बुद्ध भगवान की महानता

April 1956

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(श्री आनन्द जी)

महापुरुषों का जन्म,पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि सभी तो मानव समाज के आदि सभी तो मानव समाज के अन्य जनों की भाँति ही होता है, फिर उनमें क्या ऐसा कुछ होता है, जिसके कारण वे तो लोक पूज्य हो जाते हैं और शेष समाज थोड़ी दूर खिंच कर उनके अनुकूल मात्र हो जाते हैं तथा कुछ या अनेक व्यक्ति उसके अत्यन्त निकट पहुँच कर उनकी प्रभा से जाज्वल्यमान अवश्य हो जाते हैं पर महापुरुषत्व तो केवल एक उन्हीं में अवस्थित होता है, दूसरे में नहीं। उनके “जीवन” के आलोड़न और विश्लेषण से शायद हमें उसका कुछ पता चल जाय और उस पावन पद-रज को अपने शीश पर धारण कर हम अपने को कुछ पवित्र बना सकें, इसी आशा के कारण, यह साहसपूर्वक, धृष्टता की जा रही।

भारत में जातियों के अनेकों खण्ड राज्य थे। अंग, मगध, काशी, कोशल, मोजी, चेदी, वन्स्यः, कुरु , पंचाल, मत्स्य, शौरसेन, असमुख, अवन्ती, गान्धार और काम्बोज सुप्रसिद्ध जाति राज्य थे। प्रजातन्त्रीय राज्यों में विदेह, लछवी ये दोनों संयुक्त होकर विज्जी राज्य कहलाते थे। इसी प्रजातन्त्रीय समाज के राजकुलों में बुद्ध भगवान का अवतरण हुआ था। बड़े ही लाड़-प्यार और भोगैश्वर्य्यमय वातावरण में इनका पोषण और शिक्षण हुआ। विवाह के उपरान्त विलास की मादकता के बीच, मृदुलता सहित, जीवन को सरसायित करने के उपकरणों से उसे घेर कर रक्खा गया। सन्तान का जन्म हुआ और बुद्ध ने मोह के सम्पूर्ण रूप को भली-भाँति निरीक्षण किया, और उसी समय इस मोह-मोह-मधुर-जीवन को, सदा के लिये परित्याग कर, उत्सर्ग और कल्याण का उज्ज्वल-पथ परिग्रहण किया।

इसके प्रथम शैशव और बाल्य जीवन में—इनके विस्तृत विशाल हृदय में निरपेक्ष करुणा को असीम सागर लहराते हुए, सूक्ष्म दृष्टि वालों ने देख लिया था, इसीलिये इन्हें, इनके पिता ने सदैव सुखैश्वर्य्यों के बीच रखने का प्रयत्न किया और यथा सम्भव दुःखद स्थिति एवं दर्शन से इन्हें वञ्चित रखा फिर भी भगवान की अदम्य लीला कि एक ही दिन इन्होंने मानव जीवन की तीनों भयंकर यातनायें—बुढ़ापा, रोग और मृत्यु को देख लिया। उसी दिन इनका आंतरिक जीवन बदल गया, जिसने मन्थन द्वारा प्रगट होकर सर्वस्व त्याग का स्वरूप धारण किया।

इन्होंने जिस भाँति सुख, ऐश्वर्य, विलास, भोग का मुक्त अनुभव किया, उसी भाँति, दारिद्रय, भूख, श्वांस, जाड़ा, गरमी, वर्षा आदि भयंकर कष्टों की भी गम्भीरता से अनुभूति ली, साथ ही जिन वासना, भोगों में, इनके मन प्राणों ने सुख का अनुभव किया था, उसी के निरोध-पशु में आई हुई भयंकर कठिनाइयों का भी एक योद्धा का हृदय लेकर सामना किया और विजय पायी।

इतना करने के उपरान्त इन्होंने शान्त, युक्त , परिमित, मध्यम पथ का अवलम्बन किया और इसी भाँति मनन-चिन्तन एवं निदिध्यासन करते हुए एक दिन बुद्धत्व की उपलब्धि की।

चूँकि मनुष्य के पास मन-बुद्धि ही समझने और जानने के सर्वोच्च साधन हैं, अतः हम बुद्ध को जानने के लिये उनके विभिन्न विषय सम्बन्धी उपदेश संग्रह करके उसके आधार पर परखने का प्रयत्न करें।

1-इदं थी पन भिक्खवे दुःखं अरिय सच्चम जातिमि दुक्खा, जरापि दुक्खा, व्याधिपि दुक्खा, मरणपि दुक्खम्।

अर्थ-भिक्षुगण, यही दुःख है-यह आये सत्य है। जन्म भी दुःख, जरा भी दुःख, मृत्यु भी दुःख और व्याधि भी दुःख।

2-दो पराकाष्ठा हैं, प्रथम काम सुख में ही तल्लीन रहना, दूसरा जीवात्मा को क्लान्त करने वाली तपस्या करना, इन दोनों का परित्याग कर ‘मञ्झिमा-परिपदा” मध्यम पथ का अवलम्बन ही श्रेष्ठ पथ है।

3-दीघ निकाय के अंतर्गत राजा विजत के यज्ञ का वर्णन करके बुद्धदेव ने कहा है:—

“हे ब्राह्मण! उस यज्ञ में गौवध नहीं हुआ, छाग वध नहीं हुआ, मेष वध नहीं हुआ, कुक्कुट वध नहीं हुआ, शूकर वध नहीं हुआ, एवं अन्यान्य प्राणियों की हत्या भी नहीं हुई। इसी तरह यूप के लिये वृक्ष का छेदन नहीं हुआ और आसन के लिये कुशोच्छेदन नहीं हुआ। उस स्थान पर भृत्य, किंकर और काम करने वालों को दण्ड द्वारा तर्जन नहीं करना पड़ा। यही क्यों? भय भी नहीं दिखाना पड़ा। वे लोग अश्रु मुख होकर रो-रो कर काम नहीं करते थे। जो उनकी इच्छा हुई किया, जो इच्छा नहीं हुई, नहीं किया। वह यज्ञ, घृत, तैल, नवनीत और दही, गुड़-मधु के द्वारा ही सम्पन्न हुआ था।”

4—मभिझमनिकाय के अस्सलायन सुत्त में लिखा है कि एक विद्वान् ब्राह्मण गौतम से विवाद करने आया और वह गौतम के इस सिद्धान्त पर विवाद करने लगा कि सब जातियाँ समान रूप से पवित्र है।

गौतम जो कि एक उत्तम तार्किक था, उसने उस से पूछा—”ब्राह्मण की स्त्रियों को दूसरी जाति के सदृश प्रसव वेदना होती है या नहीं?”

अस्सलायन ने कहा—“हाँ होती है।”

गौतम ने पूछा—‘क्या बेक्ट्रिया की भाँति आस-पास के देश के लोगों में रंग भेद नहीं होता, फिर भी उन देशों में क्या गुलाम-मालिक नहीं हो सकते?”

अस्सलायन—हाँ, हो सकते हैं।

गौतम ने पूछा—तब यदि ब्राह्मण, बालक, चोर, झूठा, लम्पट कलंक लगाने वाला, तुच्छ, लालची, द्रोही और मिथ्या सिद्धान्त का मानने वाला हो, तो क्या वह मर कर दूसरी जाति की तरह दुःख और कष्ट में जन्म नहीं लेता? अस्सलायन—अच्छे और बुरे कर्मों का फल मनुष्य को बिना जाति का विचार किये ही मिलेगा।

गौतम ने कहा—यदि किसी घोड़ी का किसी गधे का साथ संयोग हो जाय तो उसकी सन्तान अवश्य खच्चर होगी, लेकिन क्षत्रिय और ब्राह्मण के संयोग से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह अपने माँ-बाप की तरह ही होगा। इसलिये स्पष्ट है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में कोई भेद नहीं।

इसके बाद अस्सलायन कुछ सोचता रहा और सोचकर गौतम का शिष्य हो गया।

बार-बार युद्ध ने बतलाया है—पवित्र उत्साह, पवित्र जीवन और आत्म निरोध से मनुष्य ब्राह्मण हो जाता है। यह संघ से उच्च ब्राह्मण का पद है। मनुष्य अपने गुथे हुए बालों से और अपने वंश अथवा जन्म से ब्राह्मण नहीं हो जाता; परन्तु जिसमें सत्य और पुण्य हो वही ब्राह्मण है और वही धन्य है।

बुद्ध भगवान के उपदेश, वार्ता और विचारों के द्वारा ही हम उनकी महानता की खोज करते हुए पाते हैं कि वे इस संसार में जन्म, मरण, बुढ़ापा, व्याधि रूप दुःख से सभी को आक्रान्त पाते हैं। कोई इन दुःखों से मुक्त नहीं है, अतः इन दुःखों से निस्तार पाने के लिये विषय वासना करने वाली उपासना, तपस्या करना, दोनों में एक भी पथ प्रशस्त नहीं। वरन् विषय से अनासक्त होकर उसका आवश्यक उपयोग तथा कष्टदायी तपस्या के आकर्षण से विरत हो शान्त चित्त से ही, जिसे वे “मध्यम मार्ग” कहते हैं— स्थायी शान्ति प्राप्त हो सकती है।

‘यज्ञ’ से उन्हें विरोध नहीं वरन् प्रसन्नता होती है, जिसमें हिंसा नहीं हो, किसी को सताया नहीं जाता हो, किसी पर दबाव पूर्ण- भय दिखाकर शासन नहीं किया जाता हो।

इसी भाँति वर्णधर्म से भी उन्हें विरोध नहीं है वरन् वे उपनिषदों के सार श्रीमद्भागवत् गीता के निर्देशों को व्यवहारिक रूप देने का प्रयत्न करते हैं।

“चातुर्वर्ण मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः”

—गीता,

जिनमें विषय-वासना छोड़ने की प्रवृत्ति और शक्ति नहीं है, ऐसी नीच मनोवृत्ति वाले अपनी विष-लोलुपता, कदाचार और असंयम को जन्मना वर्ण की आड़ में छिपाकर जो पूज्य बने रहने का ढोंग रचते थे, तथा माने हुए कुछ जन्मजात उच्च वर्णों के सम्मान के संरक्षण के लिये दूसरे जनों को अपने गुण-स्वभाव-कर्म से उक्त सम्मान और पूज्य पदों पर जाने से अवरोधन करते थे-ऐसे लोगों के आडम्बर और संकीर्ण-स्वार्थी विचारों का निमर्थन कर वे व्यापक, सत्य और उदार नियमों की स्थापना चाहते थे।

भगवान की “चतुवर्ण” वाली सृष्टि, जिसका गुण-कर्मों के अनुसार स्वतः ही विभाग किया हुआ है, आज भी होती है, पर समाज में जन्गतः ही उच्च अधिकार पाने के लोभी इसे मानने के लिये कदापि तैयार नहीं होते। जिस भाँति एक पूँजीपति का बेटा, पिता की कमाई सम्पत्ति का अधिकारी तो बने रहना चाहते हैं, पर जिस योग्यता और पुरुषार्थ से उनके पिता ने यह सम्पत्ति अर्जित की थी, उन योग्यताओं एवं पुरुषार्थों की कतई परवाह नहीं करते, उसी भाँति पूर्वजों की तपस्या और आध्यात्मिकता के नाम पर ही पूज्य बने रहने की इच्छा वाले लोग, जन्मजात उच्चवर्णता का अधिकार चाहते होते हैं।

भगवान् बुद्ध ने अपने निर्मल, न्यायपूर्ण, विशाल एवं निष्पक्ष दृष्टि से देखा कि विश्व के सारे मानवों में दुःख, सुख की स्थिति एवं गुण-कर्म स्वभाव की उत्पत्ति, समान रूप से ही होती है। वह मनुष्यों का मनुष्य के किसी विशिष्ट समूहों द्वारा बनाये नियमों को आधार मानकर नहीं चलती, वरन् निसर्ग का वह स्वयं ही अपना नियम है। इसके लिये मानव रचित स्वार्थी आधारों पर मानव-मानव में परस्पर ऊँच नीच के नाम पर द्वेष और घृणा का आस्तित्व बनाये रखना कभी कल्याणकारी नहीं, वरन् ईश्वर के पवित्र नैसर्गिक-विधानों का उल्लंघन और अपमान करना ही है।

भारतीय संस्कृति सदा ही अध्यात्म की अनुयायी रही है। यही इसके अमर-श्रोता होने का कारण है। उसके अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, वह स्वयं ईश्वर रूप ही हो जाता है। वह मनुष्य ही नहीं, प्राणीमात्र को अपने वात्सल्य भाव से परिप्लावित कर उसके कल्याण का विधान करता रहता है। इसी से बुद्धदेव भगवान् का अवतार है।

भगवान् बुद्धदेव के भाव, विचार, वाणी एवं कर्म के एक-एक कण में उसी भगवद्वत्ता को हम डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड ने उसे अपना पिता-गुरु माना और उनके निर्देशों को कल्याणकारी विश्वास कर स्वीकार कर लिया। पर यह केवल बुद्धदेव की ही बात नहीं है, सभी अध्यात्मवेत्ता-ईश्वर प्राप्त महा पुरुषों की वाणी को सारे संसार ने सदा ही इसी भाँति श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किया है। चूँकि भारतवर्ष को ही भगवान् ने सारे भूमंडल का आध्यात्मिक केन्द्र बनाया है, इसीलिये यहाँ ऐसे महापुरुष बहुतायत विशालता एवं पक्षपात हीन प्रेम के कारण ही यह देश, विश्व का गुरु बनता ओर कहलाता रहा। इसका यह सिलसिला भंग नहीं हुआ है और न भविष्य में ही होने की आशंका है। प्रत्येक ईश्वर प्राप्त पुरुषों की वाणी, ईश्वरीय वाणी है, चाहे इसका शाद्धिक नाम कुछ भी क्यों न रखा जाय? पर इनके अनुयायियों ने अपनी अविकसितता के कारण ही सदा इसे परिसीमित और संकीर्ण बना कर विकृत कर दिया है। इसी का नाम ‘मत’, ‘वाद’, ‘सम्प्रदाय’, आदि-आदि हो गया है।

तो बुद्ध की महानता को ठीक ठीक जानने और ग्रहण करने के लिए हमें भी अपने हृदय, मस्तिष्क और शरीर को वैसे ही विशाल, निष्पक्ष और ईश्वरीय भावों से परिपूर्ण करके पुनीत होने की आवश्यकता है।


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