जल हूँ मैं छलकूँगा जी भर गागर की परवाह करूं क्या?
गागर फूट गई तो प्यासे अधरों पर ही रुक जाऊंगा॥
बन जाता है नीर भँवर का
जिस से नहीं बहा जाता है,
भय से प्रेरित हो कर रुकना
संयम नहीं कहा जाता है।
स्वर हूँ मैं गूंजूंगा जी भर वंशी की परवाह करूं क्या-
वंशी टूट गई तो वाणी के रन्ध्रों पर झुक जाऊंगा।
एकाकी को नहीं जरूरत
जो मुझको आवाज लगाए,
बस इतना काफी है जब-तब
वह सूनेपन से घबराए,
मन हूँ मैं विचरुँगा घर-घर तन की मैं परवाह करूं क्या-
तन न रहेगा तो धरती का ऋण हूँ आखिर चुक जाऊंगा।
जिस में गंध अधिक होती है
उस को पहले तोड़ा जाता,
जिस में रस ज्यादा होता है-
उस को और निचोड़ा जाता,
सौरभ हूँ महकूँगा जी भर उपवन की परवाह करूं क्या
उपवन रूठ गया तो सब के दरवाजों से टकराउँगा।
-रामावतार त्यागी।
सम्पादकीय