गायत्री-मंत्र का महान सन्देश

January 1959

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(श्री सत्यव्रत शर्मा, शास्त्री)

यजुर्वेद के अनुसार गायत्री मंत्र का सविता देवता है और विश्वामित्र ऋषि है। प्रचलित कथा के आधार पर विश्वामित्र ऋषि ने ही राम-लक्ष्मण को दो विद्याओं का उपदेश दिया था जिन्हें रामायण में ‘बलाऽतिबला’ कहा गया है। वस्तुतः सविता-सावित्री ही ‘बलाऽतिबला’ विद्या है। विश्वामित्र ऋषि ही इनके उपदेष्टा हो सकते थे। यह सब इति वृत्त सावित्री उपनिषद् के अध्ययन से स्पष्ट है। अतः यह भी सिद्ध है कि इनका संबंध सावित्री से ही था। अतएव ऋषि विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को उनके ब्रह्मचर्य काल में इसी सावित्री-गायत्री का रहस्य समझाया था जिसके फलस्वरूप वे दोनों तपस्वी वीर जीवन के प्रत्येक संघर्ष में अप्रतिरथ योद्धा बन सके। महाकवि बाल्मीकि मुनि के अनुसार सावित्री गायत्री सकल ज्ञान-विज्ञान की माता है। ‘ज्ञान विज्ञान मातरौ’।

मनुष्य में सबसे महनीय वस्तु बुद्धि है, वही उसका मननशील भाग है। बुद्धि से ही ज्ञान कर्म की अविच्छिन्न धाराओं का उद्गम होता है। ज्ञान और कर्म का ही समन्वय होने पर मनुष्य नूतन जीवन में प्रवेश पाता है। गायत्री मंत्र मनुष्य की बुद्धि को सुसंस्कृत परिमार्जित बनाकर तपोमय, व्रतशील जीवन के प्रारंभ करने की शिक्षा देता है।

‘मनो वै सविता प्राणाधियः॥

शतपथ 3।6।1।13

मनुष्य में सविता उसका मन है, घी उसके प्राण है। मन के द्वारा प्राणों को पुनरुज्जीवित करना ही प्रत्येक मनुष्य का सच्चा कौशल है।

सविता-सावित्री एक दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों के सम्मिलन से ही उत्पत्ति संभव है पुरुष सविता है स्त्री सावित्री है दोनों पृथक रहकर सृष्टि कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते। दोनों के परस्पर सम्मिलन से ही प्रजायें उत्पन्न होती हैं।

‘यज्ञौवैप्रचोदयति’ स्त्री चैव पुरुषश्च प्रजनयतः॥

जैमिनीय उप. 4।28।3

योषा और वृषा दो तत्वों के मेल से ही सर्वत्र सृष्टि होती है। इस परस्पर सम्मिलन को ही ‘यज्ञ’ कहते हैं। यही अग्नि षोमात्मक यज्ञ कहाता है। अग्नि में सोम की आहुति का नाम ही ‘यज्ञ’ है। यही सविता-सावित्री का पारस्परिक मिलन है।

इस मंत्र के तीन नाम दिए हैं। गुरु, गायत्री, सावित्री। गुरु-मंत्र इसलिए कहते हैं कि जिस समय बालक अपने माता-पिता के समीप 8 वर्ष, 11 वर्ष, 12 वर्ष, का जीवन अपने-अपने वर्ण क्रमानुसार व्यतीत करके ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा ग्रहण करने के निमित्त आचार्य कुल में अर्थात् गुरुकुल में प्रवेश करता है और यज्ञोपवीत ग्रहण करता है, उस समय वेदारंभ संस्कार के समय गुरु गायत्री मंत्र की दीक्षा देता है। सबसे प्रथम गुरु आचार्य इस मंत्र का ही अध्ययन कराता है। अतः इस मंत्र का नाम गुरु मंत्र है।

गायत्री-छन्द होने से गायत्री नाम है और सविता देवता होने से सावित्री नाम प्रसिद्ध हुआ है। इस प्रकार इन तीनों नामों की सामर्थ्यता है। गोपथ ब्राह्मण में इसको वेदमाता और सावित्री नाम से ही कहा गया है-

‘यश्चैवं विद्वानेवमेतावेदानाँमातरं सावित्री संपद मुपनिषद मुपास्ते इति॥ ब्राह्मणम् कण्डिका 37

गायत्री संज्ञा में और भी रहस्य है।

‘गयाः प्राण उच्यन्ते, गया प्राणा उच्यन्ते गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री।’

‘गायन्तं त्रायते’ इति वा ‘गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः॥’

जो प्राणों की रक्षा करती है, जिसके सद् अनुष्ठान से जीवन-जीवन बनता है, जो गाने वालों की उसका निरन्तर अभ्यास करने वालों की- त्रिविध ताप से रक्षा करती है, वह गायत्री है। इसी प्रसंग में एक रोचक उपाख्यान ‘युधिष्ठिर मार्कण्डेय संवाद’ गायत्री मंत्र की महिमा को प्रकट करने के लिए पाठकों के मनोरंजनार्थ लिखा जाता है-

मार्कण्डेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि-

‘किन्तच्छौचं भवेद्येन, विप्रः शुद्धः सदा भवेत्। तदिच्छामि महाप्राज्ञ? श्रोतुँ धर्मभृताँवर?॥1॥

हे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! धर्मधुरन्धर? महा-बुद्धिमान युधिष्ठिर महाराज, मैं आपसे यह शौचा-चार सुनना चाहता हूँ- जिसके आचरण से ब्राह्मण सदा शुद्ध हो जाता है। इस प्रश्न का उत्तर दे हुए धर्मराज कहते हैं-

‘सायं प्रातश्च सन्ध्याँ यो ब्राह्मणो ह्युप सेवते। प्रजपन् पावनीं देवीं ‘गायत्री’ वेद मातरम्॥2॥

जो ब्राह्मण विद्वान् सायं प्रातः दोनों समय-वेद माता स्वरूप परम पावनी (पवित्र करने वाली) गायत्री देवी का जप करता हुआ सम्यक् प्रकार से सन्ध्योपासना करता है-

‘स तया पावितो देव्या ब्राह्मणो नष्ट किल्विषः। न सीदेत् प्रतिगृह्व नो महीमपि स सागराम्॥3॥

वह उस गायत्री मंत्र के मानस जप के द्वारा परम पवित्र होकर अपनी पापमयी मनोवृत्तियों को सदा के लिए नष्ट कर देता है और प्रतिग्रह के महादोष से भी मुक्त हो जाता है। मानव धर्म का वर्णन करते हुए मनु भगवान ने ब्राह्मण के कर्त्तव्यों में ‘दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्’ दान देना और दान लेना, दो कर्त्तव्यों का भी उल्लेख किया है। उस संबंध में दान लेने को प्रतिग्रह प्रत्यवरः’ कहकर निकृष्ट कर्म कहा है, किन्तु यदि कोई ब्राह्मण सागर सहित पृथ्वी का भी दान ले लेता है और भगवती गायत्री का जप यथाविधि करता है, ऐसी अवस्था में वह दान लेने रूप निकृष्ट कर्म करने पर भी दुःख अनुभव नहीं करता- इसका तात्पर्य गायत्री जप का महत्त्व प्रदर्शित करना ही है। अन्यथा ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ इस सिद्धाँत के अनुसार किया हुआ शुभाशुभ कर्म अवश्य भोगना ही है। उससे मुक्ति प्राप्त करना असंभव है।

‘प्रतिग्रहान्नदोषाच्च पातकादुपपातकात्। गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः॥4॥

इसमें पातक, उप पातक आदि पापों से तथा प्रतिग्रह अन्न दोष से भी गायत्री का जप करने वाला मुक्त हो जाता है। अर्थात् उन उप-पातकों में यह पञ्च महापातकों में अथवा निकृष्ट दान लेने में ऐसे महापुरुष की, भगवद्भक्त की प्रवृत्ति ही नहीं होती भविष्य में पापमयी मनोवृत्तियों को उन पाप कर्मों से पृथक करना ही पापों से छूटना या मुक्त होना है। पापों से मुक्ति का यही तात्पर्य है।

‘ये चास्य दारुणाः केचित् ग्रहा सूर्यादयो दिवि। ते चापि सौम्याः जायन्ते शिवाः शिवतराः सदा।5।

अर्थात् गायत्री मंत्र का उपासक, उसका सच्ची भावना से अनुष्ठान करने वाला ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ इस योग सूत्र के आधार पर जप के साथ अर्थ विचार और उसके अनुकूल आचरण करने वाला व्यक्ति आगत भयंकर दोषों से भी अपने को मुक्त करने का सतत प्रयत्न करता हुआ शाँति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार गायत्री का महत्व स्थान-स्थान पर प्रकट किया गया है।


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