मेरा अन्तःकरण कहता है कि इस पृथ्वी पर मनुष्य का अवतरण वास्तव में दूसरों के लिये ही हुआ है। कोटि-कोटि रूपों में बिखरा हमारा मानव-समाज एक अखण्ड आत्मीयता के प्रवाह में बंधा है। मैं तो प्रतिक्षण यही अनुभव करता रहा हूँ कि मेरे अन्तरीय और बाह्य जीवन के निर्माण में कितने अगणित व्यक्तियों के श्रम का हाथ रहा है। इस अनुभूति से उद्दीप्त होकर मेरा अन्तःकरण सर्वदा आतुर रहता है कि मैं कम से कम इतना तो इस दुनिया को दे सकूँ जितना कि मैंने उससे अभी तक लिया है।
-आइन्स्टीन