चिन्ताओं की उलझन से बाहर निकलिए

July 1960

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(श्री भगवान सहाय वशिष्ठ)

मानव-जीवन संघर्ष का जीवन है। इसमें आदि से अन्त तक कठिनाइयाँ ही कठिनाइयाँ हैं। पद-पद पर आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष के बिना अपने अस्तित्व को कायम रखना प्रायः असम्भव सा ही है। जीवन में तरह-तरह के विघ्न, कठिनाइयों तथा आपत्तियों का आना स्वाभाविक ही है। संसार का एक भी मार्ग ऐसा नहीं जान पड़ता जिसमें विघ्न, बाधाओं का सामना न करना पड़ता हो और इन संघर्षों, विघ्नों, कठिनाइयों के साथ-2 चिन्ता, भय, असन्तोष का पैदा हो जाना स्वाभाविक ही है। औसत मनुष्य को देख लीजिए, वह किसी न किसी बात को लेकर चिन्तित, भयग्रस्त अवस्था में मिलेगा। उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति को अपने कार्य में हानि उठानी पड़ी है, किसी की नौकरी छूटने वाली है, किसी घर में रोग शैया पड़ी है, किसी के पास खाने-कमाने के साधन नहीं हैं, ऐसी परिस्थितियों में चिन्ता होना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार जीवन में पद-पद पर चिन्ताओं का सामना करना पड़ता है। किन्तु विशेषता यह है कि मनुष्य भिन्न-2 तरह से इनका सामना करते हैं। कई तो चिन्ताओं के भयंकर जाल में उलझ कर अपने जीवन को जड़ बना कर असफल हो जाते हैं। इसके विपरीत कई उनसे उसी प्रकार लाभ उठा लेते हैं जिस प्रकार जहर को शुद्ध रूप में उपयोग करने पर वह अचूक दवा का काम देता है।

चिन्ता हमें अपनी विषम परिस्थितियों से जूझने का संकेत करती है, किसी को परीक्षा उत्तीर्ण होने की चिंता है, व्यापार में हानि लाभ की चिंता है, बाल-बच्चों की उचित शिक्षा दीक्षा की चिंता है, घर का खर्च उचित रूप से चलाने की चिंता है, किन्तु केवल चिंता मात्र कर लेने से तो यह परिस्थितियाँ सुलझने से रहीं। इनके लिए एकमात्र सुगम और निश्चित मार्ग है श्रम शीलता। अपने आपको निरंतर अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य में जुटाया जाए। यदि आपको चिंतायें घेरती हैं, निराशा आकर आपका हृदय तोड़ती है तो आप काम में जुट जाइये, शक्ति भर परिश्रम कीजिए। आप देखेंगे कि आपकी चिंता का भाग बहुत कम हो जाएगा और थोड़े दिनों में आपको अपने कर्मों में सफलता मिलेगी। गहरी चिंता में वे ही व्यक्ति पड़ते हैं जो करते कम हैं और सोच-विचार अधिक करते रहते हैं। परिश्रमी व्यक्ति कार्य में संलग्न होकर अपनी चिंताओं से बहुत कुछ छुटकारा पा लेता है। अपनी चिंताओं का सामना कर उनसे छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है कार्य में जोर शोर से जुट जाया जाए। इस प्रकार कार्य द्वारा अपनी चिंताओं के समाधान के लिए संघर्ष करने पर जीवन में नैतिक साहस की वृद्धि होती है, जीवन में एक गति पैदा होती है।

बहुत से लोग अपनी चिंताओं के वास्तविक स्वरूप को अपनी कल्पना में काफी बड़ा बना लेते हैं। साधारण सी बातों को अपनी कल्पना से बढ़ा-चढ़ा कर अपने मस्तिष्क पर चिंताओं का एक भारी बोझा एकत्रित कर लेते हैं। इससे छोटी-2 बातों तथा चिंताओं में मनुष्य उलझ जाते हैं और आगे बढ़ने से रुक कर छटपटाया करते हैं। अतः अपनी साधारण चिंताओं को कल्पना शक्ति के आधार पर अतिरंजित रूप न देकर छोटे से छोटा गिना जाए। अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग उन्हें दूर करने के उपाय सोचने में करना चाहिए। अपनी-2 छोटी-2 समस्याओं को बढ़ा−चढ़ा लेने पर मनुष्य जीवन में असफल हो जाते हैं। अतः चिंताओं का कभी अतिरंजन नहीं करना चाहिए।

रामायण की कथा से सभी परिचित हैं। महावीर हनुमान जब समुद्र लाँघ कर लंका में सीता का पता लगाने जा रहे थे तो मार्ग की दीर्घता आदि कठिनाई की चिंता रूपी सुरसा ने उनकी गति में रुकावट डाली। ज्यों-2 वे उसे कल्पना द्वारा बड़ा और कठिन समझने लगे, त्यों! त्यों! ही वही चिंता रूपी सुरसा अपना आकार बढ़ाती रही किन्तु ज्यों ही हनुमानजी ने अपनी कल्पना द्वारा कठिनाई को क्षुद्र समझ लिया अर्थात् उन्होंने अपना छोटा सा रूप धारण कर लिया तो सहज ही में उस सुरसा रूपी विशाल चिंता से मुक्त होकर अपने पथ पर आगे बढ़ गये। ठीक इसी प्रकार ही हमारे कई भाई अपनी कठिनाइयों को सुरसा की तरह विशाल आकार प्रदान कर देते हैं और तब तक उससे छुटकारा पाना असम्भव होता है। छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है अपना स्वरूप छोटा बना लेना अर्थात् कठिनाइयों को क्षुद्र समझ कर अपने प्रयत्न प्रारम्भ कर देना। इससे इस राक्षसी के चंगुल से बचा जा सकता है।

चिंताग्रस्त लोगों में ऐसे भी लोगों की संख्या अधिक होती है जो अक्सर अपनी भूत एवं भविष्य कालीन बातों की चिंता में मग्न रहते हैं। भले ही उनकी वर्तमान चिंता छोटी सी हो किन्तु वे उसके साथ अपने भूत भविष्य का सम्बन्ध जोड़कर चिंता का भारी बोझा अपने ऊपर लाद लेते हैं। हमें अपने वर्तमान पर ध्यान देना चाहिए उसी की चिंता करनी चाहिये। किसी भी क्षेत्र में अपनी सफलता के लिए वर्तमान में घोर परिश्रम कीजिए। भूत भविष्य की बातों को लेकर चिंता करते रहने से कुछ लाभ नहीं, अपनी वर्तमान समस्याओं की चिंता कर उन्हें सुलझाने का प्रयत्न कीजिए। अपनी भविष्य में आने वाली परिस्थितियों की कल्पना करके अपने आपको चिंता में न फंसाइये। यह निश्चित है कि भविष्य के प्रति आप जो कल्पना करते हैं उसका स्वरूप बदला जा सकता है। आपकी भावी परिस्थितियाँ, कठिनाइयाँ, उलझनें, आशंकायें समाप्त हो सकती हैं, यदि आप केवल वर्तमान की ही चिंता करें और उसके लिए अपने प्रयत्न जारी कर दें।

कमजोरियाँ, अभाव मनुष्य में होते हैं। मनुष्य स्वभाव की यह कमजोरी है कि कुछ न कुछ अपूर्णता उसमें रह जाती है। अतः अपनी किन्हीं भूलों के लिए बार-बार अपने को धिक्कारना, अपने को मूर्ख या अयोग्य मान बैठना उचित नहीं, इससे अपनी क्षमता शक्ति घटने लगती है। अपनी किसी पिछली अयोग्यता, असमर्थता, कमजोरी से अपने आपको स्थायी रूप से असफल, भाग्यहीन समझ बैठना उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार की चिन्ता मनुष्य को ले बैठती है और उसके जीवन विकास को समाप्त कर देती है। मनुष्य से गल्तियाँ होना स्वाभाविक है, उनकी चिन्ता न कर भविष्य में ऐसा न करने की प्रतिज्ञा करके अपनी चिन्ताओं के भार को, आत्म-ग्लानि के विचारों को समाप्त कर देना चाहिए। यदि कोई मनुष्य यह समझता हैं कि वह पूर्ण है, उससे गल्तियाँ नहीं हो सकतीं तो वह अपने को गलत समझता है।

अत्यधिक चिन्ता से निराशा ग्रस्त होकर मनुष्य जब कोई काम करता है तो उसकी सफलता की सम्भावना बहुत कम रहती है। अनिश्चित स्थिति एवं तकलीफों से डर कर भागने अथवा ढिलमिल होने की अपेक्षा हमें धैर्य पूर्वक उनका सामना करना चाहिए। ठोकरें खा-खा कर भी यदि उठ-उठ कर चलने का मार्ग अपना लिया जाए तो निश्चय ही अपनी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। चिन्ताओं से छुटकारा मिल सकता हैं।

अधिकतर लोग चिन्ताओं को अपनी छाती चिपकाए रहते हैं। स्वयं ही उसमें उलझे रहते हैं। यदि अपने किसी अन्तरंग मित्र से मदद ली जाए तो चिन्ताओं से सहज ही में छुटकारा पाया जा सकता है। अपनी चिन्ता का विषय अपने अभिन्न मित्र, गुरु, मार्ग दर्शक, संरक्षक के समक्ष रखिए, वे आपकी चिन्ताओं को कम करके आपके भार को हल्का करेंगे। दूसरों से सान्त्वना मिलने पर मनुष्य बहुत कुछ हद तक अपनी चिन्ताओं से मुक्त हो जाते हैं।

अपनी चिन्ताओं एवं परेशानियों से सुलझने का एक ही सरल मार्ग है- ईश्वर की संरक्षणता जिसमें सान्त्वना मिलती रहें। इसके लिए सर्वोत्तम उपाय है ईश्वर की उपासना। ईश्वर से कठिनाइयों का मुकाबला करने की शक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। इससे हृदय में अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है और चिन्ताओं से छुटकारा मिलता है।

मनुष्य यदि अपनी चिन्ता न करके दूसरों के लिए चिन्ता का स्वभाव बना ले तो चिन्ताओं का वह बोझ जिससे जीवन नीरस एवं सौंदर्य विहीन बन जाता है, से बचा जा सकता है। दूसरों के लिए चिन्ता करने वाले अन्तःकरण में एक प्रकार की शान्ति और हल्कापन अनुभव करते हैं, साथ ही दूसरों का हित साधना भी सम्भव हो जाता है।


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