सुख-प्राप्ति का मूल मंत्र-गायत्री

January 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री मदन मोहन विद्यासागर)

वैदिक सनातन धर्म की आधार-शिला वेद हैं, जो कि मानव जाति के पुस्तकालय में प्राचीनतम ग्रंथ माने गये हैं। भारत निवासी आर्य जाति इनको ईश्वर प्रदत्त मानती है। उसका विश्वास है कि मनुष्य मात्र के कल्याणार्थ सृष्टि के आरंभ में परमेश्वर ने इनका ज्ञान दिया। बहुत समय तक न केवल भारतवर्ष में, वरन् अन्य अनेक देशों में भी वेदों की शिक्षाओं का प्रचार रहा और आर्य जाति उस समय अभ्युदय और निःश्रेयस की चरम सीमा पर चढ़ी रही। उसकी तूती दुनिया में बजती रही। आर्य जाति से हमारा अभिप्राय उस मानव-समुदाय से है जो उत्तम आचरण को करता है, दुराचरण से दूर रह, परस्पर सहयोग भाव से सदा प्रगतिशील रहता है।

वेदों का सार विद्वानों ने गायत्री मंत्र कहा है। इसीलिए भारतवासी इसके जप से परम कल्याण मानते आये हैं। बहुत दिनों से मैं इस पर विचार कर रहा था कि गायत्री में ऐसी कौन सी विशेषताएं हैं जो इसको वेदों का निचोड़ मानकर इतना गौरव पूर्ण पद दिया गया? न जाने कितने सोच विचार एवं अन्तर्ध्यान के पश्चात इसका रहस्य मेरे सामने एक दिन अचानक खुला।

‘गायत्री-मंत्र’ का अर्थ

यजुर्वेद के प्राचीन भाष्य ‘शतपथ ब्राह्मण’ नामक प्रामाणिक ग्रंथ के अनुसार ‘गय’ शब्द का अर्थ ‘प्राण’ है। ‘जप’ से ही ‘गाय’ बन जाता है। ‘त्राण’ शब्द अर्थ ‘रक्षण’ होता है। यह ‘गायत्री’ शब्द ‘गय’ और ‘त्राण’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है ‘प्राण संरक्षण’ इसीलिये ‘शतपथ’ में स्पष्ट कहा गया है-

‘सा हैषा (गायत्री) गयाँस्तत्रे। प्राणाः वै गयास्तत्प्राणाँस्तत्रे॥ तद्यद् गायाँसतत्रे तस्माद् गायत्री नाम।

(शत. 148। 15। 7)

‘मंत्र’ शब्द का अर्थ होता है- “मनन, विज्ञान (साइंस) विद्या, ज्ञान।” इस शब्दार्थ से विदित हुआ कि ‘गायत्री-मंत्र’ में वह रहस्य वर्णित होना चाहिये जिसमें किसी व्यक्ति, परिवार, मानव समाज अथवा प्राणी मात्र की प्राण रक्षा हो, वे सदा सुखानन्द भोग करते रहें, तथा इतने समर्थ बने रहें कि इस संसार में अपने-अपने स्थान पर ठीक ढंग से स्थिर रहकर अपने योग्य कार्य को उचित रूप से पूरा कर सकें। इस प्रकार ‘गायत्री-मंत्र’ शब्द का अर्थ हुआ ‘प्राण रक्षण विद्या’ अथवा ‘जीवन विज्ञान’ अथवा ‘साइंस आफ लाइफ’। इसी को भारतीय जनता ‘तारक-मंत्र’ के नाम से पुकारती है, और इसके जप से परम पुण्य समझती है, महा कल्याण मानती है। हमें यह भी समझ लेना चाहिये कि यह ‘प्राण-रक्षा’ केवल मानव जाति की ही नहीं, अपितु समस्त जीवित, जागृत प्राणी मात्र की है। जीव चाहे किसी भी योनि में क्यों न हो, उसका रक्षण और पूर्ण विकास आवश्यक है।

परमेश्वर ने जीव को इस जगत में पिछले कर्म फल भोगने और नये कर्म करने के लिये भेजा है। पिछली फसल काटने और नये बीज बोने के लिये जीव मानव देह धारण करता है। यह 84 लाख योनियों में इसीलिये आता और जाता है। यही हमारी जीवन धारा है। जो कुछ भी हम कर रहे हैं, उसके आधार में ‘जीवन-रक्षा’ ‘प्राणों का त्राण’ यही भाव निहित है-

स्वस्वाहार बिहार साधन विधौ सर्वे जनास्तत्पराः। कालिस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते॥

अर्थात्- ‘मनुष्य अपने आहार-बिहार अथवा इस जीवन में इतना अनुरक्त हो जाता है कि सिर पर मंडराती मौत को भी नहीं देख पाता।’ सबल-निर्बल, धनी-निर्धन, मूर्ख-विद्वान, कोई भी क्यों न हो अपने प्राणों का नाश नहीं चाहता। रोगों से दुखी संतप्त व्यक्ति भी प्राणों के मोह को नहीं छोड़ता। इस जीवन की रक्षा के लिये मनुष्य न जाने कितने भयानक कृत्य करता है, कितने अनुचित उपायों का अवलम्बन करता है। आश्चर्य है कि सहस्रों बार नैतिक मृत्यु हो जाने पर भी अपने जीवन को बचाना चाहता है और ऐसे ही अपने आप को गंवाता है।

यही दशा जातियों की है। व्यक्तियों के समुदाय का नाम समाज है। जब वह बहुत समय तक एक ही स्थान में बसा रहता है तो सबके आचार-विचार एक से हो जाते हैं, सबके मुख से एक सी भाषा निकलती है। तब उसे ‘जाति’ की परिभाषा मिल जाती है। विभिन्न व्यक्तियों का समुदाय जब लगभग एक सा आचार, एक सा अनुष्ठान, एक सी वेशभूषा, एक भाषा को स्वीकार कर लेता है तो उसकी ‘जाति’ संज्ञा हो जाती है।

जब समस्त भूतल पर इस प्रकार की बहुत सी जातियाँ विकसित हो जाती हैं, तब वे भी अपने स्वार्थों से प्रेरित होकर एक दूसरे के भयानक विनाश पर तुल जाती हैं। एक जाति दूसरी जाति के स्वत्वों का अपहरण करने को कटिबद्ध हो जाती है। इसके मूल में भी वस्तुतः जीवन रक्षा का भाव ही प्रेरक हेतु होता है। एक जाति अपने जीवन को चिरस्थायी बनाये रखने के निमित्त ही ऐसा करती है। जब यह भाव पूर्ण स्वार्थमय हो जाता है तब भूतल पर रक्त प्लावन होने लगता है, बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी जाती हैं। यह चक्र चलता ही रहता है। यह सत्य है कि इस संघर्ष में योग्यतम की ही विजय होती है, असमर्थ दुनिया के तख्ते पर से सदा के लिए मिटा दिये जाते हैं।

रक्षा से हमारा अभिप्राय उस बचाव से नहीं है, जिसमें चारों ओर मुसीबत ही मुसीबत दिखलाई पड़े। ‘जीवन रक्षा’ का अभिप्राय है कि मनुष्य अपनी जीवन धारा को निरन्तर गौरव के साथ चलाता रहे। वह निर्भय होकर प्रत्येक दशा में भली प्रकार निर्वाह कर लेने में समर्थ हो। प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ, दीर्घायु बनना चाहता है। हम इस प्रकार जीवित रहने की क्षमता को ही जीवन रक्षा कहते हैं-

‘जीवेम शरदः शतमा अदीनाः स्याम शरदः शतम् (अथर्व वेद)

हमको अपने जीवन में यशस्वी, आयुष्मान्, वर्चस्वी होकर रहना है, इसी में हमारी जीवन-रक्षा है। ऐसी रक्षा के लिए गायत्री-मंत्र हमारा सच्चा मार्ग-प्रदर्शक है। इस मंत्र में ‘भूर्भुवः स्वः’ ही सबसे मुख्य सार रूप है। ‘स्वः’ का अर्थ सुख होता है। यह एक विशेष वैदिक परिभाषा है, जिसका अभिप्राय ‘आनन्द’ अथवा ‘आत्म विभोर’ होना है। इसी से स्वर्ग शब्द बना है जिसका अर्थ सुख की ओर जाने का मार्ग अथवा सुख की स्थिति है। ‘स्वर्लोक’ का अर्थ है ‘वह स्थान व दशा जहाँ पूरी आनन्द की उपलब्धि हो।’ लोक भाषा में ‘स्व’ शब्द का अर्थ ‘अपनापन’ ‘निज’ होता है। तत्वज्ञानियों ने बताया है कि-

‘सर्वमात्मवश सुखं सर्वं परवशं दुखम्’

किसी वस्तु पर अपनापन सुख देता है, दूसरे का अधिकार दुख देता है। अर्थात् ‘स्व-भाव’ सुख है और पर-भाव दुख है। इसी से स्वतंत्रता, स्वाधीनता, स्वराज्य, स्वदेश, स्वशासन आदि शब्द बने हैं। मनुष्य इनकी कामना इसी भावना से करता है, क्योंकि उसे इनसे सुख प्राप्ति की आशा होती है।

‘भू’ शब्द का अर्थ ‘होना’ होता है, क्योंकि वह ‘भू सत्तायाम्’ धातु से बना है। इसका अर्थ भूमि, पृथ्वी आदि भी है। इसमें सब भौतिक तत्व अन्तर्हित हैं। जो भी सत्तावान पदार्थ हैं, उन्हें ‘भू’ वर्ग में रखा जा सकता है। परन्तु ऐसा होता नहीं, यह एक विशेष पारिभाषिक संज्ञा बन गई है जो कि ‘प्रत्यक्ष दृश्यमान भौतिक प्रपञ्च’ के लिये ही प्रयुक्त होती है। ‘भूलोक’ का अर्थ पृथ्वी वत-सम्बंधी पार्थिव पदार्थ है। हम इसे यों भी कह सकते हैं कि ‘पञ्च भूतात्मक सत्तावान पदार्थ समुदाय’ ‘भू-वर्ग में आ जाता है।

‘भूः’ शब्द भुव धातु से बना है जिसका अर्थ ‘अवकल्कनं’ है। ‘अवकल्कनं चिन्तनम्’ चिन्तन शब्द का अर्थ यदि व्यापक तौर पर लें तो तत्वबोध, विद्या, नागरिकता, संस्कृति, सभ्यतादि है। एक व्यक्ति का ‘चिन्तन’ उसका ज्ञान, सोची समझी बात ही हो सकता है। एक जाति का ‘चिन्तन’ उसका साहित्य, उसकी भाषा, धर्म आदि ही हो सकते हैं।

अब इन तीनों शब्दों की परस्पर संगति मिलाने से विदित होता है कि यदि किसी को ‘स्वः’ प्राप्त करना हो तो उसे पहले ‘भू’ और ‘भुवः’ की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये। सुख के मूल ये ही दो हैं एक व्यक्ति सुखी है, इसका विश्लेषण यदि करें तो इस रहस्य का पता चल जायेगा। एक पहलवान भौतिक तौर पर, शारीरिक दृष्टि से पर्याप्त स्वस्थ है, परन्तु मानसिक या बौद्धिक विकास में बहुत पीछे है। वह प्रायः धोखा खा जाता है और अनेक बार उसकी दुर्दशा होती है। इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति बड़ा भारी पंडित है, पर जीवन भर वैद्य जी की दुकान पर चक्कर लगाता है तो वह भी सबसे पिटता ही रहेगा। स्पष्ट है कि ऐसे पहलवान और पंडित कभी पूर्ण रूप से सुखी नहीं कहे जा सकते। सच्चे अर्थों में वही व्यक्ति सुखी कहा जा सकता है, जो शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से स्वस्थ है। वह पूरा स्वावलंबी होता है, पराश्रित नहीं रहता, पददलित नहीं होता।

अब इसी को वैदिक शब्दों का रूप दें तो गायत्री का भाव अथवा ‘प्राण रक्षण’ का उपाय हमारी समझ में सरलता से आ जायेगा। जिसका ‘भूः’ (शरीर) और ‘भुवः’ (चिन्तन) ठीक है, वही ‘स्व’ का अधिकारी है, उसी की जीवन-रक्षा ठीक ढंग से होती है। जिसका शरीर निरोग है और बुद्धि शुद्ध है, वह कभी भी कष्ट में नहीं फंसता। उसको कोई धोखा नहीं दे सकता, उस पर कोई अत्याचार करने का साहस नहीं करता, सब उसका सम्मान करते हैं। जिसका बदन लगड़ा होता है और अकल ठिकाने पर होती है, वही सच्चे अर्थों में श्रीमान कहाता है।

इसी सिद्धाँत को जब एक व्यक्ति के बजाय एक जाति पर लागू किया जाता है, तो हम कह सकते हैं कि कोई जाति उसी समय तक सुख भाव या स्वतंत्रता को प्राप्त करती है, जब कि उसके पास ‘भू’ उसकी भूमि अर्थात् राजनीतिक अधिकार हों और साथ ही साथ ‘भुवः’ अर्थात् उसकी अपनी सभ्यता, भाषा और धर्मादि हो। एक जाति राजनैतिक दृष्टि से स्वतंत्र हो सकती है, परन्तु यदि उसकी अपनी सभ्यता, भाषा, संस्कृति न हो तो वह भी आधी दास ही है। एक जाति यदि सभ्यता का ऊंचा विकास किये हुये है, पर राजनैतिक अधिकार उसके पास नहीं हो वह पराधीन है ही।

इस प्रकार प्रकट होता है कि व्यक्तिगत, जातिगत और संसार गत सुख तथा शाँति का मूल मंत्र गायत्री ही है। यह सत्य, सनातन और सार्वभौमिक नियम है। यह सूत्र रूप में कहा गया ‘महान सत्य’ है। तीन शब्दों में शाश्वत सुख प्राप्ति का निराला उपाय कह दिया है। यही संसार में जीवन को सफल बनाने का सच्चा मार्ग है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles