(श्री चिरंजीवलाल वानप्रस्थी)
गायत्री-मंत्र का पहला शब्द ॐ ईश्वर का सबसे मुख्य और सबसे महत्वपूर्ण नाम है। यह अ उ म्- इन तीनों अक्षरों से मिलकर बना है जिसके ‘अ’ से विराट, अग्नि तथा विश्व आदि, ‘उ’ से हिरण्यगर्भ, वायु, तेज आदि, म् से ईश्वर, आदित्य तथा प्राज्ञ आदि का बोध होता है। यदि इन शब्दों की सविस्तार व्याख्या की जाय, तो ‘परमेश्वर’ का वाचक कोई शब्द शेष नहीं रह जायेगा। जैसे एक रुपये की दो अठन्नियाँ चार चवन्नियाँ, आठ दुअन्नियाँ, सोलह आने तथा चौंसठ पैसे आदि होते हैं, पर व्यवहार में वे सब रुपये के स्थान पर चलते हैं, कोई उनके लेन-देन से इन्कार नहीं करता इसी तरह ‘ॐ’ के अतिरिक्त जितने भी शब्द हैं वे सब एक इसी शब्द के अंतर्गत आ जाते हैं, क्योंकि सारे गुणों का समावेश इसी के अन्दर हो जाता है।
यहाँ शंका की जा सकती है कि ‘अ’ कार के विराट आदि अर्थ एक ही अक्षर ‘ॐ’ से क्यों न लिये जाये? तथा ॐ शब्द के अन्दर सारी सृष्टि कैसे आ जाती है। इसका सविस्तार वर्णन ‘माण्डूक्य उपनिषद्’ में किया गया है। यहाँ सार रूप में ही कुछ बातें कही जाती हैं।
‘ओम्’ शब्द का स्थूल अर्थ जिसे एक साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है और याद रख सकता है, इस प्रकार है- ‘अ’ से सृष्टि की उत्पत्ति, ‘उ’ से स्थिति (विस्तार) और ‘म्’ ये प्रलय का अर्थ अभिप्रेत है। इस अर्थ का भास ॐ शब्द के उच्चारण मात्र से हो सकता है, जैसे ‘अ’ के कहने से मुँह खुल जाता है, ‘उ’ से उसका विस्तार हो जाता है और ‘म्’ कहने से मुँह बन्द हो जाता है। इस प्रकार ‘ॐ’ शब्द उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाले पदार्थ का नाम स्वयं भासित कर रहा है। परमेश्वर का अन्य कोई भी नाम ऐसा नहीं है जो इन तीन गुणों को एक साथ प्रकट करता हो।
इतना ही नहीं हमारे धर्म के प्राचीन से प्राचीन ग्रंथों में ‘ॐ’ के नाम की महत्ता बतलाई गई है। कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं-
1. यजुर्वेद के 40वें अध्याय में ‘ओम् क्रतो स्मर’ मंत्र ॐ के जाप का ही विधान है।
2. कठ उपनिषद् में कहा गया है- ‘सर्वे वेदाः यत्पदमाम नन्ति, तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यम् चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण व्रवीभ्यामित्येतत्॥
अर्थात् जिस शब्द की महिमा सारे वेद गाते हैं, तपस्वी जिसका बखान करते हैं, ब्रह्मचारी जिसके लिए घोर तपश्चर्या करते हैं, वह शब्द केवल ‘ॐ’ ही है।
3. मुँडकोपनिषद् (खंड 2-2) में कहा है-
अरा इवं रथनाभौ संहता यत्रनाडयः। स ऐषो अन्तश्चरते बहुधा जायमानः॥ ओमि त्येवं ध्यायथ आत्मानं। स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात्॥
अर्थ- रथ की नाभि-धुरे में अरों की भाँति जिस हृदय-देश में सब नाड़ियां आश्रित हैं, यह अनेक प्रकार से प्रकट होने वाला परमात्मा उसी हृदय देश के भीतर विचरता है। उस परमात्मा को ‘ॐ’ इस प्रकार से ध्यान करो। अन्धकार से पार होने के लिये यह ‘ॐ’ का ध्यान तुम्हारे लिये कल्याणकारी हो।
4. स्वामी रामतीर्थ ने एक जगह कहा है-’विज्ञान पर धिक्कार है, यदि वह पवित्र शब्द ॐ के प्रभाव संबंधी सत्य के विरुद्ध जाता है।’
ये सब प्रमाण आस्तिकों के लिए हैं। परन्तु जो लोग ईश्वर की सत्ता के विषय में संशय रखते हैं अथवा उसे नहीं मानते उनके लिये भी गायत्री में बहुत बड़े ईश्वरीय ज्ञान का भण्डार भरा पड़ा है। ऐसे व्यक्तियों को ॐ की महत्ता समझाने के साथ ही ईश्वर की सत्ता समझाने की भी आवश्यकता है।
(1) एक जैसे मैं (आत्मा) शरीर में व्यापक हूँ, वैसे ही वह ईश्वर सब में व्यापक है। परन्तु इस शरीर में व्यापक होते हुए और सब चेष्टायें करते हुए भी मैं (आत्मा) इन चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जाता, पर ज्ञान-चक्षु से उसका अनुभव होता है। वैसे ही परमात्मा भी इन चर्म-चक्षुओं से दिखाई नहीं देता, यद्यपि वह सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है, वही सारे संसार को गति दे रहा है और वही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करता है। उसे ज्ञान चक्षु से ही अनुभव किया जा सकता है। यदि मेरे अपने होने में किसी को सन्देह नहीं तो उस ईश्वर के होने में संशय क्यों होना चाहिए?
(2) जब मेरी (आत्मा) की इच्छा होती है तब मैं बोलता हूँ जब तक इच्छा बनी रहती है तब तक बोलता रहता हूँ और जब मेरी इच्छा बन्द हो जाती है तब मेरा बोलना भी रुक जाता है। पर मेरा बोलना रुक जाने पर भी मेरी बोलने की शक्ति कायम रहती है और जब चाहूँ तब मैं बोल सकता हूँ। वैसे ही ईश्वर अपनी इच्छा मात्र से सृष्टि पैदा करता है, उसकी इच्छा-मात्र से सृष्टि उत्पन्न होती है, जब तक उसकी इच्छा सृष्टि चलाने की रहती है, तब तक सृष्टि की स्थिति रहती है और जब उसकी इच्छा बंद हो जाती है तब प्रलय हो जाती है और सृष्टि अपने तत्वों में विलीन हो जाती है। मनुष्य की बोलने की प्रसुप्त शक्ति के समान परमात्मा की सृष्टि रचने की प्रसुप्त शक्ति के समान परमात्मा की सृष्टि रचने की शक्ति भी बंद नहीं होती। परन्तु परमात्मा का सब कार्य एक निश्चित नियम से होता है अतः उसके सृष्टि, स्थिति और प्रलयकाल नियत हैं। उनमें किसी प्रकार का अनियम नहीं। इसी कारण मनु महाराज ने कहा है कि जितने नियत समय तक सृष्टि रहती है उसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है और उतने ही प्रलय काल को ब्रह्मा की रात्रि कहते हैं।
गायत्री में जीव और ईश्वर की स्थिति का ज्ञान भी बड़ी उत्तमता से कराया गया है। इस मंत्र में भूः, भुवः तत, सविता, वरेण्यं, भर्गः तथा देव शब्द सब एक वचनान्त है और ॐ के गुणों की स्तुति करने से ॐ के ही विशेषण हैं। परन्तु आगे चलकर इस मंत्र में ‘धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्’ इस खण्ड में ‘नः’ तथा ‘धीमहि’ शब्द बहुवचनान्त हैं, जो कि जीवों के लिये ही प्रयुक्त हो सकते हैं, परमात्मा के लिये नहीं। इस मंत्र में परमात्मा से बुद्धि की याचना करने से भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि अल्पज्ञ जीव ही अपनी अल्पज्ञता को दूर करने के लिए ईश्वर से बुद्धि माँगते हैं।
इस प्रकार निरन्तर मनन करने से जिज्ञासु को यह विदित हो सकता है कि सत्य ही इस सृष्टि को रचने वाला कोई महाप्रभु है। इससे वह अपनी अज्ञता और परमात्मा की सर्वज्ञता को अनुभव करने लगेगा। उसे यह भी अनुभव होने लगेगा कि हिमालय के सम्मुख एक मच्छर की हस्ती तो हो सकती है, किन्तु इस महान जगत की तुलना में मेरी कोई हस्ती नहीं हो सकती। इसलिए जैसे दुर्बल किसी बड़ी शक्ति का सहारा ढूँढ़ता है उसी प्रकार हम भी अपनी आत्मिक शक्ति बढ़ाने के लिये उस महती शक्ति के समीप जाने का प्रयत्न करते हैं। परमात्मा की अनन्त शक्ति को दिखाने के लिये, उसके अनन्त गुणों का अनुमान करने के लिए, तथा जीवन में भक्ति तथा श्रद्धा उत्पन्न करके परमात्म तत्व से शक्ति प्राप्त करने के लिये गायत्री एक बहुत बड़ा साधन है। वह ॐ के रूप में हमको परमात्मा के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराती है।