जीवन का साध्य आत्म ज्ञान

July 1960

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. श्री अमरचन्द नाहटा)

हम दूसरे पदार्थों, व्यक्तियों को जितना जानते हैं, उतना अपने को नहीं जानते। “दिया तले अंधेरा” कहावत प्रसिद्ध है। बाह्य की ओर ही हमारा मन, वचन, काय व इन्द्रियाँ लगी रहती हैं। उन्हें अपने आपका विचार करने का अवकाश ही नहीं मिलता, दूसरों की भूलों व कमजोरियों का तो हम तत्काल ही अनुभव कर प्रकाशित करते रहते हैं। पर अपनी कमजोरियाँ व भूखें हमारे ध्यान में नहीं आतीं। कोई बतलाता है तो हमें बुरा लगता है। हमें अपने सुधार की तनिक भी चिन्ता नहीं होती।

“अपने को पहचानो”- यह शीर्षक पढ़कर कई पाठक चौंक सकते हैं, क्योंकि अपने को तो सभी पहिचानते हैं। क्या आत्मा से भी अपने आपका स्वरूप छिपा है? जो इसे “जीवन की सार्थकता” माना जाए? प्रश्न तो किया जा सकता है। पर विचार करने पर भी वास्तव में बात कुछ ऐसी ही है। हम देह, वाणी, पहनावा आदि बाहरी बातों से अपने भीतर की पहिचान करते हैं, वह सही नहीं है।

अभी तक अपने से मतलब हमने अपने शरीर, मन व इन्द्रियों से लगा रखा है और यही सबसे बड़ी भ्राँति है। शरीर व बाह्य कुटुम्ब धनादि के के साथ आत्मीय भाव जोड़ उनकी प्राप्ति व अप्राप्ति पर उत्पन्न एवं विनाश में सुख दुःखादि कल्पना व अनुभूति करते रहते है। शरीर में कोई रोगादि बाधा उपस्थित हुई तो बेचैन हो उठते हैं। शरीरादि जिन्हें मान रखा है, जो कोई बाधा पहुँचाता है कष्ट देता है तो उसके प्रति क्रोध, द्वेष आदि से अभिभूत हो अपने आप से बाहर हो जाते हैं। अर्थात् वास्तव में जो हमारा नहीं है उसे तो हमने अपना मान रखा है, और जो अपनी आत्मा का स्वरूप है उसे भुला दिया है। हम देखते हैं कि शरीर, धन, कुटुम्ब आदि तो देखते ही देखते नष्ट हो जाते हैं। फिर भी उनकी आशक्ति नहीं घटती है। शरीर हमारा है, इन्द्रियाँ हमारी हैं, हम बोलते-चालते, सोते-पीते व विविध प्रवृत्तियाँ करते रहते हैं, पर अपने वचन पर भी ध्यान नहीं देते कि “ये हमारे हैं।” इस कथन का भाव यही होता है कि हम और ये अभिन्न नहीं हैं। हमारा और इनका सम्बन्ध मात्र है। हम सत्य का अनुभव नहीं कर पाते कि जिस जिस पिता, पुत्र, पौत्री, माता, बहिन, स्त्री, धनादि को हम “हमारी” कहते हैं। इसका ही मतलब हैं कि हम इनसे अभिन्न नहीं भिन्न हैं। हम कुछ और ही हैं। ये तो हमारी हैं पर हम ये नहीं हैं। हम इनके मालिक हैं, उपभोग करने वाले हैं पर उपभोक्ता तो उपभोग्य वस्तुओं से सदा भिन्न ही रहते हैं। तदनुसार शरीरादि हमारे हैं। इस शब्द से ही ध्वनित होता है कि हम और ही हैं व इनसे भिन्न हैं। विचारिये इनको “हमारा कहने वाले हम” कौन हैं ? किसके लिए हमारा यह प्रयोग किया गया है। “मैं यह कहता हूँ, यह बोलता हूँ, यह सोचता हूँ” कहते हैं, परन्तु क्रियाओं के कर्ता का यह अनुसंधान नहीं करते-यह कितनी विचित्रता है, इसलिए “अपने को पहचानो” यही सार्थकता कहा गया है।

प्राणी अनन्तकाल से भव भ्रमण कर रहा है, इसका प्रधान कारण है अपने को नहीं पहचानना या पर को अपना मान लेना। इस भ्राँति का मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी उन्मूलन नहीं कर सकते, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी हैं जिसने “अहम्” की खोज की है। उसकी उपलब्धि की है। उस भ्राँति को पकड़ा व पहिचाना है। अपनी वर्तमान अवस्था और बन्धन के कारणों पर गम्भीरता से विचार किया है। बन्धन के कारणों को ज्ञात कर उनसे छुटकारा प्राप्त किया है। उस पथ का पथिक बनकर बन्धनों से मुक्त हुआ है। उसने अपने को पहिचान कर अपने ही में समाया है और परमानन्द प्राप्त किया है।

वास्तव में विचार किया जाए तो विश्व की बाहरी वस्तुओं में जो भी आनन्द प्रतीत होता है उसका कारण भी “स्व” ही है। आत्मा संज्ञक तत्व ही है। क्योंकि आनन्द उपभोक्ता यही है। उपभोक्ता नहीं हो तो उपभोग कौन करेगा व उपभोग के बिना आनन्दानुभव भी कैसे होगा? यद्यपि वह बाह्य पदार्थों का उपभोग जन्य आनन्द कल्पित है-अनारूपित है, वास्तविक नहीं है, फिर भी कल्पना व आरोप करने वाला भी तो आत्मा उससे विपरीत कल्पना करती हैं वे ही पदार्थ व क्रियायें दुःखदायक प्रतीत होने लगती हैं। आसक्त मानव को बाह्य पदार्थ में आनन्द मिलता है। विरक्त व योगी को उसमें कुछ भी आनन्द नहीं मिलता है। उसका यही कारण है। किसी को किसी में, किसी को उससे विरोधी बातों व वस्तुओं में। कोई योग से आनन्द मानता है। वास्तव में आनन्द तो सभी में है। नहीं तो किसी में नहीं, भिन्न-2 अनुमति होने का कारण आत्मा का भिन्नत्व सूचक है। प्रत्येक प्राणी के शरीर में अवस्थित उपाधि से सम्बन्धित हो भिन्न-2 है। इसी स्थिति के अनुसार ही कल्पना होती है, व कल्पना के अनुसार ही अनुमति होती है। यदि अनुभूति करने वाला न हो तो वे ही शरीर इन्द्रियाँ व बाह्य पदार्थ सभी पड़े रहते दिखाई देते, पर मरण के बाद उनकी कुछ भी अनुभूति नहीं होती। इससे देह का आत्मा से भिन्नत्व सिद्ध होता है जो भौतिक साधनों (पंचतत्वों) के सम्मिश्रण से ही आत्मा की उत्पत्ति बिखरने से विनाश मानते हैं, वे पंचभूत से सर्जित देह को वहाँ पड़ा देखते हैं, पंचभूत उस समय कहाँ और क्यों चले जाते हैं। उनको उसमें डालकर उसे जीवित क्यों नहीं कर लेते? पर भ्रम बिना ही ही रहता है, जीवित एवं मरण की वे वास्तविक अपल बिद्ध नहीं कर सकते।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118