरन् भूल कारण का समाधान करना पड़ेगा मनुष्य के जीवन दिव्य देवालयों की तरह पवित्र, ऊँचे और शानदार हों तभी क्लेश और कलह से, शोक और संताप से, अभाव और आपत्ति से छुटकारा मिलेगा। व्यक्ति यदि भगवान के दिव्य वरदान मानव जीवन का समुचित लाभ उठाना चाहता हो तो उसे जिन्दगी जीने की समस्याओं पर विचार करना होगा और सुलझे हुए दृष्टिकोण से अपनी गति विधियों का निर्माण करना होगा।



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