(श्री नर्मदाशंकर ह. शास्त्री, बम्बई)
अनेक मनुष्य किसी मंत्र की साधना करते हैं और कहते हैं कि इसे किसी को बताया नहीं जा सकता। ऐसे मनुष्य न तो अपनी और न किसी दूसरे की भलाई कर सकते हैं। क्योंकि ऐसा करने से उनमें दूसरों की ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है और ईर्ष्या होने से मंत्र-सिद्धि का गौरव अपने आप समाप्त हो जाता है। यह सत्य है कि मंत्र अनधिकारी को नहीं दिया जा सकता, पर यदि किसी को अधिकारी समझ कर भी यदि रागद्वेष के कारण मंत्र न सिखाया जाय, तो वह मंत्र उस साधना करने वाले के पास से भी चला जाता है। मंत्र की साधना करने वाला और मंत्र को सीखने वाला दोनों उदारचित्त और अपार श्रद्धा वाले होने चाहियें। व्यक्तिगत रूप से जप करते हुए भी उनको समष्टि के हित का ध्यान रखना चाहिये तभी वे संसार के साथ अपना ही भला कर सकते हैं।
प्राचीन काल में ऋषि और मुनि पर्वतों की गुफाओं और घोर जंगलों में रहकर अनेक प्रकार के जप करते थे और उनका उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ न होकर समस्त संसार का कल्याण होता था। विश्व में अनेक प्रकार के उत्पात होकर शमन हो जाते हैं, इसमें बहुत कुछ प्रभाव ऐसे परोपकारी महापुरुषों का ही होता है। जो लोग अपनी तरह-तरह की भली-बुरी कामनाओं की पूर्ति के लिये जप-तप करते हैं उनका कोई महत्व नहीं समझना चाहिये।
गायत्री मंत्र का जप सभी यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति थोड़ा बहुत करते रहे हैं, पर इस मंत्र में क्या बताया गया है, इसका विचार बहुत थोड़े लोग करते हैं। आजकल के गुरु तो जनेऊ के साथ गायत्री मंत्र सुना देते हैं और कह देते हैं कि इसको जपते रहना। दुख की बात तो यह है कि इन गुरुओं में से बहुसंख्यक व्यक्ति तुरंत स्वयं भी इसका अर्थ नहीं जानते इसका परिणाम यह होता है कि नासमझ गुरुओं के हाथ से दीक्षा लेने वाले गायत्री मंत्र का जप केवल एक परम्परा अथवा रूढ़ि के रूप में करते रहते हैं, पर उस वास्तविक महत्व को कुछ भी अनुभव नहीं करते। ऐसे व्यक्ति जनेऊ धारण करते समय सैंकड़ों रुपये खर्च कर डालते हैं, पर बाद में नकली वस्तु तरह उसको भी भूल जाते हैं।
जो लोग इस प्रकार अर्थशून्य जप करते हैं, उसे कदापि वास्तविक जप नहीं कहा जा सकता वह तो संस्कृत भाषा में लिखी एक पंक्ति की तरह है। आज के अर्थ-युग में श्रद्धा शून्य मनुष्य केवल धन के लिये जी जप करते या कराते हैं। वे यही विचार किया करते हैं कि मैं कौन-सा जप करूं जिससे लक्ष्मी जी प्रसन्न होकर मुझे धन सौंप दें। ऐसे लोग इस बात को भूल जाते हैं कि सब प्रकार के जपों का मूल गायत्री जप ही है। किसी भी मंत्र का अनुष्ठान किया जाय, उसके निश्चित में पहले गायत्री मंत्र का जप ही करना है। यह बात प्रकट करती है कि गायत्री का गौरव कितना अधिक है। तो भी कितने खेद की बात है कि आज हम उसी गायत्री की उपेक्षा करके केवल धन के पीछे मतवाले हो रहे हैं और उसके लिए चारों ओर पागल बने दौड़ रहे हैं। चाहे तुमने वेद न सीखे हो, चाहें तुमने शास्त्र और पुराण न पढ़े हों, तो भी यज्ञोपवीत धारण करने के बाद अगर गायत्री में तुम्हारी अटूट श्रद्धा और सच्ची भक्ति होगी तो गायत्री-जप द्वारा तुम्हें सब वस्तुओं की प्राप्ति हो जायेगी। महर्षि व्यास जी ने कहा है-
यथा मधुच पुष्पेभ्यो घृतं दुग्धाद् रसात् पयः। एव हि सर्व वेदानाँ गायत्री सार मुच्यते॥
अर्थात्-’जिस प्रकार फूलों का सार मधु, दूध का सार घी और सब रसों का सार दूध है, उसी प्रकार सब वेदों का सार गायत्री है।’
गायत्री अर्थात् ‘गायन्तं त्रायते यत्मात् इति गायत्री’- इसमें गाने के अर्थ में गौ धातु आया है। इससे भी यही प्रकट होता है कि केवल एक बार उच्चारण करने से नहीं, पर बारम्बार गान करने से जप करने से यह हमारी रक्षा करने वाली बन जाती है।
जप कैसा होना चाहिये?
श्रीकृष्ण के लिये अर्जुन को इतनी तल्लीनता थी कि जब अर्जुन निद्रावश हो जाता था तो भी उसकी साँस से श्रीकृष्ण का ही स्वर बाहर निकलता था। गायत्री का जप भी इसी प्रकार होना चाहिये कि रोम-रोम और श्वाँस-श्वाँस में उसी की रटन लगी रहे। इस प्रकार का श्रद्धापूर्वक किया हुआ जप, जिस प्रकार औषधि से शारीरिक व्याधियाँ दूर होती है, उसी प्रकार समस्त मानसिक और शारीरिक व्याधियों को दूर करने वाला होता है। पर जब तक हमारे भीतर ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो तब तक धैर्यपूर्वक उसके लिये प्रयत्न करते रहना चाहिये।
जप करने वाला व्यक्ति धैर्यवान न होगा तो एकाग्रता नहीं आती, और एकाग्रता नहीं आने से जप जैसा होना चाहिये वैसा नहीं हो पाता। संकटों के दुर्ग में फंसे हुये जगत को यदि इससे बाहर निकलना हो तो उसके छुटकारे का उपाय एकमात्र गायत्री का जप ही है। जब तक हम स्वयं इसका अनुभव न करेंगे तब तक उसका प्रभाव हमारी समझ में नहीं आ सकता। तो भी यदि हम गायत्री के प्रखर उपासक की तरह आगे पैर बढ़ाते जायेंगे तो अवश्य हमको सफलता प्राप्त होगी और दूसरों को भी इस मार्ग पर आरुढ़ करके विश्व-कल्याण में कुछ हिस्सा ले सकेंगे।
विश्व के अभ्युदय की कुँजी
गायत्री मंत्र केवल व्यक्ति का ही नहीं समृष्टि का कल्याण करने वाला है, यह उसी के अर्थ में से प्रकट होता है। इस मंत्र में जो ‘नः’ शब्द है वह ‘अस्मद्’ शब्द का षष्टी बहुवचन है। इस मंत्र में एक वचन का प्रयोग नहीं किया गया है वरन् ‘मेरी बुद्धि’ के स्थान पर ‘हमारी बुद्धि’ कहा गया है। इसका अभिप्राय यही है कि समष्टि में ही व्यष्टि का समावेश हो जाता है, ऐसा समझ कर जो जप किया जाता है, वह केवल व्यक्तिगत हित की दृष्टि से किये गये जप की अपेक्षा बहुत अधिक फलदायक होता है। गायत्री जप का अनुभव प्राप्त करने के बाद यदि हम दूसरे लोगों को भी उसे करने की प्रेरणा करते हैं तो उसमें से भी हम को फल प्राप्त होता ही है। इस प्रकार यदि हम दस मनुष्यों को गायत्री जप करने पर आरुढ़ कर दें तो हमको एक मनुष्य के जप का फल अनायास ही मिल जाता है। अगर यह क्रम जारी रहे तो एक दिन हमको धर्म अभ्युदय की झाँकी अपने जीवन में ही मिल सकती है। यही विश्व-कल्याण की सच्ची कुँजी है। अभ्यथा नाटक और सिनेमा के गीतों का जप तो श्रद्धापूर्वक प्राप्त परिमाण में किया ही जा रहा है। इस अवसर पर किसी महापुरुष का कहा श्लोक याद आता है-
गायत्री तु परित्यज अन्य मंत्रमुपासते। सिद्धान्नं च परित्यज भिक्षामटति दुर्मतिः॥
अर्थात् ‘जो मनुष्य गायत्री मंत्र को छोड़कर अन्य मंत्रों की उपासना करता है वह सिद्ध अन्न को छोड़कर भिक्षा के लिये फिरने वाले व्यक्ति की तरह मूर्ख है।’
दूसरे जपों की अपेक्षा गायत्री मंत्र की महिमा इतनी अधिक है यह समझकर योग्य व्यक्ति के पास से गायत्री मंत्र की दीक्षा लेकर उसके जप को ही अपना लक्ष्य बनाना चाहिये। श्रद्धापूर्वक किया हुआ गायत्री मंत्र का एक बार का जप एक दिन के पापों का नाश करता है। इसी प्रकार दश मंत्र रात-दिन के, सौ मंत्र एक महीने के एक हजार मंत्र एक वर्ष के एक-लाख जप जन्म भर के, दश लाख जप पूर्व जन्म के और करोड़ों जप सब जन्मों के पापों का नाश कर देते हैं।
मनुष्य मात्र से ‘पाप’ होता है यह समझकर जो व्यक्ति प्रायश्चित स्वरूप गायत्री मंत्र का जप करता रहता है वह निष्पाप हो जाता है। महान और श्रेष्ठ होने के लिये किसी व्यक्ति को गायत्री मन्त्र के जप में प्रमाद नहीं करना चाहिये।