विडम्बना (Kavita)

April 1956

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( श्री गुलाब )

तुमसे बँधा प्रकाश मृत्यु से जीवन, जड़ता ने गति बाँधी। बंधा इस तरह मैं, भू-नभ के बीचों बीचबंधे ज्यों आँधी। सागर के दोनों कूलों पर मैंने नाव टिकानी चाही— दो दुनिया हैं, मेरे दो हाथों में दोनों आधी आधी ॥

अन्धकार लहरों के तट पर, मैं प्रकाश में ढंका अकेला। मेरे चारों ओर लगा है चञ्चल छायाओं का मेला। मैं इनका हो सका न पर जिनका खुद उनने हंसी उड़ाई— देख दूर से छोड़ न पाते मुझे रत्नमय सागर बेला ॥

मैंने कहा कि स्वप्न मिला है और सत्य भी मुझे न भाया। मैं अम्बर का हो न सका धरती के हित हो गया पराया। मयख्वारों दुनियाँदारों दोनों ने दूर हटाया मुझको — कहा एक ने ढोंगी पागल, समझ दूसरा कुछ मुस्काया॥

कहा जीवितों ने मृत मुझको मृत्यु साँस से डर कर भागी। काया लादे हुए प्रेत-सा फिरा चतुर्दिक् मैं गृह-त्यागी। खड़ी दो युगों के सन्धि-स्थल पर ज्यों किसी महाकवि की कृति। मैं जागा तब दुनिया सोयी, मैं सोया तब दुनिया जागी॥


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