आचार्य जी की तप साधना का उद्देश्य

July 1960

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तप की शक्ति अपार है। जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्व इस विश्व में हैं, उसका मूल ‘तप’ में ही सन्निहित है। सूर्य तपता है इसलिए ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है। ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है। सोना तपता है तो खरा तेजस्वी और मूल्यवान बनता है। जितनी भी धातुएँ हैं वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान बन जाती हैं। कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आघात में टूट सकते हैं। तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त वर्ण हो जाते हैं। कच्ची ईंटें भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी कड़ी हो जाती हैं। मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुये विशाल प्रासाद दीर्घ काल तक बने खड़े रहते हैं।

मामूली सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि में तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बन जाता है। अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान भस्म रसायनें बन जाती हैं और उनसे अशक्त एवं कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं। साधारण अन्न और दाल शाक जो कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट। वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचिपूर्ण व्यंजनों का रूप धारण कर लेते हैं। धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले-कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं। पेट की जठराग्नि द्वारा पचाया हुआ अन्न ही रक्त अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है। यदि यह अग्नि संस्कार की, तप की प्रक्रिया बन्द हो जाए तो निश्चित रूप से विकास का सारा क्रम ही बन्द हो जाएगा।

प्रकृति तपती है इसलिये सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है। जीव तपता है उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, उत्साह, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान आदि प्रकृति रत्नों की शृंखला प्रस्फुटित होती है। माता अपने अण्ड एवं गर्भ को अपनी उदस्थ ऊष्मा से पका कर शिशु को प्रसव करती है। जिन जीवों ने मूर्च्छित स्थिति से ऊंचे उठने की, खाने सोने से कुछ अधिक करने की आकाँक्षा की है उन्हें तप करना पड़ा है। संसार में अनेकों पुरुषार्थी, पराक्रमी एवं इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने ढंग का तप करना पड़ा है। कृषक, विद्यार्थी, श्रमिक, वैज्ञानिक, शासक, विद्वान, उद्योगी, कारीगर आदि सभी महत्वपूर्ण कार्य भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है। यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुँच पाते, जो उन्होंने कष्ट-सहिष्णु एवं पुरुषार्थी बनकर उपलब्ध किया है।

सभी पुरुषार्थों में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्व अधिक है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि सामान्य धन सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता अधिक है। धन, बुद्धि, बल आदि के आधार पर अनेकों व्यक्ति उन्नतिशील, सुखी एवं सम्मानित बनते हैं पर उन सबसे अनेकों गुना महत्व वे लोग प्राप्त करते हैं जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है। पीतल और सोने में, काँच और रत्न में जो अन्तर है, वही अंतर साँसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है। इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, उमराव, गुणी, विद्वान, कलावन्त बहुत हैं पर उनकी तुलना उन महात्माओं के साथ नहीं हो सकती जिन्होंने अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं सारे संसार का हित साधन किया। प्राचीनकाल में सभी समझदार लोग अपने बच्चों को कष्ट सहिष्णु, अध्यवसायी, तितिक्षा शील एवं तपस्वी बनाने के लिये छोटी आयु में ही गुरुकुलों में भर्ती करते थे ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवन यापन करके अभ्यस्त होकर महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सकें।

संसार में जब कभी कोई महान कार्य सम्पन्न हुये हैं तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति अवश्य रही है। हमारा देश देवताओं और नररत्नों का देश रहा है। यह भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से यह राष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है। उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुँचने का कारण यहाँ के निवासियों की प्रचण्ड तप निष्ठा ही रही है, आलसी और विलासी, स्वार्थी और लोभी लोगों को यहाँ सदा से घृणित एवं निकृष्ट श्रेणी का जीव माना जाता रहा है। तप शक्ति की महत्ता को यहाँ के निवासियों ने पहचाना, तत्वत कार्य किया और उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई। तभी यह संभव हो सका कि भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊँचा गौरव प्राप्त हुआ।

पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत का बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलंबित रहा है। सृष्टि के उत्पन्न कर्ता प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि निर्माण के पूर्व विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई। मानव धर्म के आविष्कर्ता भगवान मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्व पूर्ण उत्तरदायित्व पूर्ण किया था। भगवान शंकर स्वयं तप रूप हैं। उनका प्रधान कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा। शेष जी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किये हुए हैं। सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घ काल तक चलते रह कर वह सिद्धि प्राप्त की जिससे सदा उनका नाम अजर अमर रहेगा। देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने अपने शिष्यों के कल्याण, मार्ग दर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं।

नई सृष्टि रच डालने वाले विश्वामित्र की, रघुवंशी राजाओं का अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करने वाले वशिष्ठ की क्षमता तथा साधना में ही अन्तर्हित थी। एक बार राजा विश्वामित्र जब बन में अपनी सेना को लेकर पहुँचे तो वशिष्ठजी ने कुछ सामान न होने पर भी सारी सेना का समुचित आतिथ्य कर दिखाया तो विश्वामित्र दंग रह गये। किसी प्रसंग को लेकर जब निहत्थे वशिष्ठ और विशाल सेना सम्पन्न विश्वामित्र में युद्ध ठन गया तो तपस्वी वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र को परास्त ही होना पड़ा। उन्होंने “धिग् बलं आश्रम बलं ब्रह्म तेजो बलं बलम्।” की घोषणा करते हुए राजपाट छोड़ दिया और सबसे महत्व पूर्ण शक्ति की तपश्चर्या के लिए ही शेष जीवन समर्पित कर दिया।

अपने नरक गामी पूर्व पुरुषों का उद्धार करने तथा प्यासी पृथ्वी को जल पूर्ण करके जन-समाज का कल्याण करने के लिए गंगावतरण की आवश्यकता थी। इस महान उद्देश्य की पूर्ति लौकिक पुरुषार्थ से नहीं वरन् तपशक्ति से ही संभव थी। भगीरथ कठोर तप करने के लिए बन को गये और अपनी साधना से प्रभावित कर गंगा जी को भूलोक में लाने एवं शिवजी को उन्हें अपनी जटाओं में धारण करने के लिए तैयार कर लिया। यह कार्य साधारण प्रक्रिया से सम्पन्न न होते। तप ने ही उन्हें संभव बनाया।

च्यवन ऋषि इतना कठोर दीर्घ-कालीन तप कर रहे थे कि उनके सारे शरीर पर दीमक ने अपना घर बना लिया था और उनका शरीर एक मिट्टी के टीले जैसा बन गया था। राजकुमारी सुकन्या को दो छेदों में से दो चमकदार चीजें दिखीं और उनमें उसने काँटे चुभो दिए। यह चमकदार चीजें और कुछ नहीं। च्यवन ऋषि की आँखें ही थीं। च्यवन ऋषि को इतनी कठोर तपस्या इसीलिए करनी पड़ी कि वे अपनी अन्तरात्मा में सन्निहित शक्ति केन्द्रों को जागृत करके परमात्मा के अक्षय शक्ति भण्डार में भागीदार बनने की अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें।

शुकदेव जी जन्म से साधन रत हो गये। उन्होंने मानव जीवन का एक मात्र सदुपयोग इसी में समझा कि इसका उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों में करके नर-तनु जैसे सुर दुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग किया जाए। वे चकाचौंध पैदा करने वाले वासना एवं तृष्णा जन्य प्रलोभनों को दूर से नमस्कार करके ब्रह्म ज्ञान की, ब्रह्म तत्व की उपलब्धि में संलग्न हो गये।

तपस्वी ध्रुव ने खोया कुछ नहीं। यदि वह साधारण राजकुमार की तरह मौज शौक का जीवन यापन करता तो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु ध्रुवतारा बनने और अपनी कीर्ति को अमर बनाने का लाभ उसे प्राप्त न हो सका होता। उस जीवन में भी उसे जितना विशाल राज-पाट मिला, उतना अपने पिता की अधिक से अधिक कृपा प्राप्त होने पर भी उसे उपलब्ध न हुआ होता। पृथ्वी पर बिखरे अन्न कणों को बीन कर अपना निर्वाह करने वाले कणाद ऋषि, वट वृक्ष के दूध पर गुजारा करने वाले बाल्मीक ऋषि भौतिक विलासिता से वंचित रहे पर इसके बदले में जो कुछ पाया वह बड़ी से बड़ी सम्पदा से कम न था।

भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने अपने काल की लोक दुर्गति को मिटाने के लिए तपस्या को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में योग्य किया। व्यापक हिंसा और असुरता के वातावरण को दया और अहिंसा के रूप में परिवर्तित कर दिया। दुष्टता को हटाने के लिए यों तो अस्त्र-शस्त्रों का, दण्ड दमन का मार्ग सरल समझा जाता है पर वह भी सेना एवं आयुधों की सहायता से उतना नहीं हो सकता जितना तपोबल से अत्याचारी शासकों का सारी पृथ्वी से उन्मूलन करने के लिए परशुराम जी का फरसा अभूतपूर्व अस्त्र सिद्ध हुआ। उसी से उन्होंने बड़े-बड़े सेना सामन्तों से सुसज्जित राजाओं को परास्त करके 21 बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया। अगस्त्य का कोप बेचारा समुद्र क्या सहन करता। उन्होंने तीन चुल्लुओं में सारे समुद्र को उदरस्थ कर लिया। देवता जब किसी प्रकार असुरों को परास्त न कर सके, लगातार हारते ही गये तो तपस्वी दधीचि की तेजस्वी हड्डियों का वज्र प्राप्त कर इन्द्र ने देवताओं की नाव को पार लगाया।

प्राचीन काल में विद्या का अधिकारी वही माना जाता था जिसमें तितिक्षा एवं कष्ट सहिष्णुता की क्षमता होती थी। ऐसे ही लोगों के हाथ में पहुँच कर विद्या उसका तथा समस्त संसार का लाभ करती थी। आज विलासी और लोभी प्रकृति के लोगों को ही विद्या सुलभ हो गई। फलस्वरूप वे उसका दुरुपयोग भी खूब कर रहे हैं। हम देखते हैं कि अशिक्षितों की अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता से अधिक दूर हैं और वे ही विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न करके संसार की सुख शान्ति के लिए अभिशाप बने हुए हैं। प्राचीन काल में प्रत्येक अभिभावक अपने बालकों को तपस्वी मनोवृत्ति का बनाने के लिए उन्हें गुरुकुलों में भेजता था और गुरुकुलों के संचालक बहुत समय तक बालकों में कष्ट सहिष्णुता जागृत करते थे और जो इस प्रारम्भिक परीक्षा में सफल होते थे, उन्हें ही परीक्षाधिकारी मान कर विद्यादान करते थे। उद्दालक, आरुणि आदि अगणित छात्रों को कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ता था। इसका वृत्तांत सभी को मालूम है।

ब्रह्मचर्य तप का प्रधान अंग माना गया है। बजरंगी हनुमान, बाल-ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं। शंकराचार्य, दयानन्द प्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत के आधार पर ही संसार की महान सेवा कर सके। प्राचीन काल में ऐसे अनेकों गृहस्थ होते थे जो विवाह होने पर भी पत्नी समेत अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते थे।

आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तप बल से न केवल अपना आत्म कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी सी शक्ति अपने शिष्यों को देकर उनको भी महापुरुष बना देते थे। विश्वामित्र के आश्रम में रह कर रामचन्द्र जी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढ़कर कृष्णचन्द्र जी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान ही कहलाये। समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठ कर एक मामूली सा मराठा बालक, छत्रपति शिवाजी बना। रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र, संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानन्द कहलाया। प्राण रक्षा के लिए मारे-मारे फिरते हुए इन्द्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर उसे निर्भय बनाया, नारद का जरा सा उपदेश पाकर डाकू बाल्मीक महर्षि बाल्मीक बन गया।

उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं। तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर शृंगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए। राज दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चराकर जो अनुग्रह प्राप्त किया उसके फल स्वरूप ही डूबता वंश चला, पुत्र प्राप्त हुआ। पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से परम प्रतापी पाँच पाण्डव उत्पन्न हुए। श्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में कहा जाता है कि उनके पिता मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक संतान से वंचित रहे तो इनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया। अनेकों ऋषि-कुमार अपने माता-पिता के प्रचण्ड आध्यात्मबल को जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में वे कर्म कर लेते थे तो बड़ों के लिए भी कठिन होते हैं। लोमश ऋषि के पुत्र शृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जाना देख कर क्रोध में शाप दिया कि सात दिन में यह कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा। परीक्षित की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किए जाने पर भी सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य ही होकर रहा।

शाप और वरदानों के आश्चर्य जनक परिणामों की चर्चा से हमारे प्राचीन इतिहास का पन्ना पन्ना भरा पड़ा है। श्रवणकुमार को तीर मारने के दंड स्वरूप उसके पिता ने राजा दशरथ को शाप दिया कि वह भी पुत्र शोक से इसी प्रकार बिलख बिलख कर मरेगा, तपस्वी के मुख से निकला हुआ वचन असत्य नहीं हो सकता था, दशरथ को उसी प्रकार मरना पड़ा था। गौतम ऋषि के शाप से इन्द्र और चन्द्रमा जैसे देवताओं की दुर्गति हुई। राजा सगर के दस हजार पुत्रों को कपिल के क्रोध करने के फलस्वरूप जल कर भस्म होना पड़ा। प्रसन्न होने पर देवताओं की भाँति तपस्वी ऋषि भी वरदान प्रदान करते थे और दुख-दारिद्र से पीड़ित अनेकों व्यक्ति सुख शाँति के अवसर प्राप्त करते थे।

पुरुष ही नहीं तप साधना के क्षेत्र में भारत की महिलाएँ भी पीछे न थीं। पार्वती ने प्रचण्ड तप करके मदन दहन करने वाले समाधिस्थ शंकर को विवाह करने के लिये विवश किया, अनुसूया ने अपनी आत्मशक्ति से ब्रह्मा विष्णु महेश को नन्हे-नन्हे बालकों के रूप में परिणत कर दिया। सुकन्या ने तप करके अपने वृद्ध पति च्यवन को युवा बनाया।

सावित्री ने यम से संघर्ष करके अपने मृतक पति के प्राण लौटाये। कुन्ती ने सूर्य का तप करके कुमारी अवस्था में सूर्य समान तेजस्वी कर्ण को जन्म दिया क्रुद्ध गान्धारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस प्रकार मेरे कुल का नाश किया है वैसे ही तेरे सारे कुल का इसी प्रकार परस्पर संघर्ष में अन्त होगा। उसके वचन मिथ्या नहीं गये। सारे यादव आपस में ही लड़कर नष्ट हो गये। दमयन्ती के शाप से व्याध को जीवित जल जाना पड़ा। इड़ा ने अपने पिता मनु का यज्ञ सम्पन्न कराया और उनके अभीष्ट प्रयोजन करने में सहायता की। इन आश्चर्यजनक कार्यों के पीछे उनकी तप-शक्ति की महिमा प्रत्यक्ष है।

देवताओं और ऋषियों की भाँति ही असुर भी यह भली-भाँति जानते थे कि तप में ही शक्ति की वास्तविकता केन्द्रित है। उन्होंने भी प्रचण्ड तप किए और वरदान प्राप्त किए जो सुर पक्ष के तपस्वी भी प्राप्त न कर सके थे। रावण ने अनेकों बार सिर का सौदा करने वाली तप साधना की और शंकर जी को इंगित करके अजेय शक्तियों का भण्डार प्राप्त किया। कुम्भकरण ने तप द्वारा ही छः-छः महीने सोने जागने का अद्भुत वरदान पाया था। मेघनाद, अहिरावण और मारीच की विचित्र माया-शक्ति भी उन्हें तप द्वारा ही मिली थी। भस्मासुर ने सिर पर हाथ रखने से किसी को भी जला देने की शक्ति तप करके ही प्राप्त की थी। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, सहस्रबाहु, बालि आदि असुरों के पराक्रम का भी मूल आधार तप ही था। विश्वामित्र और राम के लिए सिर दर्द बनी हुई ताड़का, श्री कृष्ण चन्द्र के प्राण लेने का सहारा करने वाली पूतना, हनुमान को निगल जाने की क्षमता सम्पन्न सुरसा, अशोक वाटिका में सीता को नाना प्रकार के कौतूहल दिखाने वाली त्रिजटा आदि अनेकों असुर नारियाँ भी ऐसी थीं जिन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में अच्छा खासा परिचय दिया है।

इस प्रकार के दस बीस नहीं हजारों लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं जिनसे तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनुधारी जीवों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्वपर कल्याण के महान आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं। इस युग में महात्मा गाँधी, सन्त विनोबा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास, सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गये हैं, वे साधारण भौतिक पुरुषार्थों द्वारा पूरे किए जाने सम्भव न थे।

परम पूज्य आचार्य जी ने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है। 24 महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग उन्होंने लोक कल्याण में किया है। फलस्वरूप अगणित व्यक्ति इनकी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च कक्षा तक पहुँचे हैं। अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है। साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशा जनक कार्य हुआ है। 24 लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं 24 हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते किन्तु वह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गया। गायत्री तपोभूमि का, गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं जिसके पीछे उनकी साधना तपश्चर्या का ही प्रताप झाँक रहा है।

आगे उन्होंने और भी प्रचण्ड तप करने का यदि निश्चय किया है और भावी जीवन को तप साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। वे तप का महत्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम, पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है। जौहरी काँच को फेंक कर रत्न की साज संभाल करता है। उन्होंने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो हम मोह-ग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते रहें, वस्तुतः उस निश्चय में दूर-दर्शिता और बुद्धिमानी ही ओत-प्रोत है।

सम्भव है वे अभी और कुछ दिन ठहर कर उस आराधना को करते जो तुरन्त ही उन्होंने आरम्भ की है। इस शीघ्रता का कारण उनकी जल्दबाजी नहीं वरन् वर्तमान परिस्थितियों की विवशता ही है। संसार का वातावरण दिन-दिन तेजी के साथ ऐसा विषाक्त होता चला जा रहा है कि उसमें कोई छोटी सी चिनगारी भी विस्फोट कर सकती है। संसार का भयंकर अहित हो सकता है। इस भयंकरता को शाँत करने के लिए विश्व शान्ति का जो वरुणास्त्र चाहिए वह तप के द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। असुरता का जो विकराल रूप सामने उपस्थित हुआ है, उसके शमन के लिए प्राचीन काल के दधीचि व भगीरथ जैसे उदाहरणों का प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।

अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ ज्वालामुखी की तरह भीतर ही भीतर धधक रही हैं। यू 2 जहाज रूस में गिराये जाने और पेरिस का शिखर सम्मेलन असफल हो जाने के बाद यह पंक्तियाँ लिखते समय तक जो घटना-चक्र प्रत्यक्ष और गुप्त रूप में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में घटित हो रहा है, वह काफी चिन्ताजनक है। कौन जानता है कि उसका विस्फोट कब हो जाए? अगला युद्ध तीर तलवारों से, तोप बन्दूकों से वर्षों तक लड़ा जाने वाला नहीं होगा वरन् दो-चार घण्टे के भीतर ही प्रलय के दृश्य उपस्थित कर देगा। उससे लड़ने वाले देश ही नहीं, न लड़ने वाले शान्ति प्रिय लोग भी तबाह हो जाएँगे। सन् 62 में अष्टग्रही योग से वर्तमान विश्व राजनीति का विचार करने से चिन्ता जनक लक्षण और भी अधिक बढ़ जाते हैं। चीन और भारत के मनोमालिन्य जैसी गुत्थियाँ तो संसार में सर्वत्र फैली पड़ी हैं। इन बारूदी सुरंगों में से भी कभी कोई ऐसे विस्फोट हो सकते हैं जिनकी चिनगारी विकराल रूप धारण करके समस्त विश्व के लिए सत्यानाशी परिणाम उपस्थित कर दें। मोरक्को, चिली आदि में जो प्रकोप हुए हैं उनसे धन जाति की अपार हानि हुई है। ऐसे ही उपद्रव और भयंकर रूप से सामने आ सकते है।

राजनैतिक और वैज्ञानिक दोनों मिलकर रचना कर रहे हैं वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है। ऐसे हथियार तो बन रहे हैं जो विपक्षी देशों को तहस नहस करने में अपनी विजय पताका गर्व पूर्वक फहरा सकें। पर ऐसे शस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है जो लगाई हुई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथों को कुँठित कर सके। और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सकें। ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोग शालाओं में नहीं हो सकता है। प्राचीन काल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं। पूज्य आचार्यजी तथा उनकी सरीखी और भी कई आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई हैं।

संसार को, मानव जाति को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं, उद्योग धंधे, कलकारखाने, रेल तार, सड़क, बाँध, स्कूल, अस्पताल आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है। इससे गरीबी और बीमारी, अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है पर मानव अन्तःकरणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का, आस्तिकता और धार्मिकता का, सेवा और संयम का निर्भर प्रवाहित किये बिना विश्व शान्ति की दिशा में कोई ठोस कार्य न हो सकेगा। जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले, गाँधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्गदर्शक न हों तब तक लोक मानस को ऊंचा उठाने के प्रयत्न सफल न होंगे। लोक मानस को ऊंचा उठाये बिना, पवित्र और आदर्शवादी भावनाएं उत्पन्न किये बिना लोक की गतिविधियाँ ईर्ष्या-द्वेष, शोषण, अपहरण, आलस्य प्रमाद, व्यभिचार, पापाचार से रहित न होंगी तब तक क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा।

लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिये जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक दिव्य तरंगों का प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्चकोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधना से ही उत्पन्न होंगी। मानवता की, धर्म और संस्कृति की यही सबसे बड़ी सेवा है। आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता अनुभव की जाती है क्योंकि जैसे जैसे दिन बीतते जाते हैं असुरता का पल्ला अधिक भारी होता जाता है। देरी करने में अहित और अनिष्ट की ही अधिक सम्भावना हो सकती है।

समय की इसी पुकार ने पूज्य आचार्य जी को वर्तमान कदम उठाने को, अज्ञातवास में जाने को बाध्य किया है। उन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये आज तक कुछ भी प्रयत्न नहीं किया है। धन ऐश्वर्य कमाना तो दूर, आध्यात्मिक साधनाओं के लिये भी उनका दृष्टिकोण व्यक्तिगत लाभ का नहीं रहा। वे जो कुछ भी जप तप करते हैं प्रायः उसी दिन किसी पीड़ित परेशान व्यक्ति के कल्याण के लिये अथवा संसार में धार्मिक वातावरण उत्पन्न करने के लिये उसे दान कर देते हैं। अभी कई जन्म भी लेने का उनका विचार है। संसार में धर्म की स्थापना हुए बिना, मानव प्राणी के अन्तराल में मानवता की समुचित प्रतिष्ठापना किये बिना, किसी स्वर्ग मुक्ति में जाने का उनका विचार बिल्कुल ही नहीं है। इसलिये वे अपने लिये कोई सिद्धि नहीं चाहते। विश्व हित ही उनका अपना हित है। इसी लक्ष्य को लेकर तप की अधिक उग्र अग्नि में अपने को तपाने को उन्होंने वर्तमान कदम उठाया है। माता उनका मनोरथ सफल करें, यह प्रार्थना हम सबको करनी चाहिये।


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