गायत्री से दिव्य प्रकाश

January 1959

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(डॉ. चमनलाल)

हमारे पूज्य ऋषि मुनियों का कहना है कि गायत्री से बढ़कर आत्मा को पवित्र करने वाला कोई भी जप, तप, अनुष्ठान एवं हवन नहीं है क्योंकि गायत्री साधना आरम्भ करते ही साधक के मनः क्षेत्र में एक ऐसी अद्भुत हलचल मचाने लगती है कि उसके अन्तःकरण में जमे हुए बुरे विचारों, स्वभावों और भावनाओं की जड़ें उखड़ने लगती है। जहाँ गायत्री रूपी प्रकाश पहुँचा जाता है वहाँ दुर्विचार रूपी अन्धकार का रहना सम्भव नहीं होता। गायत्री सतोगुणी शक्ति है, वह साधक को तमोगुण व रजोगुण से ऊंचा उठाकर सतोगुण की ओर ले जाती है। गायत्री हमारे मन व बुद्धि को पवित्र करती है, आसुरी विचारों व कार्यों से करती है, झूठ, छल, कपट, दम्भ, बेईमानी, घुस, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष आदी राक्षसी वृत्तियों से मुक्त करके सत्य, प्रेम, न्याय, दया, सहानुभूति, ईमानदारी, नम्रता आदी दैवी गुणों के दर्शन कराती है क्योंकि गायत्री साधक के मन में निरन्तर यह विचार उठते रहते है कि उसे कौनसा कार्य करना चाहिए और कौनसा नहीं। वह उचित अनुचित व न्याय अन्याय पर पूरी तरह से विचार करके ही कोई कार्य करता है। अच्छे को ग्रहण करना और बुरे को त्याग करना चाहिए, इस तथ्य को सभी लोग भली प्रकार से जानते हैं परन्तु अपने मनोबल की कमी के कारण उसके अनुसार चलना कठिन प्रतीत होता है। चूँकि गायत्री साधना का प्रभाव सीधे अन्तःकरण पर पड़ता है, इसलिए तमोगुण व रजोगुण के कम होने से, विचारों में पवित्रता व दृढ़ता आने से मानसिक निर्बलताओं का ताना बाना टूट-फूट जाता है। मनोबल से सम्पन्न गायत्री साधक कभी भी अपने मार्ग से विचलित नहीं हो सकता। काँचन और कामिनी उसे डिगा नहीं सकते। पराये धन को वह धूल बराबर समझता है। नारी मात्रा को पवित्र दृष्टि से देखता है। साराँश यह कि विवेक बुद्धि की प्राप्ति होने से वह कोई अनुचित कार्य नहीं कर पाता।

विवेक बुद्धि इतनी बड़ी संपत्ति है कि संसार की बड़ी से बड़ी संपत्तियां उसकी समता में तुच्छ हैं। धनवान अपने धन द्वारा संसार की सभी भौतिक सामग्रियां एकत्रित कर सकता है परन्तु उससे वह सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे हर समय भय और चिंताएं घेरे रहती है। वह अवगुणों का भण्डार बन जाता है। भोग विलास में पड़कर वह अपनी जीवन नाव में पत्थर डालता रहता है। भोग वासनाएं उसके विचारों को स्थूल व मलिन बनाकर अन्धकार से कूप में पटक देती हैं। इस दीन हीन दशा में पड़ा रहकर बेचारा जिन्दगी के दिन किसी प्रकार से काटता रहता है। उसकी बुद्धि स्थूल हो जाती हैं, वह कोई अच्छी बात सोच नहीं सकती। शरीर को सजाना और अच्छा खाना पीना ही उसके जीवन लक्ष्य रह जाते हैं। अपने स्वार्थ के लिए वह दूसरों का खून चूसता है, उन पर अत्याचार करता है, तरह-तरह के षड़यन्त्र रचता है, अनुचित व अन्याय पूर्ण उपायों से काम लेने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। “बाप भला न भैया सबसे भला रुपया” यही उसका पूजन किया करता है। वह धन को ही अपना आराध्य देव मानने लगता है। ऐसा पूजन हमें भौतिक पाश्चात्य संस्कृति के मानने वाले स्कूल शरीर को ही सब कुछ समझते हैं, उसी के लिए जीते और उसी के लिए मरते है। उसी की सुख सुविधाओं को बढ़ने में अपनी उन्नती मानते है। भौतिक उन्नती में यह बहुत आगे बढ़ गये है और बढ़ाते जा रहे है परन्तु वास्तविक सुख शान्ति उनसे उतनी ही दूर होती जा रही है।

भारतीय ऋषियों ने इस तथ्य को लाखों वर्ष पहले से ही भली प्रकार समझ लिया था। वह स्थूल से सूक्ष्म वस्तुओं को अधिक महत्व देते थे। उनकी खोजों का आधार भौतिक वस्तुओं वस्तुएं न रहकर सूक्ष्म तथ्य होते थे। यह कहना अनुचित होगा कि उनकी बुद्धि क्षमता आज के आविष्कारकों से कम थीं। वह यदि चाहते तो इनसे भी बढ़कर भौतिक खोजें कर सकते थे (और उस समय के रावण जैसे भौतिक वादियों ने की भी थीं) परन्तु वह भौतिक वस्तुओं में उलझ कर अपने जीवन को अशान्त व निरर्थक नहीं बनाना चाहते थे। वह हमारे लिए हम धन्य हो रहे हैं, वह ऐसे रतन प्रदान कर गये है जिन्हें पाकर हम अपने आपको कुबेर से कम नहीं समझते। ऐसे रत्नों में सर्वश्रेष्ठ गायत्री है जो हमें विवेक बुद्धि की सूक्ष्म अपार धन राशि प्रदान करती हैं। इसकी जगमगाहट से अन्धकार रूपी अवगुण सब भाग जाते है और दैवी गुणों को ही वास्तविक संपत्ति बताया है। इसी संपत्ति को पाकर हम अपने जीवन को सार्थक और सुखी बना सकते है।

आज भौतिक धन के धनी तो बहुत देखने में आते हैं परन्तु दैवी गुणों से सम्पन्न धनवान बिरले ही विश्वामित्र, वशिष्ठ, मनु गौतम, व्यास, अत्रि, शंकराचार्य, दयानन्द, बुद्ध, कबीर, नानक, तुलसीदास, सूरदास जैसे धनवान होते थे, तभी वह जगत में श्रेष्ठ था। आज ऐसे धनवानों की कमी है। भारत दीन-हीन हो गया है। इसकी दीनता दूर करने के लिए ही अ. भा. गायत्री- परिवार ने गायत्री व यज्ञ का आन्दोलन छेड़ा है। भारत के प्रत्येक नर-नारी के मन में सद्बुद्धि रूपी गायत्री और त्याग मय प्रेम रूप यज्ञ को स्थापित करना हमारा उद्देश्य है। गायत्री तपोभूमि ऐसी भट्टी है जहाँ ऐसे धनवान पारसमणि के समान बन जाता ह, वह हजारों को धनवान बनाता है। हजारों गायत्री उपासकों से हमारा व्यक्तिगत संपर्क है। अपने और उनके अनुभवों के आधार पर हम विश्वास पूर्वक कह सकते हैं कि गायत्री माता की दिव्य शक्ति द्वारा साधक भौतिक व आत्मिक सब प्रकार की उन्नती करता हुआ सुख-शान्तिमय जीवन व्यतीत कर सकता है।


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