जीवन का उद्देश्य

January 1959

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(श्री यादराम शर्मा राजेश एम.ए.)

मानव-सभ्यता के आदि काल से यह प्रश्न विचारकों, मनीषियों और दार्शनिकों को चिन्तित करता रहता है कि मानव-जीवन उद्देश्य क्या है? हम क्यों पैदा हुये हैं? संसार में रह कर हमारा क्या कर्त्तव्य है? अपनी-अपनी बुद्धि, अनुभव और परिस्थितियों के अनुसार विद्वानों, धर्म-प्रवर्तकों और समाज के मार्ग-दर्शकों ने इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न किया है। इन्हीं उत्तरों के अनुसार संसार में अनेक धर्म-सम्प्रदाय और मत-मतान्तर स्थापित हो गये हैं, और होते जा रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि यह समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है तथा प्रश्न सुलझने के बजाय कुछ और ज्यादा उलझ गया है। मतमतांतरों, धर्म-वाक्यों और आप्त-पुरुषों के प्रमाणों को तर्क और बुद्धि की कसौटी पर परखने वाले और तटस्थ रूप से सोचने वाले व्यक्तियों के लिये यह पहली आज भी उलझी हुई है अतः आगे की पंक्तियों में उन्हीं के दृष्टिकोण से इस प्रश्न पर विचार करने का प्रयत्न किया जायेगा।

शरीर की भाँति बुद्धि की भी भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हुआ करती हैं। शारीरिक अवस्था अर्थात् आयु के अनुसार हम मानवों को शिशु, किशोर, प्रौढ़ और वृद्धि जैसी भिन्न-भिन्न कोटियों में रखते हैं। बुद्धि के अनुसार भी लोग शिशु, किशोर, प्रौढ़ अथवा वृद्ध हुआ करते हैं। किन्तु बुद्धि की इन विभिन्न अवस्थाओं का व्यक्ति की आयु से कोई संबंध नहीं होता। कभी-कभी 20 वर्ष का युवक बुद्धि की दृष्टि से बिल्कुल बच्चे के समान पाया जाता है। जैसे हवाई जहाज में बैठे कर आदमी एक ही दिन में लम्बी यात्रा कर लेता है जितनी पैदल चलने वाला एक वर्ष में भी नहीं कर पाता इसी प्रकार चिन्तनशील और अध्यवसायी नवयुवक अपने परिश्रम के बल पर अशिक्षित अथवा आलसी वृद्धों से बुद्धि और विवेक की दृष्टि से बढ़े-चढ़े होते हैं। ऐसी दशा में केवल आयु को बुजुर्गी का प्रमाण-पत्र मान कर बड़े बूढ़ों के चरण-चिन्हों पर चलकर, लकीर के फकीर बन कर, हम अपने आपको भले ही सम्भ्रम में डालें किन्तु इस मार्ग पर चल कर आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान नहीं पा सकते। उसके लिये तो हमें बुद्धि के प्रकाश में स्वयं परिश्रम करके मार्ग खोजना पड़ेगा।

बुद्धि की अवस्था के ऊपर आध्यात्मिक प्रश्नों के विषय में मन के समाधान की संभावना निर्भर करती है। जिस प्रकार एक छोटे बच्चे को मिट्टी या कंकड़ का टुकड़ा देकर बहला सकते हैं और वह उस टुकड़े को खिलौना समझ कर खेलने लगता है, उसी प्रकार एक बड़े बालक को नहीं बहलाया जा सकता। उसे तो उसकी अवस्था के अनुसार ही कोई सच्चा खिलौना या कोई सुन्दर पुस्तक आदि देकर ही सन्तुष्ट किया जा सकता है। इसी प्रकार बौद्धिक दृष्टि से अविकसित व्यक्ति को जीवन के उद्देश्य के संबंध में कुछ भी समझ कर सन्तुष्ट किया जा सकता है किन्तु बुद्धि की दृष्टि से परिपक्व जिस व्यक्ति का समाधान साधारण बातों से नहीं होता उसके लिये तो कोई व्यवहारिक तर्क पूर्ण और बुद्धिगम्य समाधान खोज कर देना पड़ेगा।

परलोक और पुनर्जन्म की बातें इस वैज्ञानिक युग में विशेष समाधान कारक नहीं है। एक तो इन प्रश्नों के ऊपर मानव जाति इतने परस्पर विरोधी मतों में बंटी हुई है कि यदि किसी एक मत को ठीक मान लिया जाये तो मिथ्या मतावलम्बियों की दुर्दशा के जो चित्र ये मत-मतान्तर उपस्थित करते हैं, उस पर जितना कम सोचा जाये उतना ही अच्छा है। दूसरे इन सब मत-मतान्तरों का सार-तत्व लुप्त हो गया है और केवल लकीर पीटी जा रही है। नाम के लिये तो सारा योरुप ईसा का अनुयायी है लेकिन ईसा की शिक्षा और योरुप के जीवन में 36 के तीन और छह का संबंध है। कौन समझदार आदमी स्वीकार करेगा कि अपने को बौद्ध कहने वाले जापान, चीन, बर्मा और श्याम के निवासी ‘तथागत’ की ही आज्ञाओं का पालन कर रहे हैं। दूर मत जाइये, अपने पड़ौस में पाकिस्तान में ही देखिये मुहम्मद साहब के सपनों को कितनी सुन्दरता के साथ पूरा किया जा रहा है? और अपनी वेद-भूमि के संबंध में तो जितना कहा जाये, थोड़ा ही है। इन मतों के अनुसार इन के मत में विश्वास न रखने वाले का उद्धार असम्भव है चाहे वह कितना ही दूध धोया हुआ क्यों न हो और इनका मत स्वीकार कर लेने पर इन्होंने उद्धार के इतने सस्ते नुस्खे बताये हैं कि पढ़ सुन कर आश्चर्य होता है। इस संबंध में अधिक कहना व्यर्थ है। जब लंका में सभी बावन हाथ के हैं तो किस-किस को दोष दिया जाये। केवल यही कहा जा सकता है कि इन सब बातों को देखकर तर्कवादी विवेकी व्यक्ति की इन सब में अश्रद्धा हो जाना स्वाभाविक है।

गृहस्थ धर्म का पालन करना भी जीवन का एक उद्देश्य समझा जाता है। यह ठीक है कि यदि आप ईमानदारी के साथ द्रव्य उपार्जन करके अपने बाल-बच्चों के भरण-पोषण की कोई समुचित व्यवस्था कर जाते हैं तो यह काफी बड़ी बात है लेकिन आपका यह कर्त्तव्य पालन मध्यम कोटि का ही समझा जायेगा। उत्तम कोटि का कर्त्तव्य-पालन इसे नहीं कह सकते। इसका खोखलापन इसी बात से सिद्ध है कि यदि आप अपने परिवार की दशा सुधार कर इस संसार से विदा होते हैं और अन्य अनेक परिवारों की दशा दुखमय बनी रहती है तो बात कुछ बनती नहीं है। हमारे मरने के बाद हमारे लिये इस बात का कोई महत्व नहीं रहता कि कौन-सा परिवार हमारा है और कौन-सा पराया है? इसलिये किसी एक परिवार की दशा सुधार कर और वह भी कभी-कभी दूसरे परिवारों की दशा बिगाड़ने का साधन बन कर हम कोई बहुत बड़ा कर्त्तव्य पालन कर रहे हैं, ऐसा मानने को जी नहीं चाहता।

जब लोक और परलोक दोनों ही शंकाओं का समाधान करने में असमर्थ हैं तब जीवन का और क्या उद्देश्य है, यह प्रश्न विचारणीय है। यदि सभी शास्त्र प्रमाणों को छोड़ कर केवल तार्किक और भौतिक दृष्टि से ही विचार करें तब भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि भले ही मनुष्य मरणधर्मा है, किन्तु मनुष्यता तो शाश्वत है। व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, परिवार नष्ट हो जाते हैं कभी-कभी जातियाँ भी समाप्त होती देखी गई हैं किन्तु मानव समाज किसी न किसी रूप में अपने आदि काल से आज तक विद्यमान है। ऐसी दशा में हमें यह सोचना चाहिये कि व्यक्तिगत रूप से मैं इस संसार में न रहूँगा। यदि ईसाइयों और मुसलमानों और नास्तिकों के अनुसार यह मान लिया जाये कि पुनर्जन्म नहीं होता) फिर भी समष्टि रूप में मनुष्य जाति तो रहेगी ही, जिसका मैं एक अंश हूँ। इस दृष्टिकोण से हमें मनुष्य जाति और यदि व्यापक रूप से सोचा जाये तो समस्त प्राणि वर्ग के प्रति अपना कर्त्तव्य निर्धारित करना चाहिये।

हम क्यों पैदा हुये हैं, इसका उत्तर शायद हम न दे सकें किन्तु जब पैदा हो गये हैं तो हमें जीवन में क्या करना चाहिये, इस प्रश्न पर अब आसानी से सोचा जा सकता है। जब हम इस समाज के सदस्य हैं तो हमें अपनी सदस्यता का चन्दा देना चाहिये, जो हमारा अनिवार्य कर्त्तव्य है। समाज को यह चन्दा केवल धन के रूप में नहीं दिया जा सकता क्योंकि धन तो स्वयं हमारी पैदा की हुई वह वस्तु है जिसके कारण हम में अनेक विकार पैदा हो गये हैं। इस चन्दे के रूप में तो हमें अपनी प्रतिभा, परिश्रम और त्याग केवल समाज के लिये होनी चाहिये जिससे समस्त समाज का जीवन भविष्य में सुखमय और उन्नतिशील बन सके। कला, विज्ञान अथवा दर्शन के क्षेत्र में कोई ऐसा कारनामा कीजिये जिससे मानव-समाज की समस्याएं सरल हों। समाज में जो विकार की विष-वृक्ष पैदा हो गया है और जिसमें से दुख-क्लेश, विरोध तथा हिंसा के फल उत्पन्न हो रहे हैं, उस विष-वृक्ष को नष्ट करने का प्रयत्न कीजिये। अपने इस अमूल्य जीवन को पीड़ितों, पराधीनों, अज्ञानियों और पतितों के सुधार संगठन, उत्थान और उद्धार में लगा दीजिये। ऐसा करने से आपको इस जन्म में या आगे कभी क्या फल मिलेगा, यह बात तो मैं आपको पूरे विश्वास के साथ नहीं बता सकता किन्तु इतना मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इन सत्कार्यों में नष्ट किये गये अपने समय के लिये आपको कभी पछताना नहीं पड़ेगा।

मृत्यु-शैय्या पर पड़ा हुआ जो भाग्यवान वह आत्म-सन्तोष अनुभव कर सकता है कि उसने धरती पर आकर अपनी सामर्थ्य भर समाज के सुधार और विकास के लिये प्रयत्न कर लिया है, वह धन्य है। अपने समस्त जीवन के कार्यकलापों का सिंहावलोकन करके यदि उसे यह अनुभव होता है कि उसके जीवन से समाज को कोई हानि नहीं हुई लाभ ही हुआ है तो उसका जीवन सार्थक है। यदि किसी भी मृत्यु पर लोग सन्तोष की साँस लेने के बजाय एक ठंडी आह भर कर कहें कि एक अच्छा आदमी चला गया तो समझना चाहिये कि वह अपना कर्त्तव्य पूरा करके गया है। कौन कितना करता है, यह साधनों, सामर्थ्य और परिस्थितियों पर निर्भर है। अपने साधनों और सामर्थ्य के अनुसार किसी रूप में समाज की सेवा करके आप भी अपने समाज से ऋण के उऋण हो लीजिये ताकि अंत समय में आप यह संतोष प्राप्त कर सकें कि आपने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया है।


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