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July 1960

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प्रायः दुश्चिन्ताओं का कोई आधार नहीं होता। केवल कोई अस्पष्ट की आशंका व्यक्ति को अस्वस्थ कर देती है। यह रोग उस अपरिपक्व वय के व्यक्ति को जकड़ लेता है जो नैसर्गिक उद्वेगों का अस्वाभाविक रीति से निरोध करता हैं। चिन्ता से बढ़कर, आज के मनुष्य का और कोई बड़ा शत्रु नहीं हो सकता। चिन्ता करने वाले व्यक्ति को जीवन के महत्व पूर्ण कार्य करने वाला समय ही नहीं मिलता। उसका सारा समय तो व्यर्थ की उधेड़ बुनों में ही चला जाता है। जितना अधिक वह अपनी भूलों और असफलताओं पर विचार करता है, उतना ही अधिक उसका मस्तिष्क असन्तुलित होता है।

हमारी चिन्ता का एक बड़ा कारण यह है कि हम चाहते हैं कि दूसरे सदा हमारे बारे में चिन्तित रहें और जब वह ऐसा नहीं करते, हम स्वयं चिन्तित हो जाते हैं। इसका उपाय इसके अलावा कुछ नहीं है कि हम सदैव अपने को कार्यव्यस्त और बहिर्मुखी रखें।

-सत्यकाम विद्यालंकार


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