गायत्री के चौबीस अक्षर और मस्तिष्क की चौबीस शक्तियाँ

January 1959

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(प्रोफेसर अवधूत)

गुरुमंत्र गायत्री में सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत का ज्ञान बीजरूप से पाया जाता है। मस्तिष्क के मूल में से जो मुख्य 34 ज्ञान तंतु निकल कर मनुष्य के देह तथा मन का संचालन करते हैं उनका गायत्री के 24 अक्षरों से सूक्ष्म से सूक्ष्म संबंध है। गायत्री के अक्षरों के विधिवत उच्चारण से शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में पाये जाने वाले सूक्ष्म चक्र, मातृका, ग्रंथियाँ, पीठस्थान आदि जागृत होते हैं। जिस प्रकार टाइपराइटर मशीन पर उंगली रखते ही सामने रखे कागज पर वे ही अक्षर छप जाते हैं, उसी प्रकार मुख, कंठ और तालु में छुपी हुई अनेक ग्रंथियों की चाबियाँ रहती हैं। गायत्री अक्षरों का क्रम से संगठन ऐसा विज्ञानानुकूल है कि उन अक्षरों के उच्चारण से शरीर के उन गुप्त स्थानों पर दबाव पड़ता है और वे जागृत होकर मनुष्य की अनेक सुषुप्त शक्तियों को कार्यशील बना देते हैं।

गायत्री मंत्र के भीतर अनेक प्रकार के ज्ञान विज्ञान छुपे हुये हैं। अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र, बहुमूल्य धातुएं बनाना, जीवन दात्री औषधियाँ, रसायन तैयार करना, वायुयान जैसे यंत्र बनाना, शाप और वरदान लेना, प्राण-विद्या, कुँडलिनी चक्र, दश महाविद्या, महा मातृका, अनेक प्रकार की योगसिद्धियाँ गायत्री-विज्ञान के अंतर्गत पाई जाती हैं। उन विद्याओं का अभ्यास करके हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार की सिद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। आज भी हम गायत्री साधना द्वारा उन सब विद्याओं को प्राप्त करके अपने प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना कर सकते हैं।

गायत्री सनातन अनादि काल का मंत्र है। पुराणों में बताया गया है कि ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मंत्र की प्राप्ति हुई थी। उसी मंत्र का साधन करके उनको सृष्टि रचने की शक्ति मिली थी। गायत्री के जो चार चरण प्रसिद्ध हैं उन्हीं की व्याख्या स्वरूप ब्रह्माजी को चार वेद मिले हैं और उनके चार मुख हुये थे। इसमें संदेह नहीं कि जिसने गायत्री के मर्म को भली प्रकार जान लिया है उसने चारों वेदों को जान लिया।’

गायत्री साधना करने से हमारे सूक्ष्म शरीर और अन्तःकरण पर जो मल विक्षेप के आवरण जमे होते हैं वे दूर होकर आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप द्वारा ही सब प्रकार की समृद्धियाँ और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं। दर्पण की तरह आत्मा को शुद्ध बनाने से उसके सब प्रकार के मल दूर हो जाते हैं, और मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल, प्रकाशवान बनकर परमेश्वर की समस्त शक्तियों, समस्त गुणों, सर्व सामर्थ्यों, सब सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाता है।

गायत्री के तत्त्वरूप 24 वर्णों में 24 प्रकार की आत्मतत्व रूपता स्थित है। चौबीस तत्व के बाहर और भीतर रहकर उसे अपने अन्तर में स्थित करने से मनुष्य ‘अन्तर्यामी’ बन जाता है। सब ज्ञानों में यह अन्तर्यामी विज्ञान सर्वश्रेष्ठ है, जो गायत्री की साधना द्वारा ही प्राप्त होता है।

जो आत्मा के भीतर है और आत्मा के बाहर भी विद्यमान है, जो आत्मा के भीतर और बाहर रहकर उसका शासन करता है, वही वास्तविक आत्मा है, वही अमृत है, वही अन्तर्यामी है। सर्वांतर्यामी आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आयतन अर्थात् प्रतिष्ठा है, ऐसा निश्चय होने के पश्चात ब्रह्माण्ड के 24 तत्वों का आकलन करना संभव हो जाता है। इस प्रकार अन्य सब विज्ञान अन्तर्यामी विज्ञान से न्यून श्रेणी के हैं। इस बात की पुष्टि में ‘योगी याज्ञवलक्य’ में कहा गया है कि ‘जो स्वयं अदृष्ट, अश्रुत, अमूर्त, अविज्ञात है वही अन्तर्यामी है, वही अमृत स्वरूप है और इसी कारण वह तुम्हारे मेरे और अन्य सब के आत्माओं का पूज्य है। हे गौतम! इस विज्ञान के अतिरिक्त जो अन्य विज्ञान हैं वे सब दुःखदायी हैं। अन्तर्यामी का विज्ञान ही यथार्थ विज्ञान हैं। गायत्री जिन चौबीस तत्वात्मक विज्ञानों का बोध कराती है वे इस अन्तर्यामी विज्ञान के सहायक होने से ही श्रेष्ठ हैं।

अन्तर्यामी ब्रह्म का तत्वबोध कर लेना कोई साधारण काम नहीं है, क्योंकि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है। स्थूल शक्तियों का विचार करने वालों के लिये उसका यथार्थ बोध हो सकना असंभव ही है। योग के आचरण से बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर सविचार और निर्विचार समापत्ति द्वारा (चित्त जिस विषय में संलग्न होता है और स्फटिक मणि जैसा प्रतीत होता है उस तदाकारापत्ति को ही ‘समापत्ति’ कहा जाता है) सूक्ष्म विषयों की प्रतीति की जाती है। सूक्ष्मता की अवधि अलिंग तक होती है, अलिंग ही सर्व प्रधान तत्व है। जिसका किसी में लय हो सके ऐसा कोई तत्व ही जहाँ नहीं हैं, अथवा वह किसी के साथ मिल सके ऐसा भी कुछ जहाँ शेष नहीं रहता, वहीं प्रधान तत्व होता है। समापत्ति के विषय को समझाते हुये योग शास्त्रकार ऋषियों ने कहा है कि ‘स्थूल अर्थों में अविमर्क, और निर्वितर्क और सूक्ष्म अर्थ में सविचार और निर्विचार, इन चार प्रकार की समाधियों की आवश्यकता होती है, और इस समाधि की सूक्ष्मता आलिंग प्रधान तक होती है। इस समापत्ति से 24 तत्व रूपावस्था जानने में आती हैं।

हिरण्य गर्भ जैसा सूक्ष्मतर अथवा अन्तर्यामी तत्व जानना हो तो उस सुख स्वरूप परमात्मा को योगाभ्यास द्वारा प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है। इसके लिये गायत्री के 24 अक्षरों से प्राप्त अति सूक्ष्म ज्ञान सर्वाधिक श्रेष्ठ है।


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