गुरु और गुरु-मंत्र का रहस्य

January 1959

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(श्री सदाशिव)

गायत्री को सनातन धर्म में गुरु मंत्र कहा गया है। आज भी देश भर में इसका प्रचार है और प्रायः सभी प्राँतों के पंडित यज्ञोपवीत धारण कराते समय शिष्य को इस मंत्र का उपदेश देते हैं। उनका यह कार्य केवल एक रूढ़ि पूजा के ढंग पर होता है क्योंकि अधिकाँश में न तो वे स्वयं गायत्री की उपासना और साधना करने वाले होते हैं और न शिष्य को उसकी विधिवत शिक्षा देकर उसे साधन-मार्ग में अग्रसर कराने का प्रयत्न करते हैं। यही कारण है कि बहुत समय से लोग गुरु मंत्र का महत्व और उससे लाभ उठाने की विधि को भूल गये हैं। अगर गुरु सच्चे और ज्ञानी हों तो वे इस मंत्र की शिक्षा देकर अपने अनुयाइयों का अपार हित कर सकते हैं। इस विषय में गुरु का महत्व बतलाते हुए अहमदाबाद के ‘प्रज्ञान-मन्दिर’ के संचालक महात्मा सदाशिव जी के निम्न विचार पाठकों को विशेष उपयोगी प्रतीत होंगे।

गुकारस्त्वन्धकारस्यात् रुकारस्तन्निरोधकः। अन्धकार विनाशित्याद गुरुरित्य भिधीयते॥

‘गुकार अर्थात् अन्धकार और रुकार अर्थात् उस अन्धकार को मिटाने वाला प्रकाश, इस प्रकार जो शिष्य में पाये जाने वाले अन्धकार का विनाश करके उसे ज्ञान रूपी प्रकाश देता है वही गुरु कहा जाता है।’

गुरु तीन प्रकार के होते हैं-’क्रियाशक्ति’ प्रधान स्थूल देहधारी लौकिक गुरु-’इच्छाशक्ति’ प्रधान सूक्ष्म देहधारी सिद्धगुरु और ‘ज्ञानशक्ति’ प्रधान कारण देहधारी ज्ञानी गुरु। कितने ही गुरु ऐसे भी हैं जो वंश परम्परा से मंत्र का प्रयोग कर रहे हैं, पर उन्होंने स्वयं साधन द्वारा उसे चैतन्य शक्ति संपन्न नहीं किया वे हैं लोग शक्तिहीन मंत्र का प्रयोग करते रहते हैं जिससे उसका कोई प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता। ऐसे गुरुओं को सूक्ष्म देहधारी-सिद्ध गुरुओं की सहायता नहीं मिलती, जिससे अपना अथवा अन्य लोगों का विशेष उपकार नहीं कर सकते।

साधारण रीति से ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ‘भारी’ होता है। उसका विपरीत शब्द ‘लघु’ अर्थात् ‘हलका’ होता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो विश्व की समस्त जड़ और चेतन वस्तुएं एक दूसरे के मुकाबले में भारी हलकी सिद्ध होंगी। पर इनमें से किसी भी व्यक्ति या वस्तु के लिये यह नहीं कहा जा सकता कि वह सदैव और प्रत्येक परिस्थिति में गुरु (उपादेय अथवा वन्दनीय) ही है, अथवा कोई व्यक्ति या वस्तु सदैव, प्रत्येक दशा में लघु ही है। इस हिसाब से कोई भी एक व्यक्ति, वह चाहे जितना भी विद्वान, ज्ञानी अथवा बुद्धिमान क्यों न हो, तो भी समस्त जगत का गुरु नहीं बन सकता। इसी प्रकार यदि खास वंश में कोई विशिष्ट पुरुष हो गया हो और बहुत से व्यक्तियों को सत मार्ग दिखलाकर गुरु की वंदनीय पदवी प्राप्त कर गया हो तो उसके आगे वाले शिष्य अथवा पुत्र पौत्रादि भी वंश परम्परा के आधार पर गुरु होने का दावा नहीं कर सकते। जब से हमारे देश में पुत्र-परम्परा अथवा शिष्य-परम्परा से लोग गुरु बनने का दावा करने लगे तभी से उनका आदरमान घटने लग गया और धीरे-धीरे नष्ट प्रायः हो गया। इसके फल से समाज में वास्तविक ज्ञान और ज्ञानी, गुण और गुणी का अभाव होकर भयंकर अंधाधुँधी का साम्राज्य फैल गया।

अगर प्राइमरी स्कूल का कोई शिक्षक अपने शिष्यों से यह दावा करे कि केवल मैं ही गुरु हूँ और तुम लोग मेरे सिवाय और किसी को गुरु मत बनाना तो इसका परिणाम यह होगा कि उसके शिष्य दो-चार दर्जा पढ़कर ही रह जायेंगे, उनमें से कोई बी.ए., एम.ए. न हो सकेगा। इसलिए जो हमको विद्या, बुद्धि प्राप्त करने में जितने अंश तक सहायता दे सके उसे उतने अंशों में गुरु मानना चाहिये। एम.ए. की डिग्री प्राप्त करने तक जितने शिक्षकों और आचार्यों के पास पढ़ा जाय उन सबको ही गुरु के समान मानना चाहिये। जिस प्रकार हमारे माता-पिता एक ही होते हैं और वे ही इस बात का दावा कर सकते हैं, वैसा नियम गुरु के संबंध में काम नहीं दे सकता। हाँ अगर किसी को संयोगवश या भाग्य से कोई दैवी जगत का ज्ञानी गुरु मिल जाय तो उसकी बात दूसरी है, पर जब तक ऐसा अलौकिक गुरु नहीं मिलता तब तक शिष्य को गुरु बदलने का अधिकार भी होता है। शास्त्रों में लिखा है-

आमोदार्थो यथा भृंगो पुष्पातपुष्पादन्तरंग गच्छेत्। विज्ञानार्थो तथा शिरुो गुरु गर्वोन्तरं गच्छेत्॥

अर्थात् ‘जिस प्रकार भौंरा आमोद अर्थात् सुगंधि और मधु के लिए एक फूल से दूसरे, तीसरे फूल में जाता है, उसी प्रकार जब तक शिष्य की जिज्ञासा तृप्त न हो तब तक वह दूसरा, तीसरा गुरु कर सकता है।’ अगर एक ही गुरु से सब प्रकार के ज्ञान की तृप्ति हो जाय तो फिर गुरु बदलने की आवश्यकता नहीं रहती। पर ऐसे उच्च अधिकारी और अलौकिक गुरु कभी भी शिष्य को ढूँढ़ने नहीं जाते, शिष्य ही आकर्षित होकर उनके पास आते हैं। तब भी वे तत्काल शिष्य को स्वीकार नहीं कर लेते, वरन् उनकी जाँच करके ही स्वीकार करते हैं। स्वीकार करने के बाद वे शिष्य के शरीर में शक्तिपात करते हैं जिससे शिष्य में पहले से पाई जाने वाली वासनाएं दूर होने लगती हैं और वह क्रमशः गुरु की इच्छा और आदेश के अनुसार व्यवहार करने लगता है। यह कार्य प्रायः ऐसे ढंग से होता कि शिष्य को खबर भी नहीं पड़ती वह अपने को स्वतंत्र स्वाधीन समझता रहता है, पर मंत्र उस पर निरन्तर प्रभाव डालकर उसे बदलता जाता है। शिष्य की जितनी इच्छायें और प्रवृत्तियाँ गुरु के विपरीत होती हैं, वे तरह-तरह के उपायों से दूर हो जाती हैं और अन्त में वह पूर्णतया गुरु की आज्ञाधीन उनका अनुवर्ती हो जाता है। इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य अगर प्रयत्न करे तो कभी-कभी बाघ के मुँह में से भी छुटकारा पा जाता है पर अलौकिक शक्ति सम्पन्न गुरु जिसको एक बार पकड़ लेते हैं, अर्थात् स्वीकार करके शरण में ले लेते हैं, वे शिष्य हजार प्रयत्न करने पर भी उनसे छूटकर अलग नहीं हो सकते, अर्थात् वे गुरु की कल्याणकारी इच्छा के विपरीत अकल्याणकारी मार्ग पर नहीं चल सकते इसके उद्देश्य की पूर्ति के लिये गुरु तरह-तरह विचित्र उपाय भी करते हैं। इसलिये साधारण मनुष्यों के उचित है कि यदि गुरु का कोई व्यवहार उनकी समझ में न आवे अथवा उलटा जान पड़े, तो वे तुरन्त ही उनके विषय में भली-बुरी कल्पना न कर बैठें। जीवतत्व, ईश्वर तत्व भाग्य तत्व की अपेक्षा भी गुरु और गुरुतत्व अधिक गहन, गंभीर है।

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मंत्र की महिमा बहुत अधिक है और हमारे पूर्वज अति प्राचीन काल से इसका प्रयोग करके आत्म कल्याण और परमार्थ करते रहे हैं। अब भी करोड़ों व्यक्ति नियमित रूप से मंत्र जपते रहते हैं, परंतु मंत्र-रहस्य और मंत्र-विज्ञान से ठीक-ठीक परिचित न होने से यथोचित फल प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिये वे बार-बार मंत्र को बदलते हैं, गुरु को बदलते हैं और अंत में निराश होकर मंत्र को त्याग देते हैं और साथ-साथ मंत्र, शास्त्र तथा मंत्र वेत्ता गुरुओं की मूर्खता पूर्ण निन्दा और चर्चा करने में लग जाते हैं। यह सब इसी कारण होता है कि वे अपने उपयुक्त गुरु प्राप्त करने में सफल नहीं होते। अगर वे सच्चे गुरु द्वारा मंत्र के जप व साधन का ठीक मार्ग जान सकें तो वे भी प्राचीन काल के धर्मात्मा लोगों के समान संसार में सुखपूर्वक रहते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। हमारे देश के वैदिक काल के ऋषि-मुनि अधिकाँश में गृहस्थी ही थे और लौकिक कार्यों में लगे रहते थे, तो भी वे ‘सत्यं’ और ‘शिवं’ में संलग्न रह कर ‘सुन्दर’ जीवन बनाने का मार्ग बतला गये हैं। अगर अब भी हमारे गुरुओं और शिष्यों द्वारा उस वेद-विज्ञान सम्मत विधि-विधान और अनुशासन को शिरोधार्य करते हुये जीवन निर्माण किया जाये तो इस मायामय संसार और भौतिक पदार्थों का यथावत भोग करते हुए आनन्दमय, कल्याणकारी जीवन को प्राप्त किया जा सकता है।


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