स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत-गायत्री

July 1960

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(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

वृक्ष का मूल कारण बीज हैं। बीज न हो तो वृक्ष का अस्तित्व ही संभव नहीं। बीज से ही वृक्ष उत्पन्न होता है। बीज की शक्ति का ही विकसित रूप वृक्ष है। इतना होते हुए भी बीज की अपेक्षा वृक्ष का विस्तार उपयोग और मूल्य अधिक होता है। ब्रह्म की अचिन्त्य और अनिर्वेद सत्ता का प्रबल प्रस्फुरण और विकसित स्वरूप वह परा प्रकृति है जिसे आध्यात्मिक भाषा में गायत्री कहते हैं। ब्रह्म को बीज माना जाए तो गायत्री को सुविकसित वृक्ष कहा जाएगा।

पिता से माता का महत्व सौ गुना अधिक माना गया है। इस दृष्टि से परं ब्रह्म परमात्मा से जगतजननी गायत्री माता की महिमा उसकी सक्रियता के कारण अधिक मानी गई है।

जगन्माता च प्रकृतिः पुरुषश्चता जगत्पिता।

गरीयसीति जगताँ माता शतगुणैः पितुः॥

ब्रह्म वैवर्त पुराणं (कृष्ण जन्म खंड 50)

जगत की माता प्रकृति है और जगत का पिता पुरुष (ब्रह्म) है। संसार में पिता से सौ गुना अधिक माता का महत्व माना जाता है।

आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही प्रकार की सूक्ष्म शक्तियों से गायत्री माता ओत-प्रोत हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में वह प्रधानतः ब्रह्म तेज के रूप में परिलक्षित होती हैं। वह परमब्रह्म परमात्मा का ही प्रकट स्वरूप है। वह साधक को ब्रह्म निर्वाण पद तक सुविधा पूर्वक पहुँचा देती है। देवी भागवत पुराण में इस बात को स्पष्ट कर दिया है।

परब्रह्म स्वरूपा च निर्वाण पद दायिनी।

ब्रह्म तेजो मयी शक्ति स्तधिष्ठातृ देवता॥

अर्थात् गायत्री परब्रह्म स्वरूप तथा निर्वाण पद देने वाली है। वह ब्रह्म तेज शक्ति की अधिष्ठतृ देवी है।

यह महाशक्ति सत, रज, तम इन तीनों गुणों से प्रभावित होकर मनुष्य जीवन में ज्ञान, क्रिया और धन के रूप में प्रकट होती है। उपासक को ज्ञानवान, क्रियावान् तथा धनवान् बना देती है।

सात्त्विकस्य ज्ञान-शक्ति राजसस्य क्रियात्मिका।

द्रव्य शक्तिस्तामसस्य तिस्राश्चकथितासव॥

दे .भा. 3/7/26

सात्त्विक की ज्ञानशक्ति, राजस्व की क्रिया शक्ति, तामस की द्रव्य शक्ति ये तीन प्रकार की शक्ति कही गई हैं।

पिण्ड में अन्तर्हित शक्ति कोष

इन तीन शक्तियों का कोष जिन चक्रों में भरा हुआ है गायत्री के द्वारा वे सूक्ष्म चक्र भी जागृत होते हैं :-

इच्छा शक्तिश्च भूः कारः क्रिया शक्तिर्भुवस्तथा।

स्वः कारः ज्ञान शक्तिश्च, भूर्भुवः स्वः स्वरूपकं॥

मूल पद्मश्च भूर्लोको विशुद्धन्च भुवस्तथा।

सुर लोकः सहस्रा गायत्री स्थान निर्णयः॥

भूः- इच्छा शक्ति। भुवः- क्रिया शक्ति। स्वः- ज्ञान शक्ति। यह भूर्भुवः स्व का रूप है। भूः- मूलाधार चन्द्र, भूलोक। भुवः- विशुस्राव चन्द्र, भुवः लोक। स्वः- सहस्रार चन्द्र, सुरलोक यह गायत्री का स्थान है।

मनुष्य के मेरु दण्ड में छः प्रधान चक्र हैं, इन चक्रों में जो शक्तियाँ और सिद्धियाँ भरी हुई हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए गायत्री उपासना द्वारा ही इन षट् चक्रों का जागरण किया जाता है। मूलाधार चक्र में निवास करने वाली कुण्डलिनी महाशक्ति का इन छहों चक्रों पर अधिकार है। इस कुण्डलिनी का गायत्री का ही स्वरूप माना गया है। मनुष्य के अंतर्जगत को प्रकाशवान् बनाने वाले जो दश प्राण अवस्थित हैं तथा उनके कारण जिन सूक्ष्म दश महा विद्याओं का ज्ञान होता है, वह सभी विज्ञान भी गायत्री पर ही निर्भर हैं।

कुण्डलिन्या समुद्भूता गायत्री प्राण धारिणी ।

प्राण विद्या महाविद्या यस्याँ वेत्ति स वेद वित्॥

-योग चूड़ामणि।

अर्थात् कुण्डलिनी रूप में प्रकट होने वाली, चैतन्य प्राण को धारण करने वाली, चैतन्य शक्ति गायत्री है। यह गायत्री ही प्राण विद्या है, यही महा विद्या है, जो इस रहस्य को जानता है वही तत्वदर्शीय है।

मूलादि ब्रह्मरंध्रान्ता गीयते मननाद्यतः।

मनतात् त्राटि षट् चक्रं गायत्री तेन कथ्यते॥

मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्म रंध्र पर्यन्त षट् चक्र जिसकी उपासना से खुल जाते हैं उसे गायत्री कहते हैं।

मानव शरीर अनन्त स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों का भण्डार है पर उनका बाह्य जगत के व्यर्थ विचारों और कार्यों में अपव्यय होता रहता है। इस अपव्यय को रोक कर यदि उनकी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी बना ली जाएं और अंतर्जगत में ही काम करने लगें तो निश्चय ही प्रचण्ड अंतर्बल प्राप्त कर सकता है।

देखिए :-

बहिमुर्खस्य मंत्रस्य वृत्तयो या प्रकीर्तिताः।

ता एवान्तर्मुखरयास्य शक्तियः परिकीर्तिताः॥

मन अर्थात् चित्त के बहिर्मुख होने पर जो वृत्तियाँ कहीं जाती हैं वे ही उसके अन्तर्मुख होने पर ‘शक्तियाँ’ कहलाती हैं।

अंतर्जगत की दश महा विद्याएँ

अंतर्जगत का अत्यन्त विस्तृत विज्ञान है यह दश विद्याओं के रूप में दश भागों में बँटा हुआ है। वैदिक वाङ्मय में इन विद्याओं का विस्तारपूर्वक वर्णन है। (1) उदगीथ विद्या (2) संवर्ण विद्या (3) मधु विद्या (4) पंचाग्नि विद्या (5) उपकोशल विद्या (6) शाँडिल्य विद्या (7) दहर विद्या (8) भूमा विद्या (9) मन्ध विद्या (10) दीर्घायुष्य विद्या इन दश विद्याओं की ऋषियों की सम्पत्ति थी। इन सम्पत्तियों के द्वारा ही वे अपरिग्रही एवं निर्धन रहते हुये इस भूलोक में कुबेर भण्डारी बने हुये थे। जो कुछ देवताओं के पास है उसे वे इसी मानव शरीर में इसी लोक में करतल गत कर लेते थे।

तंत्र मार्ग में भी यही दश विद्याएं अन्य नामों से उपलब्ध हैं। यद्यपि आसुरी वाममार्गी तंत्रोक्त विधान देव सम्प्रदाय के दक्षिणमार्गी वैदिक विधान से भिन्न है फिर भी उनके द्वारा भी उन्हीं सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। तंत्र मार्ग में (1) इन्द्राणी (2) वैष्णवी (3) ब्रह्माणी (4) कौमारी (5) नारसिंही (6) वाराही (7) माहेश्वरी (8) भैरवी (9) चण्डी (10) आग्नेयी इन दश नामों से दश महाविद्याओं की साधना की जाती है।

इन महाविद्याओं का विस्तृत वर्णन इन पंक्तियों में सम्भव नहीं। सुविधानुसार अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों में कुछ समय उपरान्त करेंगे, अभी तो इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि गायत्री के तीनों अक्षर एक प्रकार से आध्यात्मिक त्रिवेणी के समान हैं। जिस प्रकार गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन से तीर्थराज प्रयोग की भौतिक त्रिवेणी बनी है, उसी प्रकार गायत्री के तीन अक्षरों से सन्निहित इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की तीन महाधाराओं के मिलन से आध्यात्मिक त्रिवेगी बनती है। प्रयाग की त्रिवेणी में स्नान करने का पुण्य फल होता है पर इस योग त्रिवेणी में स्नान का जो महाफल है उसका तो वर्णन ही हो सकना कठिन है। लिखा है कि-

इड़ा भोगवती गंगा पिंगला यमुना नदी।

इड़ा पिंगल योर्मऽध्ये सुषुम्ना च सरस्वती॥

इड़ा नाड़ी गंगा हैं, पिंगला यमुना है। इन दोनों के बीच में सुषुम्ना है वही सरस्वती है।

त्रिवेणी योगः सा प्रोक्ता तत्र स्नानं महाफलम्।

यह योग की त्रिवेणी है। इसमें स्नान करने का महा फल होता है।

जो कुछ इस विशाल ब्रह्माण्ड में है वह सब इस शरीर रूपी पिण्ड में भी सूक्ष्म रूप से मौजूद है। जो वस्तु हमें बाहर से उपलब्ध होती है उन सब को साधना द्वारा अंतर्जगत से भी प्राप्त किया जा सकता है। बाहर कोई वस्तु ऐसी नहीं जो भीतर न हो।

देहेऽस्मिन् वर्तते मेरुः सप्त द्वीप समन्वितः।

सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्र पालकाः॥

ऋषियों मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा।

पुण्य तीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठ देवताः॥

सृष्टि संहार कर्तारौ भ्रमन्तौ शशि भास्करौ।

नभो वायुश्च वन्हिश्च जलं पृथ्वी तथैव च॥

त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः।

मेरुं संघेठ्य सर्वत्र व्यवहारः प्रवर्तते॥

जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः।

ब्रह्माण्ड संत्तके देहे यथा देशं व्यवस्थितः॥

-शिव संहिता

इसी देह में मेरु, सप्त द्वीप, सरिता, सागर, शैल, क्षेत्र, क्षेत्र पालक, ऋषि, मुनि, नक्षत्र, ग्रह पीठ, पीठ देवता, शिव, चन्द्र, सूर्य, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, तीनों लोक, सब प्राणि निवास करते हैं। जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में है। इस रहस्य को जो जान सकता है वही योगी है।

आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा जो इन अन्तरंग शक्तियों पर अधिकार कर लेता है उसके लिए वे वैसी ही उपयोगी हो जाती हैं जैसी बिजली एटम से भाप आदि की शक्तियों पर अधिकार प्राप्त करके आज के वैज्ञानिकों ने उन्हें मनुष्य की सेवा में प्रयुक्त कर दिया है। भौतिक जाति में जो शक्ति भौतिक क्षमता सम्पन्न दिखाई पड़ती हैं वही अंतर्जगत में आध्यात्मिक क्षमता के रूप में प्रकट होती है। गायत्री की आध्यात्मिक शक्ति साधक के सन्मुख सिद्धियों के रूप में सामने आती है। उसे लगता है कि अदृश्य लोक के कोई देव दानव उसकी सेवा में उपस्थित हो गये हैं और उसकी आज्ञा का पालन करने के लिये हर क्षण तत्पर रहते हैं।

यक्ष राक्षस गन्धर्वा अप्सरोगण किन्नराः।

सेवन्ते चरणं तस्य सर्वेतस्य वंशानुगाः॥

यक्ष, राक्षस, गंधर्व, अप्सरा, किन्नर आदि उसके वश में हो जाते हैं और उसके चरणों की सेवा करते है।

स्थूल जगत की भौतिक शक्तियाँ

यही मातृ तत्व संसार में परमाणु शक्ति स्थूल, सूक्ष्म, प्राण, भाव आदि रूपों में काम कर रहा है। उसे अभिवादन करते हुए इस प्रकार वर्णन किया है :-

परमाणु स्वरूपे च द्वयणुकादि स्वरूपिणि। स्थूलातिस्थूल रूपेण जगदधात्रि नमोऽस्तुते॥ सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपे च प्राणापानादि रूपिणि।

भावाभाव स्वरूपे च जगद्धात्रि नमोऽस्तुते॥

जगद्धात्री स्तोत्र

परमाणु स्वरूप, द्वि अणु रूपिणी, स्थूलातिस्थूल, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, प्राण अपान व्यान आदि रूपिणी, भावाभाव स्वरूपा, जगद्धातृ आपको नमस्कार है।

यह भौतिक शक्ति गायत्री के 24 अक्षरों के अनुसार 24 प्रकार की है। हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों ऋषियों की भाषा से इन्हें 24 मातृका कहा गया है। इनके नाम इस प्रकार हैं -(1) चन्द्रमेश्वरी (2) अजिनबला (3) दुरितारि (4) कालिका (5) महाकाली (6) श्यामा (7) शान्ता (8) ज्वाला (9) तारिका (10) अशोका (11) श्रीवत्सा (12) चण्डी (13) विजया (14) अंकुशा (15) पन्नगा (16) निर्वाणी (17) बला (18) धारिणी (19) धरण प्रिया (20) नरदत्ता (21) गान्धारी (22) अम्बिका (23) पद्मावती (24) सिद्धायिका।

भौतिक विज्ञान के वर्तमान वैज्ञानिकों ने इनकी शोध अपने ढंग से की है। वे इस शक्ति को “एनर्जी आव फोर्स” के नाम से पुकारते हैं। हीट पावर (ताप) इलेक्ट्रिकल एनर्जी (ताकत) एनर्जी आफ एलैस्टिसिटी (स्थिति) एनर्जी आफ ग्रेविटेशन (मध्याकर्षण) एनर्जी आफ मोशन (गति) क्लेटिक एनर्जी (क्रिया) कॉस्मिक इलैक्ट्रिक सिटी (विश्व विद्युत) इन्टैलिजेन्स (ज्ञान), सुपर फोर्स (उच्च शक्ति) आदि अनेकों भेदों में इस शक्ति को विभक्त किया गया है और उसके गुण कर्मों को जानकर आविष्कारों का तारतम्य मिलाया है।

शरीर में काम करने वाली विद्युत शक्तियों का भी आधुनिक वैज्ञानिकों ने पता लगाया है। (ओजस) औडीलिक फोर्स उंगलियों तथा नेत्रों का तेज परसनल मेगनिट शारीरिक चुंबकत्त्व आदि नामों से इसके भेदों का पता लगाया है। डॉक्टर किलनर ने एक ‘ओरोस्पेक’ नामक एक ऐसे यन्त्र का आविष्कार किया है जिसके द्वारा मानव शरीर के अंतर्गत विभिन्न व्यक्तियों के शरीर में काम करने वाली विभिन्न प्रकार की विद्युत शक्तियों की संख्या तथा मात्रा का पता लगाया जा सकता है। यह शरीर विद्युत योग साधनों से उत्पन्न सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा भी स्पष्टतः देखी जा सकती है। तत्व दर्शियों ने इसके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है :-

तडिल्लेखा तन्वी तपन शशिं वैश्वानरमयो।

तडिल्लता समरुचिर्विद्युल्लेखेव भास्वती॥

बिजली की बेल के समान, तपते हुए चन्द्रमा के समान, अग्निमयी वह शक्ति दृष्टि गोचर होती है।

योग शास्त्रों में शरीर के अन्तः प्रदेश में काम करने वाले सहस्रों तत्वों का पता लाखों वर्ष पूर्व लगा लिया था। आधुनिक विज्ञान ने भी इस मार्ग पर कदम उठाने शुरू किए हैं और पिछले दिनों तक शोधें हुई हैं उनके अनुसार एथेरिक बाडी (प्राण भण्डार) माइस्टिक रोज (हृत पद्म) सोलर प्लेकिसस (सौर जगत) कार्डिअक प्लेसिस (अनाहित चक्र) थिराइड ग्लाण्ड (कंठ ग्रंथि) पाइनियल ग्राण्ड (आज्ञाचक्र) पाइट्यूटरी बाडी (शक्ति ग्रन्थि) आदि का पता चलाया है और यह माना है कि इन विलक्षण संस्थानों द्वारा मनुष्य की प्रसुप्त प्रतिभाओं और विशेषताओं के भाव अभाव से, मन्दता और तीव्रता से भारी सम्बन्ध है। फिर भी वे यह नहीं जान सके कि औषधि, सर्जरी आदि सीमा से बाहर के अति सूक्ष्म संस्थानों का विकास किस प्रकार संभव है। इसका उत्तर एवं मार्ग दर्शन तो योग शास्त्र ही कर सकता है और करता रहा है।

योग साधना का राज मार्ग

इन सूक्ष्म शक्ति संस्थानों के जागरण के लिए साधना विज्ञान के अनुसार बन्ध और मुद्राओं का विधान शास्त्रों में मौजूद है। गायत्री के 24 अक्षरों से सम्बन्धित इस प्रकार की 24 साधनाएं प्रसिद्ध हैं। (1) महामुद्रा (2) नभोमुद्रा (3) उड्डियान (4) जालन्धर बंध (5) मूलबंध (6) महाबन्ध (7) खेचरी (8) विपरीत करणी (9) योनि मुद्रा (10) वज्रौली (11) शक्ति चालनी (12) तडागी (13) माण्डवी (14) शाँभवी (15) अश्विनी (16) पाशिनी (17) काक्री (18) मातंगी (19) भुजाँगिनी (20) पार्थिवी (21) आपम्भरी (22) वैश्वानरी (23) कयवी (24) आकाशी।

आठ प्राणायाम (1) सूर्यभेदन (2) उज्जायी (3) सीत्कारी (4) शीतली (5) भस्त्रिका (6) भ्रामरी (7) मूर्छा (8) प्लाविनी।

यह भी इन्हीं सूक्ष्म संस्थानों के जागरण के लिए हैं। 84 प्रकार के योग आसनों से भी यह उद्देश्य पूरा होता है पर यह सब समझने में नए विज्ञान को कुछ देर लगेगी। फिर भी यह आशा की जा सकती है कि आधुनिक वैज्ञानिक अपनी खोजों को जारी रखते हुए एक दिन वहीं पहुंचेंगे जहाँ बहुत समय पूर्व हमारे ऋषि पहुँच गए थे।

योग दर्शन के द्वितीय अध्याय में अष्टाँग योग साधना की सीढ़ियों का वर्णन है। अहिंसा की साधना करने वाले से हिंसक जीव भी वैर त्याग देते हैं। सत्य की आराधना करने वाले के मुख से निकले हुए शाप वरदान सफल होते हैं। अस्तेय वृत्ति धारण करने से बहुमूल्य रत्नों के समान वस्तुएँ उपलब्ध होती है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से तेजस्विता मिलती है। अपरिग्रह सध जाने पर जन्म−जन्मांतरों का तथा भूत-भविष्य -वर्तमान का ज्ञान हो जाता है। पवित्रता की साधना हो जाने पर घृणा तथा परसंसर्ग से छुटकारा मिलता है। अन्तःकरण ही पवित्रता से मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, इन्द्रियों पर विजय और आत्म साक्षात्कार करने की क्षमता प्राप्त होती है। सन्तोष धारण करने से सर्वोत्तम सुख मिलता है। तप साधना से मल दोष दूर हो जाने पर अणिमा, लघिमा, महिमा, आदि आठ शारीरिक सिद्धियों प्राप्त होती हैं। स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होता है। ईश्वर प्रणिधान से समाधि लग जाती है। आसन सध जाने से सर्दी गर्मी आदि के द्वन्द्व दुख नहीं पहुँचाते। प्राणायाम से पाप और अज्ञान का आवरण मिटता है। प्रत्याहार से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।

अन्य साधनाओं से अन्य प्रकार की भी अनेक सिद्धियाँ मिलती हैं। अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, दूर दर्शन दूर श्रवण, परचित्र विज्ञान, परकाया प्रवेश, आकाशारोहण, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि का वर्णन योग ग्रन्थों में मौजूद है। वे सभी गायत्री उपासना से संभव हैं। कहा गया है कि :-

गायत्री द्वारा योग साधना के पिपीलिका मार्ग, दादर मार्ग, बिहंगम मार्ग यह तीन मार्ग हैं। इन पर चलने से परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चारों वाणियाँ प्रस्फुटित होती हैं। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, आय निवेश यह पाँचों क्लेश दूर होते हैं। जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीया यह चारों अवस्थाएँ परिमार्जित होती हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धास्थ, आज्ञाचक्र यह छहों चक्र जागृत होते हैं एवं मस्तिष्क के मध्य भाग में व्यवस्थित सहस्रार कमल में ब्रह्म तेज विकसित होने लगता है। आकाश, महाकाश, पराकाश, तत्वाकाश, सूर्यकाश, इन पाँचों आकाशों में उसकी गतिविधि विस्तृत होने लगती है। सातों भूमिका में शुभेच्छा, विचारण, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थ भाविनी, तुर्यगा अपनी नियमित गतिविधि से विकसित होती जाती हैं। गायत्री के माध्यम से योग साधना करने वाला साधक योग मार्ग के नौ विघ्नों-व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्ति, अलब्ध भूमिका, अनवस्थित पर विजय प्राप्त कर लेता है।

गायत्री ही वह महाशक्ति है जो सारे विश्व का नियन्त्रण करती है। उसकी सत्ता से संसार की प्रत्येक क्रिया नियमित रूप से होती रहती है। उपनिषद् में इसका वर्णन यों आया है-

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपसि सूर्यः।

भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः॥

(क.ठ. 2-6-3)

जिसके भय से अग्नि तपती है, जिसके भय से सूर्य जलता है, जिसके भय से इन्द्र, वायु और यम दौड़ते रहते हैं।

ऐसी परम महिमामयी माता का श्रद्धा पूर्वक अंचल पकड़ने वाला साधक क्या नहीं प्राप्त कर सकता है? उसे श्रुति सम्मति मार्ग से उपलब्ध है सकने वाला प्रत्येक पदार्थ मिल सकता है।

गायत्र्या सर्व संसिद्धि र्द्विजानाँ श्रुति संमता।

अर्थात् वेद सम्मत सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती हैं।


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