गुरु पूर्णिमा का पुनीत पर्व।

July 1960

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(श्री गौरीदत्त झा साहित्याचार्य)

माता पिता की सेवा करना सन्तान का धर्म है। उसकी महिमा शास्त्रों में विस्तार पूर्वक कही गई है पर गुरु की महत्ता उनसे भी बड़ी है क्योंकि माता पिता केवल शरीर को जन्म देते, शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं पर गुरु द्वारा आत्मा का विकास, कल्याण एवं बन्धन मुक्ति का जो महान कार्य सम्पन्न किया जाता है, उसकी महत्ता शरीर पोषण की अपेक्षा असंख्यों गुनी अधिक है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर-मनुष्य जीवन में आध्यात्मिकता को समझने वाले ऋषियों ने गुरु पूर्णिमा का पुनीत पर्व विनिर्मित किया।

आषाढ़ सुदी 15 को गुरु पूर्णिमा का पर्व होता हैं। हिन्दू धर्म में प्रचलित अन्य सभी त्यौहारों की अपेक्षा इसका महत्व अधिक माना गया है। क्योंकि सन्मार्ग के प्रेरक सभी व्रतों पर्वों त्यौहारों से लाभ उठाया जा सकना तभी सम्भव है जब सद्गुरुओं द्वारा उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सर्व साधारण को अनुभव कराई जा सके। यदि मार्ग दर्शक एवं प्रेरक सद्गुरुओं का अभाव हो जाए, उनकी बात पर ध्यान न दें तो पर्व त्यौहारों एवं धर्म शास्त्रों से लाभ उठा सकना जनता के लिए सम्भव न होगा। धर्म ग्रन्थ घरों में रखे तो रहेंगे, उनके पाठ पूजन भी होते रहेंगे पर उनमें वर्णित तथ्यों में अभिरुचि तो गुरु प्रेरणा बिना कैसे उत्पन्न हो सकेगी? इसी प्रकार सारे त्यौहारों की चिन्ह पूजा होती रहेगी, लोग उन अवसरों पर मिठाई मलाई खाते रहेंगे, हँसी खुशी मनाते रहेंगे पर उनके द्वारा जो कल्याणात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित होनी चाहिएं वे गुरु के बिना सम्भव न हो सकेंगी।

जैसे नेत्रों के बिना संसार का सारा वैभव अदृश्य रहता है। जैसे प्रकाश कि बिना सर्वत्र अन्धकार ही छाया रहता है, उसी प्रकार गुरु के बिना भी समस्त धर्म शास्त्रों, कर्मकाण्डों, व्रत पर्वों के होते हुए भी अन्धकार ही छाया रहेगा। इसीलिए गुरु की महिमा को हिन्दू धर्म में अत्यधिक महत्व दिया गया है। गुरु विहीन को “निगुरा” कहकर एक प्रकार की गाली दी गई है। गुरु विहीन व्यक्ति के सत्कर्म भी निष्फल जाने की घोषणा की गई है। गुरु की आवश्यकता एवं उपयोगिता को लोग भूल न जाएं वरन् भली प्रकार ध्यान में रखें, इसी दृष्टिकोण से गुरु पूर्णिमा का त्यौहार प्रचलित है और उसे उत्साह पूर्वक धार्मिक क्षेत्रों में मनाया भी जाता है। शायद ही कोई विचार शील धार्मिक या शिक्षण संस्था ऐसी हो जो गुरु पूर्णिमा पर अपने उत्सव आयोजन न करती हों। प्रत्येक शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरुओं का और प्रत्येक छात्र अपने शिक्षा अध्यापकों का इस दिन अभिवादन करता है और उनके चरणों पर अपनी श्रद्धाँजलि के सुमन अर्पित करता है।

स्कूली छात्रों में दिन-दिन बढ़ रही उद्दंडता, अनुशासन हीनता और धर्म पथ के पथिकों में बढ़ रही अवज्ञा और अनास्था को देखकर देश में सभी विचार शील लोग चिन्तित हैं। भय है कि यह दुष्प्रवाह यदि रोका न गया तो हमारा भावना स्तर बहुत ही निम्न श्रेणी का हो जाएगा और जिस प्रकार गंगोत्री के धारा प्रवाह के शुष्क हो जाने पर सारी गंगा के ही सूख जाने का भय हो सकता है, उसी प्रकार गुरु भाव शिथिल होने पर सारी धर्म प्रवृत्तियों, ज्ञान राशियों के मुरझा जाने का धूमिल होने का भय उपस्थित हो जाएगा। विज्ञ विचारक इस समस्या के कारण चिन्तित हैं और इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि गुरु भक्ति की परम्परा किसी न किसी रूप से जीवित अवश्य रखी जाए।

आज की जितनी तो नहीं पर प्राचीन काल में भी इस बात की आवश्यकता अनुभव की गई थी कि मानव अंतःकरण की सत्प्रवृत्तियों को जीवित रखने एवं विकसित करने के लिए गुरु तत्व के प्रति जन मानस में आस्था कायम रखी जाए। इसी कारण गुरु पूर्णिमा का पर्व बना था और प्रत्येक शिक्षा संस्था तथा धर्म संस्था अपना यह आवश्यक कर्तव्य मानती थी कि इस पर्व को पूरे उत्साह और समारोह पूर्वक मनाया जाए। इतिहास साक्षी है कि लाखों वर्षों तक इस देश में गुरु पूर्णिमा उसी उल्लास पूर्ण वातावरण से मनाई जाती रही जिस प्रकार आज होली दिवाली मनाई जाती हैं। इस पर्व पर प्रत्येक छात्र का अपने अध्यापकों के प्रति और प्रत्येक शिष्य का अपने गुरु के प्रति भक्ति भाव समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ता था और गुरुजनों का वात्सल्य भी अमृतमयी गंगा की तरह लहराता था। वह दिन कितने मंगलमय थे, यह भावोल्लास हमारे साँस्कृतिक भविष्य को उज्ज्वल बनाने में कितना सहायक होता था इसका सही मूल्याँकन कर सकना भी हमारे लिए कठिन है।

राष्ट्र निर्माण के लिए आज जिस प्रकार योजना आयोग के अंतर्गत तेजी के साथ निर्माण कार्य हो रहा हैं उसी प्रकार युग निर्माण के लिए भी हमें अपनी अस्त-व्यस्त साँस्कृतिक परम्पराओं की पुनः सुव्यवस्था एवं जीवित जागृत करना होगा। इस दिशा में गुरु तत्व की महिमा को अक्षुण्य रखना एवं उसकी महत्ता से जन साधारण को परिचित कराना भी एक आवश्यक कदम होगा। इससे जहाँ जन मानस में अपने मार्ग दर्शकों के प्रति पनपने वाली अनास्था एवं कृतघ्नता घटेगी, वहाँ एक लाभ भी होगा कि जनता की तेज आँखें उन ढोंगी गुरुओं का भंडा फोड़ भी कर देंगी जो विज्ञ विचारकों की आलोचना से बचकर किसी कोने में पड़े हुए रोग कीटाणुओं की तरह पनपते और फलते-फूलते रहते हैं। साथ ही सुयोग्य सद्गुरुओं का उत्साह बढ़ेगा और वे अपने चरित्र एवं कर्तव्य के प्रति और भी अधिक जागरुक रहकर आदर्श उपस्थित करने का प्रयत्न करेंगे।

गुरु पूर्णिमा का पर्व उसी उत्साह पूर्वक मनाये जाने का धार्मिक संस्थाओं को प्रयत्न करना चाहिए जैसे कि आजकल होली दिवाली मनाये जाते हैं यों अनेकों धार्मिक एवं शिक्षा संस्थाएँ आज भी इस पर्व को किसी रूप में मनाते हैं पर अब उसमें नवीन चेतना, नया उत्साह एवं व्यवस्थित कार्यक्रम सम्मिलित करने की आवश्यकता है। इस दिशा में अखण्ड ज्योति परिवार को पहल करनी होगी। अपने परिवार ने सदा से समाज को नेतृत्व किया है। धर्म जागृति के लिए उसका नाम इतिहास में अमर रहे, इतना कार्य किया जा चुका है पर इतने में ही संतोष नहीं माना जाना चाहिए। हमें देश में धर्म जागृति के लिए एक के बाद दूसरा कदम उठाते ही चलना है।

अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को आगामी गुरु पूर्णिमा के अवसर पर ता. 8 जुलाई को अपने घर पर यह पुनीत पर्व मनाना चाहिए। सामूहिक गायत्री जप, हवन, गुरु पूजन, गुरु तत्व की महत्ता पर प्रवचन, श्रद्धाँजलि और शान्ति पाठ यह प्रमुख कार्यक्रम इस पर्व में हों। जहाँ यह आयोजन सामूहिक हो सकता हो, पास-पड़ोस के या अन्य धार्मिक अभिरुचि के लोगों को बुलाया जा सके तो उत्सव का रूप सामूहिक हो सकता है, अन्यथा उसे व्यक्तिगत एवं निजी पारिवारिक आयोजन का रूप दिया जा सकता है। ता. 8 जुलाई को प्रातः काल नित्यकर्म स्नानादि से निवृत्त होकर घर के नर, नारी, बाल, वृद्ध सब एकत्रित हों, बीच में हवन की वेदी या कुण्ड बनाया जाए। एक चौकी पर गायत्री माता की तथा गुरु देव की स्थापना की जाए। व्यासजी धर्म प्रवचन कर्ताओं में सबसे अग्रणी माने जाते हैं, सच्चे मार्ग दर्शक ही गुरु कहलाने के अधिकारी हैं। इसलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। यदि भगवान वेद व्यास जी का चित्र बना सकें तो सबसे उत्तम है अन्यथा अपने अपने गुरुओं का अथवा गुरुजनों का चित्र चौकी पर स्थापित किया जा सकता हैं। सब लोग पहले पवित्री करण, आचमन, शिखा बंधन प्राणायाम, न्यास करें। इसके बाद सब लोग एक एक माला का जप करें। इसके बाद हवन किया जाए, यदि हवन विधि पूरी आती हो तो ठीक-अन्यथा हवन सामग्री, समिधा एवं वेदी पर गायत्री मन्त्र पढ़ कर जल के छींटे मार कर उन हवन वस्तुओं को पवित्र कर लिया जाए। इसके बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए अग्नि स्थापित की जाए, पहले घी की सात आहुतियाँ देकर फिर 24 या 108 आहुतियों का गायत्री मन्त्र के अंत में स्वाहा कार लगाते हुए हवन कर लिया जाए, अन्त में मिठाई की एक आहुति, सुपाड़ी के साथ पूर्णाहुति और चम्मच भरकर घी डालते हुए वसोधारा कर ली जाए। आरती, भस्म धारण बचे घृत का मुख कर लगाना, साष्टाँग प्रणाम, परिक्रमा करके हवन पूरा कर लेना चाहिए। अन्य मन्त्र याद न हों तो यह सारी क्रियाएँ गायत्री मन्त्र से हो सकती हैं। जहाँ सुगन्धित सामग्री न हो वहाँ हलुआ, खीर, मिष्ठान्न, तिल जौ, चावल शक्कर घी आदि जो वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध हो सकें उनसे हवन कर लेना चाहिये।

जप और हवन के बाद रोली, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, चन्दन आदि से गायत्री माता तथा गुरु देव के चित्र का पूजन किया जाए। फिर उपस्थित लोगों में से कोई विज्ञ व्यक्ति गुरु तत्व की महत्ता पर प्रवचन करे। जिन गुरुजनों से अब तक प्रेरणा मिली है उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें और जिनने अभी तक कोई गुरु वरण नहीं किया है, वे किसी उपयुक्त स्थिति के व्यक्ति को मानसिक संकल्प द्वारा गुरु वरण कर सकते हैं। देव शयन के कारण प्राचीन परिपाटी के कारण इन दिनों विधिवत गुरु दीक्षा ली या दी नहीं जा सकती। पर मानसिक संकल्प कर लेना और समय आने पर उसका विधान पूरा कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। ‘निगुरा’ होना धर्मच्युत होने का चिन्ह है। गुरु पूर्णिमा के दिन अपने परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को जिसने अब तक गुरु दीक्षा न ली हो, मानसिक संकल्प द्वारा गुरु वरण करके इस गायत्री से युक्त हो जाना चाहिए। गुरु मन्त्र के रूप में गायत्री को ग्रहण करके उसकी एक माला का जप करने का व्रत परिवार के प्रत्येक सदस्य को लेना चाहिए।

हर वर्ष गुरु के चरणों में गुरु पूर्णिमा के दिन कुछ श्रद्धाँजलि भेंट करने की परम्परा चिरकाल से चली आती है। आमतौर से शिष्यगण इस दिन अपने गुरुओं को यज्ञोपवीत, फल, अन्न, वस्त्र तथा पैसा गुरुदक्षिणा के रूप में देते हैं। उनका प्रायः अभिवादन करते हैं, रोली, पुष्प, कलावा आदि से सम्मान करते हैं। पर इतना पर्याप्त नहीं है। आत्म कल्याण तभी हो सकता है, जब गुरुजनों की सत शिक्षाओं को हृदयंगम किया जाए, उनके मार्ग दर्शन के अनुसार अपना जीवन ढाला जाए, जो बुराइयाँ अपने अन्दर आ गई हों, उन्हें ढूँढ़ ढूँढ़ कर निकाला जाए और श्रेष्ठ सद्गुणों की नई स्थापना अपने अंतःकरण में की जाए।

स्वाध्याय एवं सत्संग से मनुष्य ऋषि ऋण से गुरु ऋण से मुक्त हो सकता हैं। सत् साहित्य के कुछ पृष्ठ नित्य पढ़ने का संकल्प लेकर गुरु चरणों में सच्ची श्रद्धाँजलि अर्पित की जा सकती है। अब समय आ गया है कि पुष्प, फल, भोजन दक्षिण आदि से ही गुरु पूजन पर्याप्त न माना जाए वरन् जन जन को अपना जीवन निर्माण करने के लिए गुरु के उपयोगी वचनों को हृदयंगम करने और उन्हें कार्य रूप में परिणित करने का प्रयत्न किया जाए। हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर यदि एक बुराई छोड़ने और एक अच्छाई ग्रहण करने की परम्परा पुनः आरंभ की जाए तो जीवन के अंत तक इस क्रम पर चलने वाला मनुष्य पूर्णता और पवित्रता का अधिकारी बनकर मानव जीवन के परम लक्ष को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उस पूर्णिमा का पुनीत पर्व हमारे व्यक्तिगत कल्याण और सामूहिक रूप से युग निर्माण में भारी सहायक सिद्ध हो सकता है।

अखण्ड ज्योति परिवार के अधिकाँश सदस्य परम पूज्य आचार्य जी को गुरु भाव से मानते हैं। विधिवत् गुरु-दीक्षा सम्भवतः बहुत थोड़े लोगों ने ही ली होगी पर हम में से प्रत्येक पाठक उन्हें उनके उज्ज्वल चरित्र और अब तक ही महान् जन-सेवाओं के कारण उनका आदर करता है, उनके प्रति अभाव श्रद्धा रखता है। लाखों मनुष्यों ने उनकी प्रेरणा से अपने जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए हैं और आगे इससे भी कहीं अधिक लोक हित उनके द्वारा सम्भव दिखाई पड़ता है। गुरु-दीक्षा लेना न लेना इतना महत्व नहीं रखता जितना आत्मिक श्रद्धा एवं ब्राह्मण में ही दृष्टि गोचर हो सकने वाली आचार्य जी की अगणित महानताएँ और विशेषताएँ हमारे मस्तक उनके समक्ष अनायास ही अपने सामने नत करा लेते हैं। वे बिना वरण किए हुए भी हम सबके सहज-पितर हैं-अनायास ही गुरु हैं।

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हम उनके प्रति भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करें। यह सद्भावना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धाँजलि हो सकती है। उनकी वाणी का हम मूल्य समझें। वे जो कुछ कहते हैं उसे ध्यानपूर्वक सुनें, विचार मनन करें और हृदयंगम करने का प्रयत्न करें। ‘अखण्ड-ज्योति’ उनकी जिह्वा है, वाणी है। जिस प्रकार किसी ब्राह्मण को भोजन कराते समय उसके जिह्वा के मधुर और तृप्त करने वाला आहार प्रदान करते है, उसी प्रकार आचार्यजी की जिह्वा ‘अखण्ड-ज्योति’ को सींच कर हम उन्हें तृप्त कर सकते हैं, उनके निश्चय को सफल बनाने का पुण्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अखण्ड ज्योति को हम नियमित रूप से पढ़ें, दूसरों को पढ़ावें, उसमें उल्लिखित विचारों को आध्यात्मिक लोगों में प्रशस्त करें तो एक बड़ी बात आचार्य जी को तृप्त करने के लिए हो सकती है। इस वर्ष अखण्ड ज्योति के ग्राहक काफी घट जाने से आचार्यजी अज्ञातवास जाने से पूर्व काफी खिन्न और चिंतित थे। उनके लौटने से पूर्व अखंड ज्योति की ग्राहक संख्या पहले जितनी बढ़ाकर हम गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु ऋण का एक बड़ा ऋण चुका सकते हैं। एक दो नये ग्राहक बढ़ा देना हममें से किसी के लिए कठिन नहीं है, केवल उपेक्षा और आलस्य को छोड़कर दो चार आदमियों से इस सम्बन्ध में चर्चा कर दें तो एक दो ग्राहक सहज ही बन सकते हैं। इतना छोटा प्रयत्न भी हमारी गुरु भक्ति की परीक्षा की एक महत्वपूर्ण कसौटी का काम कर सकता है। अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को तो इस अवसर पर कदम आगे बढ़ा कर अपना कर्त्तव्य पालन करना ही है।


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