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July 1960

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दस महीना बाद मोतीलाल जी के घर पर पुत्र का जन्म हुआ और उसका नाम जवाहरलाल रखा गया। वही ये जवाहर लाल नेहरू हैं जो वास्तव में समस्त जगत में प्रकाश फैला रहे हैं। सचमुच वह “फरिश्ता” हैं “अवतारी पुरुष” हैं। उन्होंने जो कार्य सिद्ध किया है वह उनकी जन्म-जन्म की तपस्या का फल है।

पं. जवाहरलाल के जन्म से सम्बन्धित इस कथा को स्वयं मालवीय जी ने लिखा था और दिल्ली के “शेरे-पंजाब” नामक उर्दू पत्र ने उसको कहीं से प्राप्त करके प्रकाशित किया था। इस विवरण को पढ़ कर श्री एन. वी. सेन नामक सज्जन ने इसके सम्बन्ध में जाँच करने का विचार किया और स्वयं पं. नेहरू को पत्र लिख कर इसकी सचाई बतलाने को कहा। ता. 25-5-57 को नेहरू जी के निजी सेक्रेटरी श्री सी आर श्रीनिवासन का पत्र उनको मिला कि “नेहरू जी ने आपका (श्री सेन का) पत्र पाने के बाद “शेरे पंजाब” के लेख को पढ़ा। इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि उन्होंने ऐसी बात अभी तक किसी के मुख से नहीं सुनी थी।”

नेहरू जी का यह उत्तर मिलने पर श्री सेन ने “शेरे-पंजाब” के एडिटर से लिखा पढ़ी की। उनकी तरफ से साफ शब्दों में यह उत्तर मिला कि “यह घटना स्वयं मालवीय जी ने एक प्रसिद्ध व्यक्ति को निजी-पत्र में लिखी थी, उसी में से इसे लिया गया है। वह पत्र अभी मौजूद है और वे उसे दिखाने को तैयार हैं।

श्री नेहरू ने श्री सेन को जो उत्तर दिया था, उसमें कहा गया था कि “यदि यह घटना सत्य होती तो मेरे पिताजी अथवा मालवीय जी ने मुझको उसका जिक्र किया होता। पर इस सम्बन्ध में श्री सेन का विचार यह है कि “सम्भव है कि इन दोनों बुजुर्गों ने किसी खास कारणवश यह जवाहरलाल जी से न कही हो। क्योंकि अवतारी पुरुष विशेष कार्य को सिद्ध करने के लिए ही पृथ्वी पर प्रकट होते हैं और जिस समय उनको अपने पूर्व जन्म के विषय में ज्ञान हो जाता है उसी समय उनका जीवन निराशा युक्त हो जाता है। इस प्रकार एक दृष्टि से तो यह अज्ञान आशीर्वाद स्वरूप समझना चाहिए।

यौवन जीवन का कोई नियत समय नहीं अपितु मन की स्थिति है, इच्छा का उद्वेग हैं, कल्पना की विशिष्टता, अनुभूतियों का प्राबल्य है, भीरुता पर पराक्रम का प्रभुत्व है, आलस्य के प्रति प्रेम की अपेक्षा साहसिक कार्यों की भूख है।

अधिक वर्षों तक जीने से ही कोई वृद्ध नहीं हो जाता। लोगों पर बुढ़ापा तभी आता हैं जब वे अपनी इच्छा-शक्ति को तिलाँजलि दे देते हैं। आयु शरीर पर झुर्रियाँ डाल देती है, किन्तु उत्साहहीनता आत्मा पर झुर्रियाँ डालती है। चिंता, सन्देह, आत्म संशय, भय और निराशा ही लम्बे-लम्बे वर्ष हैं। जो सिर को झुकाकर विकासोन्मुख आत्मा को मिट्टी में मिला देते हैं।

मनुष्य किसी भी आयु में हो, उसके हृदय में विश्व के रहस्यों के प्रति आश्चर्य तथा नक्षत्रों और नक्षत्रों जैसी वस्तुओं के प्रति मधुर आकर्षण रहता ही हैं। तभी वह घटनाओं की निर्भीक चुनौती को बच्चों की अतृप्त जिज्ञासा के समान उल्लास और जीवन की क्रीड़ा समझता है।

हम उतने ही जवान हैं, जितना हमें विश्वास है, और उतने ही बूढ़े हैं जितना हमें सन्देह है।

“सफल जीवन”

“सफल जीवन”

गायत्री साधना से वेद-ज्ञान की प्राप्ति

(देवी भागवत पुराण से)

नारायण तीर्थ नामक स्थान में महर्षि विदग्ध शाकल्य का आश्रम था। वहाँ वे अपने एक हजार शिष्यों के सहित निवास करते थे। महर्षि के एक शिष्य याज्ञवलक्य भी उन दिनों उन्हीं के पास थे। महर्षि ने उन्हें ऋग्वेद में पारंगत कर दिया था।

एक दिन आनर्त देश के नरेश सुप्रिय उनके आश्रम पर पहुँचे और वहाँ की सुख-शान्ति देखकर कुछ दिन वहाँ रह कर ऋषि-मुनियों का सत्संग करने की उन्हें इच्छा हुई। महर्षि ने उनके निवास के लिए अपनी आश्रम-भूमि में ही व्यवस्था कर दी और एक विद्यार्थी को यह कार्य सौंपा कि वह नित्यप्रति राजा सुप्रिय का अभिषेक कर उन्हें सुखी रहने का आशीर्वाद दिया करे।

नित्य की भाँति आज भी याज्ञवलक्य राजा को शुभाशीष देने के लिए गए, परन्तु राजा को नित्यकर्म से निवृत्त होने में देर हो गई। उन्होंने नम्रता से कहा-’ऋषिवर! आप कुछ देर रुकें।

याज्ञवलक्य ने सोचा कि ‘आश्रम-जीवन में आलस्य नहीं करना चाहिए।’ उन्होंने राजा से भी ऐसा कहा कि- ‘राजन्! आश्रम-जीवन है। इसमें एक-एक क्षण बहुमूल्य है।’

राजा पर इसका उल्टा प्रभाव पड़ा। उसने सोचा कि ‘यह विद्यार्थी अभिमानी है।, वह बोला-’ऋषि कुमार! यदि तुम रुकना नहीं चाहते तो सामने पड़े लक्कड़ पर जल डाल कर चले जाओ।’

याज्ञवलक्य ने ऐसा ही किया। सूखे लक्कड़ पर पानी डालकर वे चले गए। सायंकाल में राजा की दृष्टि उस पर पड़ी। लक्कड़ हरा हो गया और उसमें नवीन पत्तियाँ तथा फल, फूल लग गए। यह देख राजा अत्यन्त आश्चर्य चकित हो गये। उन्होंने सोचा ‘मैंने यह स्वर्ण अवसर गँवा दिया। जिस जल ने इस शुष्क काष्ठ को हरा-भरा कर दिया, वह यदि मुझे पर पड़ता तो क्या मुझे भी सब प्रकार सुखी न कर देता।’

राजा ने महर्षि विदग्ध शाकल्य के पास अपने मंत्री को भेज कर निवेदन कराया कि ‘आज वाले विद्यार्थी को ही कल प्रातःकाल अभिषेक के निमित्त भेजें।’ यह सुनते ही महर्षि ने याज्ञवलक्य को बुलाकर कहा कि-’वत्स! कल राजा का अभिषेक करने के लिए तुम्हीं जाना।’ परन्तु याज्ञवलक्य ने इसका कुछ उत्तर न दिया।

दूसरे दिन याज्ञवलक्य के स्थान पर अन्य विद्यार्थी को आया देख कर राजा को प्रसन्नता न हुई। उन्होंने उससे भी अभिषेक जल को सामने पड़े अन्य लक्कड़ पर छोड़ने को कहा। विद्यार्थी जल उस पर डाल कर चला गया। परन्तु उस लक्कड़ में कोई परिवर्तन न हुआ।

राजा के मन की अशाँति बहुत बढ़ गई। अब वे स्वयं महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए। विदग्ध शाकल्य ने राजा को सादर आसन दिया और अभिप्राय जानकर याज्ञवलक्य को समीप बुलाकर बोले-’वत्स! राजा हमारे अतिथि हैं। इनका इच्छित करना हमारा कर्तव्य है। अतः जिस कार्य से इनका हित हो, वही करो।’

याज्ञवलक्य ने नम्रता से कहा-’गुरुदेव! यह तपोभूमि है। यहाँ प्रमादी पुरुष का कल्याण सम्भव नहीं है। राजा के प्रमाद का इन आश्रय वासियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा।’

राजा ने याज्ञवलक्य से क्षमा-याचना की। तब विदग्ध शाकल्य बोले-’वत्स याज्ञवलक्य! क्षमा माँगने वाले पर क्रोध कैसा ? अतः राजा पर प्रसन्न होकर इनकी कामना पूर्ण करो।’

याज्ञवलक्य बोले-’गुरुदेव! राजा मेरे सामने नहीं, मेरे चमत्कार के सामने झुका है। मैं इसके हित में कुछ कर सकूँ यह सम्भव नहीं है।’

विदग्धशाकल्य क्रोधित हो उठे। उन्होंने कर्कश स्वर में कहा-’रे मूर्ख! मिथ्याभिमानवश हमारा अपमान कर रहा है। ऐसे प्रमादी शिष्य का इस आश्रम में कोई काम नहीं है। अतः तू मुझसे प्राप्त वेद-विद्या को मुझे लौटा कर यहाँ से चला जा।’

याज्ञवलक्य ने सोचा-’जो गुरुजन अभिमान के वशीभूत होकर अनुचित आज्ञा दें, उनसे विलग हो जाना ही उचित है।’

विदग्धशाकल्य से प्राप्त ऋग्वेद-विद्या को लौटाकर याज्ञवलक्य वहाँ से चल दिए। उनके मन में विविध प्रकार के संकल्प-विकल्प उठ रहे थे। उन्हें लगा कि गुरुदेव का अपमान करके उन्होंने ठीक कार्य नहीं किया क्योंकि जहाँ वे जाते वहीं उनके आश्रम त्याग की बात सुनकर लोग उनकी निन्दा करते। परन्तु, उनका हृदय कहता कि जो कार्य उनसे हो गया है, वह किसी प्रकार भी अनुचित नहीं हुआ। जहाँ प्रमाद है, अभिमान है, स्वार्थ की भावना है, वह स्थान अवश्य ही त्याज्य है।

इस प्रकार विचार करते और भ्रमण करते हुए कई मास व्यतीत हो गए। एक दिन वे प्रभास तीर्थ के निकट पहुँचे। वहाँ उनके नाना महर्षि वैशंपायन निवास करते थे। महर्षि से याज्ञवलक्य ने अपना सब वृत्तांत कहा और उनकी आज्ञा पाकर उन्हीं के पास रहने लगे।

वैशंपायन ने याज्ञवलक्य को यजुर्वेद की शिक्षा दी। अल्पकाल में ही वे यजुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता हो गए। उनकी दिव्य प्रतिभा से वैशंपायन अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे शीघ्र ही आश्रम के कुलगुरु घोषित कर दिए गए।

इसके पश्चात् एक दिन सुमेरु पर्वत पर प्रमुख महर्षियों की एक बृहद् सभा हुई। उसकी सूचना सात दिवस पूर्व प्रसारित की गई और उसमें सम्मिलित न होने वाले को ब्रह्म हत्या लगने की बात कही गई। यह जानकर महर्षि वैशम्पायन ने वहाँ जाने का विचार किया। परन्तु चलने की शीघ्रता में किसी प्रकार उनका पाँव एक शिशु पर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार यह बाल हत्या तो लगी ही, साथ ही सभा में जाना स्थगित करने के कारण ब्रह्म हत्या का पाप और लग गया।

वृद्धावस्था और कृश शरीर के कारण प्रायश्चित करने की महर्षि में शक्ति न रही। अतः उन्होंने याज्ञवलक्य से कहा कि-”किसी बड़े विद्यार्थी से इसका प्रायश्चित कराओ।”

याज्ञवलक्य ने उत्तर दिया-”भगवन्! इन विद्यार्थियों की शक्ति सीमित है, यदि मुझे प्रायश्चित करने की आज्ञा दें, तो मैं इस कार्य को भले प्रकार पूर्ण कर सकूँगा।”

महर्षि ने समझा, याज्ञवलक्य को बड़ा अभिमान हो गया है, यह अन्य शिष्यों को अत्यन्त निस्तेज समझता है। अतः वे बोले-’याज्ञवलक्य! तू इन विद्यार्थियों को इतना हीन समझता है कि इनका अपमान करने में नहीं चूका। अतः मुझे तेरे जैसे अभिमानी शिष्य का त्याग करना ही उचित लगता है। तू मेरी दी हुई वेद-विद्या को लौटा कर चाहे जहाँ चला जा।’

याज्ञवलक्य को इससे बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने कहा कि ‘प्रभो! मरे मन में आपके प्रति अत्यन्त-भक्ति-भाव था, उसी के वशीभूत होकर मैंने ऐसा कहा है। इन विद्यार्थियों का निरादर करने का मेरा किंचित् अभिप्राय न था।’

परन्तु वैशम्पायन का क्रोध शान्त न हुआ। याज्ञवलक्य ने उनसे प्राप्त हुआ यजुर्ज्ञान लौटा दिया और भारी हृदय से आश्रम-त्याग कर चल दिए।

भ्रमण करते हुए याज्ञवलक्य विश्वामित्र तीर्थ में पहुँचे। वहाँ उनके पिता देवरात तप करते थे। पुत्र को आया देख कर वे प्रसन्न हुए। उन्होंने याज्ञवलक्य की दुःख-कथा सुनकर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ‘पुत्र! हमारे वंश में अब तक कोई भी निराश नहीं हुआ। क्योंकि हमारे कुल गोत्र के आदि प्रवर महर्षि विश्वामित्र हैं। उन्होंने गायत्री-साधना द्वारा महान् ब्रह्मवर्चस् को प्राप्त किया है। उसी गायत्री मंत्र के द्वारा तुम्हारे मन का पूर्ण विषाद और निराशा शीघ्र ही दूर हो जाएगी।’

याज्ञवलक्य ने पूछा-’पिताजी! महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय हैं, यह हमारे कुल के आदि प्रवर किस प्रकार हुए?’

देवरात ने उत्तर दिया-’महर्षि अंगिरा के वंश में अजीगर्त नामक एक पुरुष हुए। उनके तीन पुत्र थे-शुनः पुच्छ, शुनः शेप और शुनोलाँगूल। राजा रोहिताश्व ने शुनः शेप को यज्ञपशु के रूप में क्रय किया। उससे जाते समय मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम आया। तब शुनः शेप ने उनसे प्राण-रक्षा की प्रार्थना की। महर्षि ने राजा रोहिताश्व से उसे मुक्त कराया और अपने दत्तक पुत्र के समान रखा। वह शुनः शेप ही मेरे पिता थे। मैंने भी गायत्री मंत्र द्वारा भगवान् सवितादेव को प्रसन्न कर उन्हीं के समान तेजस्वी पुत्र की याचना की थी। तुम भी उन्हीं सवितादेव की उपासना करो। वही तुम्हारा कल्याण करेंगे।’

पिता की आज्ञा पाकर याज्ञवलक्य ने गायत्री-साधना आरम्भ की तब सविता देव प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर वर माँगने को कहा। याज्ञवलक्य ने उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और बोले-’प्रभो आप अन्तर्यामी हैं। मेरी कामना आपसे छिपी हुई नहीं है। मैं समस्त वेद-शास्त्रों के ज्ञान की याचना करता हूँ। वही मुझे प्रदान करो।’

इच्छित वर देकर सविता देव अन्तर्ध्यान हो गए। उसी समय से याज्ञवलक्य के हृदय में सूर्य के समान ही अलौकिक ज्ञान ज्योति प्रकट हुई और वे सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हो गए।


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