वैदिक गायत्री और उसका रहस्य

January 1959

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(योगेश्वर श्री योग प्रकाश ब्रह्मचारी)

गायत्री-मंत्र में जो अनेक तत्व निहित हैं उनकी जितनी अधिक विवेचना की जाती है उतने ही नये-नये रहस्य प्रकट होते जाते हैं। गायत्री केवल इस पृथ्वी पर ही कल्याण करने वाली नहीं है वरन् इसका प्रभाव सातों लोकों में व्याप्त है और इन लोकों में जितने भी प्रकार के प्राणी रहते हैं उन सबके निमित्त गायत्री का जप व उपासना कल्याणकारी है।

गायत्री के चौबीस अक्षरों में योगियों ने समस्त देवताओं का निवास माना है। ‘योगी याज्ञवलक्य’ नामक ग्रंथ में लिखा है-

कर्म्मेन्द्रेयाणि पंचैव पंच बुद्धीन्द्रियाणि च। पंच पंचेन्द्रियार्थश्च भूतानाम चैव पंचकम॥ मनोबुद्धिस्तथात्याच अव्यक्तंच यदुत्तमम्। चर्तुिव्वंशत्यथैतानि गायत्र्या अक्षराणितु॥ प्रणवं पुरुषं बिद्धि सर्व्वगं पंचविंशकम्॥

अर्थात्-’गायत्री के चौबीस अक्षरों में पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पंचभूत, पाँच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) और मन, बुद्धि, अहंकार तथा आत्मा- ये चौबीस तत्व अवस्थित हैं। इन चौबीस अक्षरों में से ही जीवात्मा की 24 शक्तियाँ उत्पन्न हुई है। ‘गायत्री हृदय’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि गायत्री के प्रत्येक अक्षर में एक-एक देवता का निवास है, जैसे ‘ग्रथ मग्नियं’ प्रथम अक्षर ‘त’ कार का देवता अग्नि है। ‘द्वितीयं प्रजापत्यं’ द्वितीय अक्षर ‘तू’ का देवता प्रजापति है। ‘तृतियं सोम्यं’ तीसरे अक्षर ‘स’ कार का देवता सोम है। ‘चतुर्थ मैशानं’ चौथे अक्षर ‘वि’ का देवता ईशान। ‘पंचमदित्यं’ पाँचते अक्षर ‘तु’ का देवता अदिति। ‘षष्ठ बार्हस्यत्यं’ छठे अक्षर ‘वि’ का देवता बृहस्पति। ‘सप्तम भग देवताम्’ सातवे अक्षर ‘रु’ का देवता भग। ‘अष्टमं पितृ देवताँ’ आठवे अक्षर ‘ण्यं’ का देवता पितृगण। ‘नवम-मार्षामणं नवम ‘भ’ का देवता अर्ष्यमा। ‘दशमं सावित्रम्’ दसवें ‘र्गो’ का देवता सविता। ‘एकादशं त्वाष्ट्रं’ ग्यारहवें अक्षर ‘दे’ का देवता त्वष्टा। ‘द्वादश प्रौचं’ बारहवें अक्षर ‘ब’ का देवता पूषा। ‘त्रयो दशममैन्द्राग्नं’ ‘तेरहवें’ अक्षर ‘स्य’ का देवता इन्द्र और अग्नि। चतुर्दशं वायव्यं’ चौदहवें अक्षर ‘घी’ का देवता वायु। ‘पंचदशं वाम देवं पंद्रहवें अक्षर ‘म’ का देवता वामदेव। ‘षोडश मैत्रावरुण’ सोलहवें अक्षर ‘हि’ का देवता मित्र और वरुण। ‘सप्तदशं वाभ्रत्र्यम्’ सत्रहवें अक्षर ‘धि’ का देवता वभ्रु। ‘अष्टादश वैश्वदेव्यं’ अठारहवें अक्षर ‘यो’ का देवता विश्व देव। ‘एकोनविंशतिकं वैष्णवं’ उन्नीसवें अक्षर ‘यो’ का देवता विष्णु। ‘विंशतिकं वासवम्’ बीसवें अक्षर ‘नः’ का देवता वसु। ‘एकोविंशतिकं तौषितं इक्कीसवें अक्षर ‘प्र’ का देवता तुषितो। ‘द्वाविंशतिकं कौवरं, बाईसवें अक्षर ‘चो’ का देवता कुबेर। ‘त्रयोविंशतिकंभाँश्विनं’ तेईसवें ‘द’ का देवता अश्विनी कुमार। ‘चतुर्विंशतिकं ब्राह्मम्’ चौबिसवें अक्षर ‘यात्’ का देवता ब्रह्मा है। इन चौबीस अक्षरों की गायत्री प्रणवमय है। प्रणव ही पच्चीसवाँ पुरुष तत्व है।

उपनिषदों में भी गायत्री की महिमा के विषय में बहुत कुछ कहा गया है। ‘छान्दोग्य’ के खण्ड 12, प्रपाठक 3 में लिखा है-

‘अयं वाव स योऽयभन्तहृर्दय आकाशस्तदेतत् पूर्णमप्रवर्तिः पूर्णम प्रवर्तिनी श्रियं लभते य एवं वदे॥

अर्थात्-’जो अंतर्गत हृदयाकाश स्वरूप है वही अपरिवर्तनशील पूर्ण ब्रह्म है। अब समस्त भूत जिस प्रकार विनाश होने वाले हैं उस प्रकार हृदयाकाश नाशवान नहीं है। जो मनुष्य, जो उपासक पूर्वोक्त प्रकार से गायत्री ब्रह्म के आश्रित अपरिवर्तनशील हृदयाकाश रूप पूर्ण ब्रह्म को जान लेता है, वह परम श्री को प्राप्त कर सकता है। वही ब्रह्म के गुण फलस्वरूप स्थायी भाव को प्राप्त होता है।’

अपौरुषेय वेद और उसके श्रुति स्वरूप उपनिषद् आदि के सर्वोच्च सिद्धान्तों के अनुसार गायत्री ही ‘सावित्री’ ‘ब्रह्म विद्या’ ‘वेदमाता’ और ‘शब्द ब्रह्म’ आदि नामों से पुकारी जाती है। गीता में भगवान कृष्ण ने भी कहा है ‘गायत्रीच्छन्द सामहम्’ ‘समस्त छन्दों में मैं ही गायत्री हूँ।’ एक गायत्री में से ही गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुभ और जगति इन सात वैदिक छन्दों की उत्पत्ति हुई है। इसके प्रत्येक चरण में आठ-आठ अक्षर हैं- 3 चरणों में 24 अक्षर हैं। इनमें क्रम-क्रम से 4-4 अक्षर बढ़ाकर उष्णिक आदि छन्द रचे गये हैं। अनन्त महासागर वायु द्वारा कम्पायमान होकर जिस प्रकार तरंगों द्वारा नदी नाला की तरफ प्रवाहित होता है, उसी प्रकार अपार सत्ता वाली अनन्त परब्रह्म सत्ता अपनी ही शक्ति से गतिमान होकर सप्त गत्यात्मक प्रणवाकार धारण करके जीव और जगत के रूप में प्रकट होती है। इस गत्यात्मक कंपन से जो भाव भाषा द्वारा प्रकट होता है वही गायत्री छन्द है। इस प्रकार एक गायत्री छन्द से ही समस्त छन्द, चारों वेद और सब उपनिषद् आदि सत्शास्त्र वर्णित हुये हैं।

गायत्री से प्रणव अभिन्न है। प्रणव यदि सूर्य समान है तो गायत्री उसका ज्योति-मंडल है। किरण अथवा ज्योति की समष्टि को जिस प्रकार सूर्य कहा जाता है उसी प्रकार गायत्री अथवा उसके अक्षर समष्टि भूत होकर दिव्य ज्योतिर्मय प्रणव का आकार धारण करते हैं। कहा है ‘प्रणव मंत्रस्थ ब्रह्म ऋषि गायत्रीच्छान्दः, अग्निर्देवता, सर्व्व कर्मारम्भे विनियोगः।’ तेजोमयी गायत्री के जप-कौशल से अर्थात् छन्द में मन और प्राण स्पन्दित होने से ही प्रणव का उद्धार होता है अथवा वह आकार धारण करता है। अकार, उकार और मकार अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति और लय स्वरूपिणी गायत्री प्रणव के रूप में सर्वत्र नित्य प्रतिष्ठित हो रही है। यही गायत्र्यात्मक प्रणव अथवा प्रणवात्मक गायत्री ही परम ब्रह्म श्री भगवान का सर्वोच्च उत्कृष्टतम नाम है अर्थात् इससे बढ़कर और कोई नाम नहीं है। देवर्षि नारद ने कहा है-

‘उमित्येतद् ब्रह्मणो ने दिष्ठं नाम। यस्मादु च्यार्यमाण एव संसारभयात्तारयति एतस्मादुच्यते तार ईति श्रुतेः।’

अर्थात्-’गायत्रात्मक प्रणव ही परम ब्रह्म श्रीभगवान का सर्वोच्च उत्कृष्ट नाम है। इस छन्दमय नाम के गान अथवा जप द्वारा जपकर्ता संसार के भय से त्राण पा जाता है, इसीलिये इसे तारक कहते हैं। यह प्रणव अक्षर ब्रह्म- ‘उभित्येकाक्षर ब्रह्म’ (गीता)-गायत्री परतत्व से निर्मित है। तंत्रशास्त्र में कहा है- ‘तकारात यातकार षर्यन्त शब्द ब्रह्म स्वरूपिणी’ वर्णमाला अथवा किसी भी वस्तु के नाम का उच्चारण जिस प्रकार शब्दों की सहायता से ही होता है प्रणव अथवा श्री भगवान का उच्चारण गायत्री द्वारा ही हो सकता है। श्रीमद्भागवत के छठे स्कंध के सोलहवें अध्याय में लिखा है ‘शब्द ब्रह्म पर ब्रह्ममागेम्याँ शाश्वती तनु’ शब्द ब्रह्म और परब्रह्म ये दोनों श्रीभगवान ने शाश्वत अथवा नित्य चिन्मय तनु (शरीर) हैं। ग्यारहवें स्कंध में उद्धव के प्रश्न करने पर भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है-

शब्द ब्रह्म निर्व्वातेन परे यदि। श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः।

(भागवत 11-11-18)

अर्थात् ‘हे उद्धव! जो व्यक्ति वेद पारंग होकर भी केवल पाँडित्य का अभिमानी बनता है अर्थात् क्रिया का यथार्थ ज्ञान नहीं रखता तो परब्रह्म में सम्यक् निष्ठा के अभाव के कारण उसका श्रम निष्फल जाता है, जिस प्रकार वन्ध्या गौ दूध देने में निरर्थक होता है उसी प्रकार शुष्क वेद पाठन-पठन भी निष्फल होता है। इसलिये शब्द ब्रह्म गायत्री का तत्व अर्थात् उसके जप-कौशल का यथार्थ ज्ञान सम्पादन करना, यह मनुष्य का कर्त्तव्य है। अग्नि-पुराण में अग्निदेव ने कहा है-

एवं सन्ध्या विधि कृत्वा गायत्रींच जयेत् स्मरेत्। गायेचिष्यान् यत स्त्रायेदभार्यां प्राणाँस्तथैव च॥

अर्थात् ‘सन्ध्या विधि परिपूर्ण करने के पश्चात गायत्री का स्मरण और जप करना। गायमान होने से अर्थात् उसकी उपासना-जप करने से वह गुरु, शिष्य, स्त्री और प्राणी सब का उद्धार करती है। वह सविता को प्रसव करती है इससे उसका नाम सावित्री भी कहा जाता है। उसके वाग रूप होने से उसके दूसरा नाम सरस्वती भी है।

जिस ज्ञान शक्ति द्वारा हम जरा मृत्यु-वत संसार के बंधन को काट सकते हैं, अज्ञान तिमिर का ध्वंस करके आत्मज्ञान द्वारा ब्रह्म विद्या का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं, अथवा जो महाशक्ति हमको दुष्ट काल के क्षेत्र को अतिक्रम करके सत्वलोक पर अधिकार करने योग्य बनाती है, उसी महान शक्ति का नाम गायत्री है। सर्वज्ञता आदि आत्म-ज्ञान द्वारा ब्रह्म विद्या का यथार्थ परिचय हमको गायत्री-मंत्र से प्राप्त हो सकता है।


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