आत्म-विश्वास का मर्म

July 1960

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(श्री चूड़ामन मोतीलाल मुंशी, बुरहानपुर)

आत्म विश्वास का अर्थ है ईश्वर की अनन्त शक्ति में विश्वास। जो असंख्य विपत्तियों से घिर जाने पर भी कार्य करता रहता है और कर्तव्यच्युत नहीं होता वही सच्चा आत्म-विश्वासी है।

उपर्युक्त वचन महात्मा गाँधी के हैं। बहुत से लोग आत्म-विश्वास का गलत अर्थ लगाते हैं और उनकी दृष्टि में आत्मा का अस्तित्व और आत्मविश्वास निज शरीर तक होता है। इस प्रकार की मान्यता रखने वाले तथा ईश्वरीय शक्ति पर विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये ही शायद गाँधीजी को उक्त पंक्तियाँ लिखने की आवश्यकता पड़ी।

ईश्वर सर्व-शक्तिमान, अनन्त, सर्व व्यापक एवं असीम है। उसकी थाह आज तक किसी ने नहीं पाई है। संसार की बड़ी से बड़ी शक्ति के साथ भी उसकी तुलना नहीं की जा सकती। इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ईश्वर ने अपने एक अंश मात्र से धारण कर रखा है, मनुष्य तो उसका एक अंश मात्र है। संसार भर के धर्मों में से किसी भी धर्म के ग्रन्थ को उठा कर देख लीजिए। सब में ईश्वर की व्यापकता का ही वर्णन किया गया है।

ईश्वर सर्वव्यापी होने के कारण हम सब उसी एक ही विराट पुरुष के अंग हैं। इसलिए परमात्मा को विश्वात्मा भी कहा गया है। मनुष्य जब उस परमपिता परमात्मा का अंश होने से उसमें जो शक्ति कार्य कर रही है वह भी उस अंशी भगवान की ही है। ऐसी दशा में उस असीमित को किसी सीमा के बन्धन में नहीं बाँधा जा सकता।

इन सब बातों का आशय है कि मनुष्य उस विश्वरूपी मशीन का एक छोटा सा पुर्जा है और सर्वत्र एक ही परम तत्त्व आत्मा व्याप्त हो रहा है। जिसे हम आत्मा के नाम से या परमात्मा के नाम से पुकारें बात एक ही है। जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार वह अंशी भगवान् भी उसके अंश से भिन्न नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा दोनों का सम्बन्ध अभिन्न है। अतएव आत्मा पर विश्वास करने का अभिप्राय परमात्मा पर विश्वास रखना ही होता है।

आत्म-विश्वासी का जीवन सुख-शान्तिमय होता है। वह हर्ष, शोक, भय, निराशा, सन्देह और चिंतादि मनोविकारों से सर्वथा रहित होता है। आत्म-विश्वासी, दृढ़निश्चयी और दैवी-सम्पदा का स्वामी होता है। इस कारण उसका प्रत्येक कदम सफलता के द्वार खोलता है। वह ईश्वर की अनन्त शक्ति में अटूट विश्वास रखता है। इसलिए वह विषम से विषम परिस्थिति में भी हिमालय की भाँति अटल और अचल होता है और परिस्थितियाँ उससे टकराकर चकनाचूर हो जाती हैं। दुनिया की कोई भी शक्ति उसे कर्तव्यच्युत नहीं कर सकती। वह सर्वत्र एक मात्र आत्मा (परमात्मा) के ही दर्शन करता है। ऐसा व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के मत में सर्वश्रेष्ठ योगी माना गया है। उन्होंने गीता में कहा है-

आत्मौपभ्येन सर्वत्र समं पश्यतियऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमोमतः॥ 6-32॥

इसके विपरीत अविश्वासी व्यक्ति काम, क्रोध, आदि विकारों के चंगुल में फंसा रह कर अपने जीवन को दुःख, क्लेश और अशान्तिमय बनाने वाले मार्ग पर सदा आरुढ़ रहता है। उसके अन्तस्तल आसुरी सम्पदा का कुराज्य स्थापित होने के कारण वह चिन्ता, भय, शोक, निराशा, सन्देह, घृणा आदि दूषित मनोविकारों से अपने को घिरा हुआ पाता है और अन्त में दुर्गति को प्राप्त होता है। यह तो परम पिता परमात्मा का अपमान है।

ऊपर कहा गया है कि मनुष्य ईश्वर का अंश है अतः अंश में वह गुण होना अनिवार्य है जो अंशी में होते हैं, परन्तु मनुष्य अनात्मा पर विश्वास करता है। इसलिए उसमें ईश्वरीय गुणों का विकास नहीं हो पाता। इन गुणों का विकास हमारे आत्म-विश्वास पर निर्भर है। हमारा अपने प्रति जैसा विश्वास होता है, वैसे हमारे गुण, स्वभाव आदि होते हैं। हम जो कुछ हैं, जैसे भी हैं, हमारे विश्वास के ही फल स्वरूप हैं। गीता में कहा गया है-श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव स। अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है वैसा ही स्वरूप है।

मनुष्य उस शेर के बच्चे ही तरह अपनी शक्तियों को विस्मृत कर बैठा है, जो एक बकरियों के झुण्ड में भूल से रह गया था और अपने जाति स्वभाव को भूल चुका था। जब उस शेर के बच्चे से कहा कि “तुम शेर के बच्चे हो” बकरियों में रहकर यह क्या दीन-हीन अवस्था में पड़े हो ? “इतना सुनते ही वह शेर की तरह गुर्राने लगा और उसमें पूर्ववत् शक्तियाँ जागृत हो गईं।” मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा हो गया है। वह काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों (जो अनात्मा के ही स्वरूप हैं) वशीभूत हो कर दीन-हीन दशा में अपना जीवन व्यतीत कर रहा है एवं अपनी आत्मिक शक्तियों से अपरिचित-सा हो गया है। उसे भी उस शेर के बच्चे की तरह संकेत देने से उसकी शक्तियाँ स्वाभाविक ही उत्तेजित हो उठती हैं।

हमारे सन्त और शास्त्र युगों-युगों से यही संकेत देने का कार्य कर रहे हैं। वे चिल्ला-2 कर कह रहे हैं “मनुष्य! तू निर्विकार आत्मा है, सर्व शक्तियों का पुँज है! अभय है, आनन्दमय है! तेरा जन्म दीन-हीन अवस्था में व्यतीत करने के लिए नहीं हुआ है, इस जगत में तुझे महान कार्य करने के लिए भेजा गया है आदि। परन्तु उस ओर ध्यान नहीं देते। जब तक हम इधर ध्यान नहीं देंगे तब तक हमारी आत्मिक शक्तियाँ जागृत न हो सकेंगी और हम ज्यों के त्यों पड़े रहेंगे। ईश्वर ने हमें यह नर देह पशु की तरह भोग भोगने और खाने कमाने के लिए नहीं दिया है बल्कि इसके लिए दिया है कि मनुष्य आत्मा को पहचाने, निरन्तर समुन्नत रहे और सुख-शान्तिमय जीवन व्यतीत करे तथा अन्त में आत्मा (परमात्मा) का दर्शन कर अपना जीवन सफल बनावे। इसके लिए सत्संग, स्वाध्याय, स्तुति प्रार्थना, उपासना आदि उपाय भी बताये गए हैं। इन साधनों के करते रहने से हमारी सात्विक वृत्तियाँ जागृत हो जाती हैं और उनके बल में असंख्य गुनी वृद्धि होती है जिससे आत्म दर्शन सुलभ हो जाता है।

अतः हमें आत्म विश्वासी होना चाहिए। हमें परमात्मा (अपने हृदय आत्मा) पर विश्वास रखकर प्रतिदिन नियमित रूप से उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना चाहिए तथा भूत भविष्य की चिन्ता न कर वर्तमान पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते हुए अपने दैनिक कार्य ईमानदारी से करते रहना चाहिए। अपने कर्म ईमानदारी से करते रहना भी ईश्वर की पूजा ही कही जाती है। गीता में कहा है कि “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः। अर्थात् मनुष्य कर्म द्वारा ईश्वर की पूजा करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है। जिसने इस प्रकार जीवन बना लिया है वस्तुतः वह ही सच्चे अर्थों में आत्मविश्वासी कहलाने का अधिकारी है। इस विषय में मनोविज्ञान के सुप्रसिद्ध विद्वान का मत यहाँ वर्णनीय है। वे लिखते हैं कि “मनुष्य की किसी बात में कार्य क्षमता उसके आत्म-विश्वास पर निर्भर करती है। यह आत्म-विश्वास सच्चे आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम है। जो मनुष्य वर्तमान काल के कर्तव्य पर ही अपने ध्यान को केन्द्रित करता है और बची हुई शक्ति को आध्यात्मिक चिन्तन में लगाता हैं, उसका आत्म-विश्वास नष्ट नहीं होता। जो व्यक्ति प्रत्येक काम में आगे पीछे की बात को बहुत कुछ सोचता रहता है जो भविष्य के बारे में अत्यधिक चिन्तन करता है वह अपनी बहुत सी शक्ति व्यर्थ की चिन्ता में खो देता है। ऐसे व्यक्ति का आत्म-विश्वास नष्ट हो जाता है। फिर उसकी कार्य क्षमता भी जाती रहती है और उससे अनेक प्रकार की भूलें होती रहती हैं।


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