आत्मानुशासन द्वारा आत्म-विकास

January 1959

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम.ए., पी.एच.डी.)

मनुष्य की शक्ति किसी एक ही दिशा में बह सकती है। यदि उसे चाहें तो साधारण कार्यों या निम्नकोटि की वासनाओं की पूर्ति में व्यय किया जा सकता है। संचित शक्ति का उपयोग नित्य प्रति की साधारण जरूरतों में किया जा सकता है। झूठ बोलना, चोरी करना, निन्दा करना, व्यभिचार करना, हत्या करना, क्रोध और घृणा इत्यादि सब निम्न कोटि की वासनाओं में हमारी संचित उत्पादक शक्ति का व्यय होता है। कुविचार, कुसंस्कार और दुखदायी मानसिक क्लेशों में आपकी ताकत खर्च होती जाती है, यद्यपि हमें उसका पता नहीं चलता। समस्त पाप को भावनाएं शक्ति क्षय करती हैं। संसार में जितने पाप, अकर्म, दुर्व्यवहार मौजूद हैं, तमोगुण के पाप के जो भी चिन्ह है- आलस्य, प्रमोद, अकर्मण्यता, गंदगी, कुरूपता, निराशा, दुर्बलता, जड़ता, अज्ञान, हिंसा, कठोरता, निष्ठुरता पेटूपन इत्यादि- सब में निश्चय ही आपकी उत्पादक शक्ति का व्यय होता रहता है। स्वयं ही हमारी रचनात्मक शक्तियाँ नष्ट होती रहती हैं और हम कोई बड़ा और उपयोगी कार्य नहीं कर पाते।

निम्न कोटि के कार्यों में ही सदा को अपने उलझाये रखना एक प्रकार का अज्ञान है- भारी मूर्खता है। मनुष्य को सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि कौन-कौन कर्म ऊंचे हैं? किस किस को करने से उसका और उसके साथियों का अधिक से अधिक लाभ हो सकता है? समाज की अधिक से अधिक सेवा और उत्थान हो सकता है, यही जीवन का सदव्यय है। आज जो समाज में पाप और कष्टों की अधिकता दिखाई देती है, उसका कारण उचित अनुचित का यथेष्ट ज्ञान न होना ही है।

वस्तुतः विद्वान और भाग्यवान वही है जो स्वयं उच्च सामर्थ्यों का विकास करता है, उच्च कार्यों जैसे ज्ञान प्राप्ति, क्रिया शीलता, उत्साह, उपार्जन, निर्माण, सहयोग, सेवा आदि पुण्य, धर्म और सतोगुणी वृत्तियों में अपनी शक्तियों को खर्च करता है। इन सतोगुणी कार्यों में बहने से शक्तियों का स्वयं विकास भी होता है और स्वयं उसे तथा समाज को दुगुना चौगुना लाभ भी होता है।

हम यह नहीं मानते कि अब भी समाज में दुष्कर्म अधिक है। हमारी तो यही मान्यता है कि अब भी सत्य, प्रेम, न्याय और भलाई ही अधिक है। निष्ठुरता से दया अधिक है, स्वार्थ की अपेक्षा सहयोग अधिक है, जड़ता से सतर्कता अधिक है, गंदगी से सफाई अधिक है, कुरूपता से सौंदर्य अधिक है, निराशा से आशा अधिक है, दुर्बलता से सशक्तता अधिक है, अज्ञान से विवेक अधिक है, द्वेष से प्रेम अधिक है और कठोरता से माधुर्य अधिक है। यदि ऐसा न होता तो हमारा समाज आज नष्ट हो जाता। वह तो बड़ी संख्या वाले पुण्यात्मा, और सात्त्विक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों पर ही टिका हुआ है।

अपनी शक्तियों को निम्न कोटि के कार्यों से सदा रोकना ही उचित है। हो सकता है आपकी प्रकृति में कुछ बुरी प्रवृत्तियाँ छिपी हुई हों, कुछ निम्न वासनाएं और क्षुद्र स्वार्थ हों। जीवन का आपने दुरुपयोग किया हो। जो लोग जीवन को निरर्थक, अनुचित और अनुपयोगी कार्यों में खर्च कर रहे हैं, उन्हें मृत्यु के उस क्षण का तनिक भी पता नहीं है, जब उन्हें अपने प्रत्येक दुष्कृत्य का जवाब देना पड़ेगा। वे लोग मृत्यु से उसी प्रकार डरेंगे, जैसे बकरा कसाई खाने में जाने से भावी पीड़ा की कटु आशंका से डरता रहता है। अतः अभी से सावधान होकर अपनी अन्तः चेतना को अनुपयोगी कार्यों से रोक लेना चाहिए।

इन दूषित प्रवृत्तियों से शक्ति बनाकर श्रेष्ठ और शुभ कार्यों में ही व्यय कीजिए। अच्छी प्रवृत्तियों के विकास में ही शक्तियाँ व्यय कीजिए।

जीवन की प्रेरणा ऊर्ध्वमुखी है। वह सदा उन्नतिशील रहनी चाहिए। नीचे से सदा ऊंचाई की ओर उठना चाहिए। क्या आप नित्य प्रति नहीं देखते कि जानवर पौधों पर अधिकार करते हैं, मनुष्य पशुओं पर तथा पाशविकता पर और देवता सम्पूर्ण मानवता पर। अधिक विकसित मस्तिष्क बुद्धि और शक्ति वाले कम विकसितों पर सदा राज्य करते आये हैं।

सद्गुणों और सद्गुणी शुभ प्रवृत्तियों का मार्ग सहज स्वाभाविक है। सात्विक विचार तथा सद्गुणों की तरंगें सरल और हलकी होती हैं। वे सुख शाँति उत्पन्न करने वाली होती है। ईश्वर की यही इच्छा है कि संसार में सतोगुण निरन्तर बढ़ते रहें। इसीलिए आप स्वयं अनुभव करेंगे कि विकार अस्वाभाविक है। प्रेम सनातन है। सरल है, घृणा क्षणिक और हानिकर है। साहस अनादि और प्राकृतिक है। भय क्षणिक है। दया धर्म है, घृणा के स्थान पर प्रेम लाना चाहिए। क्रोध क्षणिक विकार है। लड़ाई झगड़ा थोड़ी देर रहकर स्वयं नष्ट हो जाता है, क्योंकि यह अस्वाभाविक है। सतत अभ्यास से अपने शुभ भावों और सात्विक विचारों को ही धारण कीजिए। अच्छी प्रवृत्तियों में ही निरन्तर भ्रमण कीजिए।

बुरी वासनाएं अच्छे विचारों से दबाई जा सकती हैं। शुद्ध सात्त्विक भाव और उच्च सामर्थ्यों की वृद्धि करने के दुष्ट वृत्तियाँ स्वतः फीकी पड़ जाती है। अतः अपने भीतर सुख, शाँति, निर्भयता, आनन्द, प्रसन्नता, सेवा और सहयोग के भावों को ही प्रोत्साहन दीजिए। शाँत बैठकर चुपचाप मन में कहिए ‘मैं जितेन्द्रिय हूँ। विषयों के बंधन जाल में नहीं फंसता हूँ। मेरा हृदय निर्मल हो गया है। मन पर मेरा पूरा काबू है। मैं कभी अपनी निम्न वासनाओं के वश में नहीं हो सकता। मेरे विशुद्ध हृदय में अब कोई बुराई नहीं ठहर सकती। मैं दृढ़ता के साथ अपनी इन्द्रियों पर अधिकार रखता हूँ। मैं अपने हृदय में उत्तम भाव और शुभ संकल्प ही धारण करता हूँ। मेरा हृदय पवित्र भावों का सुन्दर उद्यान है जिनसे शुभ फलों की ही उत्पत्ति होती है।’

उत्तम भाव रखने से मनुष्य उन्हीं का चिन्तन करता है। इस ध्यान से सात्विक भावों का उदय होता है। श्रद्धा, प्रेम, दया, क्षमा, शाँति, समता, ज्ञान, वैराग्य, संतोष, आन्तरिक पवित्रता, निष्कामता आदि हृदय के उत्तम भाव हैं, जिनका ध्यान करने से जिन्हें दैनिक जीवन में विकसित करने से उच्च सामर्थ्य का विकास होता है। ये सब शुभ भाव मनुष्य के जीवन में सुख शाँति भर देने वाले हैं जब शुभ विचार और पवित्र क्रिया का परस्पर योग हो जाता है तो मनुष्य का उद्धार हो जाता है।

तुम अपनी निम्न वासनाओं को रोकने में, आत्मानुशासन करने में पूर्ण समर्थ हो। तुम पर उनका कोई जादू नहीं चल सकता। अपने उत्तम गुणों, उत्तम संकल्पों, सद्भावों में विश्वास करो। तुम अपने को तुच्छ और निकम्मा मत समझो। वेदान्त कहता है कि तुम स्वयं ब्रह्म हो। तुममें निम्न वासनाओं को रोकने की बड़ी शक्ति है।

सद्गुणों को धारण करने तथा उनका सतत अभ्यास और प्रयोग करने से योग्यताओं की वृद्धि होती है। भाग्य निर्माण होता है। मनुष्य आगे बढ़ता है। उन्नति करने वाले गुणों को अधिक मात्रा में जमा करने से मनुष्य की गति बढ़ती है। ईश्वर की सहायता सदा सुयोग्य व्यक्तियों को ही मिलती है।


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