साधना में सेवा का महत्व

July 1960

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(श्री 108 स्वामी सच्चिदानन्दजी महाराज)

प्राणी मात्र की सेवा करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्व भूत हिते रताः’। जो सब जीवों का हित-चिन्तन करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं। अतः साधक के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि वह सेवा-भावी बने।

विभिन्न दुर्गुणों का त्याग करने पर ही सेवा व्रत का पालन किया जा सकता है। स्वार्थ को छोड़े बिना सेवा का कार्य नहीं हो सकता। जिन्हें अपने इन्द्रिय सुखों की चिन्ता रहती हैं, वे व्यक्ति सेवा कार्य में कभी भी सफल नहीं हो सकते।

सेवा-व्रती का हृदय करुण और दया से ओत-प्रोत होता है। वह विषयों के प्रति आसक्त नहीं रहता। वह सब भोगों से निवृत्त रहता है। त्याग के कारण उसमें गुण-ग्राहकता बढ़ती जाती है।

दुखियों की सेवा, निर्बल की रक्षा और रोगियों की सहायता सेवा का मुख्य लक्ष्य है। सेवाव्रती साधक किसी की हानि नहीं करता, किसी का निरादर नहीं करता। वह निरभिमानी, विनयी और त्यागी होता है। उसका अन्तः करण पवित्र होने से मन की चंचलता भी नष्ट हो जाती है।

सेवाव्रती का शरीर स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसे अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान करना चाहिए। अपवित्र और रोगी मनुष्य की प्रवृत्ति कभी स्वच्छ नहीं रहती। उनमें क्रोध, ईर्ष्या आदि की उत्पत्ति हो जाती है। इससे विभिन्न वासनाएँ भड़क उठती हैं। फिर मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता।

जब असंयम का अधिकार बढ़ता है, तब दुष्कर्मों की वृद्धि होती है। सुख की कामना से की गई सेवा भोग में परिवर्तित हो जाती है। तब साधक में अहंकार जागृत होता है। सत्य का लोप हो जाता है, पाप-वृत्तियाँ अपना पंजा कठोर करती हुई उसे बुरी तरह जकड़ लेती हैं।

स्थूल शरीर की इच्छाएं मनुष्य के धर्म का अपहरण कर लेती हैं, उस समय अन्याय और दुराचार का बोलबाला होता है। यदि अपने मन पर नियंत्रण नहीं हो तो सेवा, कुसेवा बन जाएगी और जीवन की सुख-शान्ति का लोप हो जाएगा।

मन शुद्ध हो तो अपने पराये में भेद नहीं रहता। वस्तुओं का लोभ नष्ट हो जाता है, पुत्र पत्नी आदि का मोह भी मिट जाता है। फिर सत् को अपनाना और शुद्ध संकल्पों में लीन रहना साधक के अभ्यास में आ जाता है। उसमें कर्त्तव्य परायणता का उदय होता और विषमता मिट जाती है। भेदभाव दूर होकर परमतत्व के अस्तित्व का बोध होता है।

अहं का शोधन होने पर मानापमान की चिन्ता नहीं रहती, असत्य से मोह मिट जाता है, अनित्य वस्तुओं के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो जाती है और राग-द्वेष, तेरा-मेरा का झंझट समाप्त हो जाता है। जीवन में निर्विकल्पता का आविर्भाव हो जाता है।

सेवा द्वारा सुखोपभोग की आसक्ति समाप्त हो जाती है अतः सब प्राणियों में परमात्मा को स्थित मानते हुए जो तुम्हारी सेवा चाहे, उसी की सेवा करो। सबको अपना स्वरूप मान कर सेवा कार्य में लग जाओ। परन्तु देश, काल और पात्र का विचार कर सेवा करना चाहिये।

बालक, वृद्ध और रोगी मनुष्यों को संकट में पड़ा देखकर उनकी उपेक्षा न करो। दुःखी व्यक्तियों का दुःख दूर करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है। जिन्हें तुम्हारी सेवा की आवश्यकता नहीं, उनकी सेवा करने से कोई लाभ नहीं है।

सेवा के लिए कोई निश्चित स्थान नहीं होता। उसके लिए किसी दिखावे की भी आवश्यकता नहीं हैं। सच्चा सेवक वही है जो बिना प्रदर्शन अपना कार्य करता रहे। सेवा कार्य किसी से प्रशंसा प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि अपना कर्त्तव्य समझ कर किया जाता है।

सेवा कार्य में जब कोई बाधा पड़े, आलस्य के कारण कार्य न होता हो, मन में विश्राम करने की इच्छा उत्पन्न हुई हो, तब समझना चाहिए कि यह वासनात्मक शरीर की इच्छा है। इनकी पूर्ति अपने कर्त्तव्य से गिर जाने के समान होगी और उससे शरीर में प्रमादादि अवगुण बढ़ते जाएंगे।

स्थूल देह का पक्ष मत लो। शरीर तुम्हारा वाहन है, तुम शरीर के वाहन नहीं हो। इसलिए उसका उपयोग अपनी विवेक पूर्ण बुद्धि के द्वारा करो। उसे मिथ्या मार्ग पर चलने से रोको। परन्तु, इसकी अनिवार्य आवश्यकताओं की उपेक्षा भी मत करो, अन्यथा शरीर की शक्ति निर्बल हो जाएगी और वह तुम्हारा साथ देने में समर्थ न रह सकेगा।

सेवा के मार्ग में आने वाले विघ्नों की परवाह न करो। उन्हें धकेलते हुए बढ़े चले जाओ। उस समय अपने दुःख को दुःख न मानकर दुःखियों की सेवा को ही अपना सुख समझो। तुम्हारे जिस सुख में किसी दूसरे का अहित छिपा हो, उस सुख का त्याग कर देना सच्ची सेवा है।

सेवा के बदले में धन या सम्मान की इच्छा वाला सेवक अपनी सेवा का विक्रय करता है और यह सेवा-विक्रय वह जघन्य कर्म है, जिससे सद्गुणों का लोप हो जाना सम्भव है। सेवक का कर्म तो सेवा है, मान-अपमान का उसे कोई भय नहीं होता। जिसका मन यह समझे कि मैं अपना कर्त्तव्य ही कर रहा हूँ अथवा मैं अपने मार्ग से विचलित नहीं हुआ हूँ तो दूसरे लोग चाहे उसकी निन्दा ही करें, सेवक का उससे कोई अनिष्ट नहीं होगा।

जो व्यक्ति सत्य मार्ग से हटकर सेवा का आडम्बर करते हैं, वे अपने भ्रमपूर्ण विचारों के कारण सेवा का यथार्थ भाव नहीं समझ पाते, स्वार्थ भाव से की जाने वाली सेवा सेवक के लिए अपमान का कारण होती है और उससे उसका कोई आत्मिक लाभ भी नहीं होता।

साधक की साधना का प्रारंभ सेवा से होता है, आगे चल कर त्यागी बन जाता और अंत में सिद्धि को प्राप्त होकर परमात्मा में मिल जाता है। परन्तु प्रपंची सेवक प्रारम्भ में स्वामी, फिर रागी और अन्त में मोह को प्राप्त होकर संसार सिंधु में डूब जाता हैं।

सच्ची सेवा वह है जो संसार के आसक्ति पूर्ण सम्बन्धों को समाप्त कर देती है, इसलिए किसी को अपना मान कर सेवा न करो, बल्कि सेवा को कर्त्तव्य मान कर अपने और पराये सभी की सेवा करो। परमात्मा के अंश भूत होने के नाते सब प्राणियों को अपना समझना ही सद्बुद्धि है।

अपने जिस दुःख से दूसरों का हित होता हो, उसे सहन कर लो। अनेक साधु, सन्तों, ऋषियों और महापुरुषों ने परहित पर अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये। यह देह नाशवान है, किसी न किसी दिन इसका अंत तो होना ही है, इसलिए दूसरों के हित में इसका उपयोग होता हो तो उससे अधिक पुण्य और क्या होगा ?

साँसारिक मनुष्य जब किसी से मिलते हैं तो वे कुछ प्राप्त होने की आशा से ही मिलते हैं। जहाँ उन्हें कुछ पाने की आशा नहीं होती, वहाँ वे नहीं जाते। परन्तु, सेवा-भावी व्यक्ति जब किसी से मिलता है तो वह यही सोच कर मिलता है कि ‘मुझे सेवा करने का भी एक अवसर मिला है, क्या मैं इसे कुछ दे सकता हूँ?’ क्योंकि देने की वृत्ति उसके स्वभाव में आ गई होती है।

यदि वह किसी को धन देने में समर्थ नहीं है तो इससे सेवा का महत्व तो कम नहीं हो जाएगा। वह धन नहीं दे पाता तो श्रेष्ठ विचार तो दे ही सकता है। उसके द्वारा जो सेवा-कार्य होता है, वह बड़े से बड़े धन-दान की अपेक्षा श्रेष्ठ है।

सेवा व्रती का कर्त्तव्य हैं कि वह छोटी-छोटी सेवाओं द्वारा भी प्राणियों का बहुत उपकार कर सकता है और कुछ नहीं तो सद्भावना के दो शब्द भी कभी-कभी मनुष्य को धैर्य प्रदान करते हैं और उससे अत्यन्त हित-साधन होता है।

कोई भावुक व्यक्ति अपने जीवन से निराश होकर आपके पास आकर अपने भावों को व्यक्ति करे तो उस समय आपके सान्त्वना भरे दो शब्द ही उसे आत्म हत्या करने से रोक सकते हैं। विचार कीजिए कि आपके वह दो शब्द क्या किसी बहुत बड़े सम्पत्तिदान से कुछ कम महत्व रखते हैं? जीवन से निराश हुए मनुष्य की प्राण-रक्षा में योगदान देना एक बहुत बड़ी सेवा है। इससे कौन इन्कार कर सकता है?


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