संसार का कल्याण आध्यात्म से ही संभव हैं।

July 1960

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम. ए., पी. एच. डी.)

आज के भौतिकवादी युग में जो स्वार्थ, हिंसा, आपाधापी, षड़यन्त्र और राजनैतिक सत्ता को हथियाने के कुटिल प्रयत्न चल रहे हैं, उन्हें देख कर मनुष्य की बुद्धि पर तरस आता है। विज्ञान एटम और हाइड्रोजन बम तथा नर संहार के शत-शत साधन तैयार कर रहा है। मनुष्य अपनी उच्च शक्तियाँ मानव मात्र के हित के स्थान पर संहार में लगा रहा है। मनुष्य में राग, द्वेष, अहं आदि स्वार्थ भाव बुरी तरह बढ़ गये हैं। प्रत्येक कार्य में मनुष्य स्वयं अपना ही संकुचित स्वार्थ देखता हैं, उसी की पूर्ति चाहता है। वह दूसरों की सुख-सुविधा का किंचित भी भाव नहीं रखता। जैसे पशु, पक्षी, कीटाणु केवल अपनी ही निकट आवश्यकता और क्षणिक सुख या वासना की पूर्ति सोच कर कार्य करते हैं, बहुत से व्यक्ति वैसे ही अपना स्वार्थ-सिद्ध करने की सोचते रहते हैं। एक दूसरे को सताते या शोषण करते रहते हैं। फलतः वे आन्तरिक रूप से भी दुःखी हैं। इस प्रकार आज का मानव दीन-हीन कृतघ्न पशु जैसा बन गया है। वह मोह जनित अन्धकार में भटक रहा है। अपने वास्तविक स्वरूप को जैसे भूल गया है।

वास्तव में मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। स्वभाव से उत्तम है। एक से एक उत्तम मानसिक, बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों से सम्पन्न है। किन्तु इन सब से अधिक उसमें आत्म शक्ति है। यह आत्मिक शक्तियाँ अन्य किसी भी प्राणी को नहीं दी गई हैं। केवल मनुष्य को ही ईश्वर के विशेष अनुग्रह पर ये अद्भुत शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। उसका जन्म किसी विशेष ईश्वरीय योजना से सम्पन्न हुआ है। उसमें विशेष ज्ञान, शक्ति और सामर्थ्य भरे गये हैं। अन्तरात्मा के रूप में उसे वह दिव्य अंश प्राप्त हुआ है, जो उसे उच्चतम दैवी आदर्शों की ओर खींचा करता है और पशुता से ऊँचा उठने की दिव्य प्रेरणा दिया करता है।

आज संसार में जो द्वेष, वैमनस्य, कटुता, शत्रुता, स्वार्थ और अशान्ति फैली हुई है, उसका एक मात्र कारण आत्मिक भाव की कमी है। समाज में दुर्भावना का प्रभुत्व है, उसे निकालने के लिए आध्यात्म की बड़ी भारी आवश्यकता है। अध्यात्म-भाव संसार में सर्वत्र चिरन्तन, शाश्वत, सबको बन्धुत्व की रज्जु में पिरोने वाला और विश्वमात्र का कल्याण करने वाला दिव्य भाव है।

स्वार्थ और दुर्भावना मानव-समाज को विघटित करने वाले कीटाणु हैं। इनसे समाज में विषम भाव उत्पन्न होते हैं। आज का धनिक वर्ग निर्धन वर्ग को उपेक्षा की दृष्टि से देखता है, पढ़ा लिखा आदमी निरक्षर वर्ग से घृणा करता है। इस विषमता ने आज न केवल समाज को अपितु सगे-सम्बन्धियों को अलग-अलग कर दिया है। इतना ही नहीं, उनमें ईर्ष्या, द्वेष और शत्रुता के दुर्भाव भी पैदा कर दिए हैं। जब तक मनुष्य में संतोष, धैर्य, शान्ति, क्षमा आदि आत्मिक भाव विकसित नहीं होते, तब तक समाज समुन्नत नहीं हो सकता। अतः समाज का कर्तव्य है कि वह ऊँच-नीच गरीब-अमीर और अन्य संकुचित भेद-भावों को त्याग कर एक दूसरे का सम्मान करना सीखे और मानवता को उन्नत करने का यत्न करे।

सामाजिक और साँसारिक सम्प्रदायों की ओर मनुष्य खिंच रहे हैं। बढ़िया मकान, सुन्दर पत्नी, कुबेर का धन, राज्य, सत्ता का मोह आदि आदि की इच्छा मनुष्य को बनी हुई है। इन वस्तुओं के मिल जाने से भी मनुष्य की तृप्ति नहीं होती। अर्थ की, अधिकार की, सत्ता की भूख जितनी मिटाओ उतनी ही अधिकाधिक भड़कती है। मनुष्य के एक सन्तान है, तो उसे दूसरी संतान का मोह सताता है। किसी के कन्याएँ की कन्याएँ हैं। वह पुत्र के मोह में अतृप्त छटपटा रहा है। मन ही मन बेचैन है। कुछ अपने गाँव में सत्ता पा गए हैं, तो प्रान्त में उससे बड़ी सत्ता और अधिक अधिकारों के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हैं, पैसा व्यय कर वोट जीत रहे हैं। उन्हें हमेशा यह भय रहता है कि कहीं चुनाव में वे हार न जाएं। इस प्रकार राजनीति और सामाजिक क्षेत्रों में अतृप्ति और असंतोष है। अधिकार की आपाधापी है। और अधिक लूटने खसोटने की पिपासा है। तीव्र असंतोष हैं। अशान्ति है।

मानव जीवन का सर्वोपरि साध्य है शान्ति। वातावरण की शान्ति और मन की शान्ति। इस शान्ति से ही मनुष्य का शाश्वत सुख और आत्मसंतोष मिलता है। यह शाँति न तो राजनीति की सत्ता से ही मिलती है और न सामाजिक अधिकारों से ही। ये दोनों ही क्षेत्र सदा अतृप्ति से भरे हुए हैं। इनमें राग और द्वेष का ताण्डव है। इन्द्रियाँ बलपूर्वक हिंसा और लोभ की ओर आकृष्ट होती हैं, पाप करती हैं, दूसरों का दोष दर्शन करती हैं और इसका कुफल है अतृप्ति और अशाँति। जो पाप, दोष, अज्ञान, अन्धकार में पड़कर नीचता और स्वार्थपरता से कार्य करेगा, वह निश्चय ही दुखी रहेगा। आज इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के कारण आसुरी संग्राम मचा हुआ है।

संसार की शान्ति और कल्याण की एक मात्र दवा आध्यात्म ही है। आध्यात्म हमें अशुभ वृत्तियों से दूर कर पवित्रता, विशुद्धता, प्रकाश और शान्ति की ओर आकृष्ट करता है। आध्यात्म हमारे हृदय में रहने वाले परम प्रभु का उज्ज्वल प्रकाश है। इस प्रकाश को फैलाने से चारों ओर शाँति और पवित्रता का शुभ वातावरण फैलता है।

आध्यात्म मनुष्य के प्रत्येक विचार, गुप्त भाव, और कार्य को ईश्वरीय प्रेम और शक्ति से परिपूर्ण करता है। ऐसा व्यक्ति थोथी वासनाओं और पर दोष-शान्ति में समय नष्ट नहीं करता, तुच्छ बातों में मन नहीं लगाता, अज्ञान और अन्धकार में नहीं भटकता।

आध्यात्म हमें अपने ज्ञान के नेत्र खोलने के साधन प्रस्तुत करता है। नीचता, दोष-दर्शन, अज्ञान, अनिष्ट, अशुभ वृत्तियों से ऊँचा उठाकर विशुद्ध आत्म भाव के लोक में ले जाता है। इसे अपनाने से हम सर्व व्याप्त पवित्रता और आनन्द के दर्शन करते हैं।

आध्यात्म हमें मन और इन्द्रियाँ रोक कर एक केन्द्रीय सत्ता में वृत्तियाँ एकाग्र करने की शिक्षा देता है। यह वह दृष्टि है जो हमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक तृप्ति और संतोष देता है। हम अपने संकुचित स्वार्थों से ऊंचे उठकर “सब” की भलाई के तत्वों में सोचते हैं।

आध्यात्म वह भावना है जो तन और मन के मल विकार निकालती है। मनुष्य अपनी गलतियों को समझता है और प्रायश्चित करता है। विकार दूर होने लगते हैं। आत्मज्ञान से तन−मन शुद्धि एवं पुराना शरीर नया हो जाता है। आध्यात्म जीवन का सच्चा काया कल्प है।

आध्यात्म वृत्ति धारण करने से “स्व” के स्थान पर “पर” का पोषण होता है, मानसिक तृप्ति मिलती अभय है। समता और संयम का पोषण होता है। आवश्यकताएँ कम हो जाती हैं और मनः शान्ति बढ़ जाती है। मनुष्य की आवश्यकताएँ तो अनगिनत असंख्य हैं। उनकी पूर्ति अनेक जीवनों में भी संभव नहीं है। आध्यात्म मानसिक नियंत्रण की शिक्षा देता है।

मुनि नथमल जी के शब्दों में, “आध्यात्मवाद से आवश्यकता की पूर्ति नहीं, उसकी पूर्ति के साधनों का विकार मिट सकता है। आध्यात्म से पदार्थ की प्राप्ति नहीं, प्राप्त पदार्थ पर होने वाला ममकार या बन्धन छूट सकता है।”

आध्यात्म एक पावन प्रकाश है, भौतिकवाद अज्ञान तिमिर!


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