हिन्दू संस्कृति का लक्ष्य

April 1956

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

आप हिन्दू है और उस भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुजारी हैं, जिसका वाह्य-पक्ष इतने महत्त्व का नहीं है, जितना आंतरिक पक्ष, कारण भारतीय सभ्यता का मूलाधार आध्यात्मिकता है। संसार की अन्य संस्कृतियाँ वाह्य प्रदर्शन, थोथी टीपटाप, भौतिकवाद राजनैतिक बुद्धिमत्ता तथा कूटनीतिज्ञता में विश्वास करती है; किन्तु हिंदू संस्कृति सरल, शुचि जीवन, निष्पृहता और अहिंसा में विश्वास करती है। हिंदू संस्कृति की गहरी नींव आध्यात्मिकता, त्याग, तपस्या, सत्य और मानव मात्र के कल्याण पर रखी गई हैं।

हम देखते हैं कि पाश्चात्य संस्कृतियाँ जीवन की विलासमय आवश्यकताएँ बढ़ाकर वाह्य रूप से मानव जीवन को अवश्य परिष्कृत कर रही हैं, आराम और भौतिक सुखों में वृद्धि हुई है; किन्तु उनसे मानवता का कल्याण नहीं हुआ है। उन्होंने निरन्तर एक के पश्चात दूसरे युद्ध और संघर्ष के बीज बोये हैं। एक युद्ध निपटने नहीं पाता, दूसरे के प्रारम्भ होने के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। भयंकर तनातनी, गुप्त मंत्रणाएँ गर्हित गुटबन्दियाँ और राष्ट्रों के पारस्परिक संघर्ष चलते रहते हैं। आज यूरोप में जो दूषित वातावरण फैला हुआ है, वह यूरोपीय भौतिक आदर्शों के फलस्वरूप ही हैं। रूस में भी सभ्यता का ऊपरी पहलू निखरा हुआ दीखता है, मानव अपना जीवन सुख से व्यतीत करते हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में उनके हृदय में तनिक भी शान्ति, संतोष अथवा चैन नहीं है।

संस्कृतियों का वाह्य-पक्ष इतने महत्त्व का नहीं होता, जितना आन्तरिक पक्ष। जिस जाति की संस्कृति का आन्तरिक पक्ष मजबूत है, उस जाति में बल, वीर्य, तेज, उत्साह दीर्घकाल तक बना रहता है। जिस प्रकार मानव शरीर यदि किसी शरीर का आन्तरिक पक्ष-हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े इत्यादि बलवान हैं, रक्त स्वच्छ होने का कार्य ठीक चलता है, तो शरीर भी दर्द होता है। इसी प्रकार यदि संस्कृति का आन्तरिक पक्ष सुरक्षित है, तो बाह्य-पक्ष सबल बना रहता है। वस्तुतः आन्तरिक पक्ष की विशेष महत्ता है।

हिन्दू संस्कृति का आन्तरिक पक्ष दृढ़ आधारशिलाओं पर रखा गया है। हिन्दू का लक्ष्य मानव-समाज की साँसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए चरम आध्यात्मिक सुख प्रभु से तादात्म्य प्राप्त करना और अन्ततः उसी में अपने आपको विलीन कर देना है। एक सच्चा हिन्दू जीवन के प्रथम भाग में पूर्ण नैतिक जीवन व्यतीत करते हुए ब्रह्मचर्य-धर्म का पालन करता है। उसे सत्य, न्याय, प्रेम, अहिंसा शौर्य बल इत्यादि सब प्रकार की विभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं, जिनसे वह अपना जीवन सहर्ष पूर्ण कर सकता है। विद्या प्राप्ति एवं जीवन की नींव मजबूत करने के लिए ब्रह्मचर्य-आश्रम की योजना प्रशस्त है। जीवन के द्वितीय भाग में वह गृहस्थ-धर्म का पालन करता है। आत्मोन्नति के लिए गृहस्थ-धर्म का पालन करता है। आत्मोन्नति के लिए गृहस्थ-धर्म एक प्राकृतिक, स्वाभाविक, आवश्यक एवं सर्वसुलभ-योग है। परिवार में वृद्धि होने से हिन्दू युवक के आत्मा-भाव की सीमा में विस्तार होता है—एक से दो, दो से तीन, और चार आत्माओं में आत्मीयता बढ़ती है। क्रमशः मर्यादा बढ़ने से मनुष्य के स्वार्थ पर अँकुश लगता है, वह आत्म संयम सीखता है और स्त्री-पुत्र सम्बन्धी परिजनों में आत्मीयता बढ़ती रहती है। वह क्रमशः आत्मोन्नति की ओर बढ़ता चला जाता है। हमारा गृहस्थ-धर्म एक छोटी सी पाठशाला है, जिससे नागरिक की आत्मा विकसित होकर पूर्णता की ओर पहुँचती है। तृतीय अवस्था में आत्म-भाव पूर्ण विकसित हो जाता है। चौथी—अवस्था में वह लौकिक सेवा त्यागकर भगवत् तत्त्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। संयम, त्याग, ब्रह्मविद्या द्वारा वह पूर्ण नैतिक जीवन बनाकर चिरविश्रान्ति प्राप्त करता है। इस प्रकार हिन्दू संस्कृति मनुष्य का पूर्ण नैतिक जीवन निर्माण करती है।

हिन्दू-संस्कृति का आन्तरिक पक्ष मूल रूप से निम्न तत्त्वों पर आधारित है—

शरीर की अपेक्षा आत्मा का अधिक महत्त्व है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आपको शरीर नहीं, आत्मा माना करें और आत्मा के महान् गुणों के अनुसार उच्च आचरण करे।

“अह” भाव का त्याग करे, अर्थात् अपने आपको स्वार्थ के क्षुद्र दायरे में ने बाँधे वरन् कर्तव्यनिष्ठा के साथ-साथ समाज-सेवा और हित के लिए प्रयत्न करें। हमारे सब कार्य निष्काम, निःस्वार्थ भावना से हों और वे परमेश्वर को अर्पण किए जायं।

प्रत्येक हिन्दू अपने दैनिक जीवन और सामाजिक व्यवहार में सदाचार के कार्य ले, सद्गुणों का प्रकाश करें, अपने चरित्र के उच्च उदाहरण द्वारा दूसरों को वैसा ही उच्च जीवन व्यतीत करने के लिए उत्साहित करें।

अर्थ, धर्म, काम मोक्ष आदि का जीवन में उचित रीति से समन्वय किया जाय, जिससे मानव जीवन की सर्वांगीण उन्नति हो सके।

आत्मा अमर है। संसार में केवल शरीर परिवर्तन मात्र चला करता है। इस अमरत्व की भावना से सभी को उत्साहित करें।

मनुष्य से उच्चतर एक परम सत्ता—ईश्वरत्व में हमारा अखण्ड विश्वास हो।

हिन्दू संस्कृति का अन्तिम आधार है, प्रकृति के साथ सीधा संपर्क। प्रारम्भिक तथा अन्तिम जीवन में हिन्दू प्रकृति के साथ सीधा संपर्क रखने में विश्वास करता है। प्रकृति के साहचर्य से उसका अन्तःकरण पवित्र रहता है। हमारे यहाँ चारों धाम की यात्रा का महत्व इसीलिए हैं कि हम प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में खूब टहलें, पवित्र वातावरण में निवास करें और पूर्ण स्वस्थ रहें।

प्रकृति के साथ सीधा संपर्क-इसका आशय विस्तृत है। खान-पान, विहार इत्यादि में सदा-सर्वदा प्रकृति के निकट रहना, भौतिकवाद के माया-मोह से दूर रहना, उच्च आध्यात्मिक विचारों तथा शुद्ध चिंतन में तन्मय रहना—ये सब हमारी संस्कृति के अभिन्न अंश हैं। हिन्दू संस्कृति में वृक्ष-पूजन तथा वृक्षारोपण का बड़ा महत्व है। वृक्ष पर, और पशु घास वृक्ष आदि पर आधारित हैं। अतः हमारी संस्कृति में वृक्षों की देख−रेख, जलदार आदि का महत्व है। तुलसी, अशोक, शमी, पीपल, नीम, गूलर, आँवला आदि उपयोगी वृक्ष बड़ी श्रद्धा से पूजे जाते हैं। गौ सेवा और प्रतीक पूजा भी इसी के अंग हैं। कुछ महा नदियाँ, जैसे गंग, यमुना, नर्मदा, गोदावरी इत्यादि का भी बड़ा महत्त्व हैं। हिन्दू संस्कृति में श्री गंगाजी को विशेष आदर प्रदान किया गया है। विष्णु पदी, जाह्नवी। भागीरथी, त्रिपथगा, स्वर्गंगा आदि विभिन्न आदर सूचक नाम देकर गंगाजी की महिमा का वर्णन किया गया है। गंगाजी का उद्गम स्थान मानसरोवर माना गया है। हमारी धार्मिक यात्राओं का एक महत्त्व यह भी है कि वे हमें प्रकृति से साहचर्य बनाये रखने में सहायता करती हैं। यात्रीगण पैदल पर्वतों के स्वच्छ वायु में घूमते, नाना रासायनिक लवणों से युक्त सरिताओं में स्नान करते, वन पर्वतों की प्राकृतिक सुषमा का रसास्वादन करते हुये जब हिन्दू यात्री आगे बढ़ते हैं, तब उन्हें स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के साथ साथ आन्तरिक पवित्रता भी मिलती है। वे ठंडे बर्फीले जलों में स्नान करते हैं, इससे उनके शरीरों में स्फूर्ति रहती है, भूख खुलकर लगती है, नाना रोग विशेषतः चर्म रोग दूर हो जाते हैं और शरीर, मन, आत्मा तृप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि बुद्धि और विचार शीलता में हिन्दू सभी देशों से ऊँचे हैं। हमारे सब देवता भिन्न-भिन्न शक्ति यों, सिद्धियों और पुरुषार्थों के प्रतीक हैं। हम किसी भी देवता की पूजा क्यों न करें, चारों धामों के अर्थात् उत्तर दक्षिण, पूर्व, पश्चिम समस्त भारत के चौरासी तीर्थों के जल से इष्ट देवता का अभिषेक कराये बिना हमारा अभिषेक पूर्ण नहीं होता।

योरोप तथा अमेरिका की सभ्यता एवं संस्कृति बड़े बड़े शहरों, गगनचुंबी अट्टालिकाओं, आमोद-प्रमोद की गन्दी सामग्रियों में प्रकट होती हैं; किन्तु हिन्दू संस्कृति भौतिक आवश्यकताओं की तृप्ति के साधन मात्र को कोई महत्व नहीं देती। हिन्दू संस्कृति तो प्रकृति के अंचल में फलित पुष्पित हुई हैं। इस में त्याग को महत्व दिया गया है। देवी सम्पदाओं में हम विश्वास करते हैं। हिन्दू मानता है कि उसका आत्मिक पक्ष जितना शुद्ध एवं विकसित रहेगा, उतने ही अच्छे कर्म होंगे और उसका उतना ही उच्च जीवन भी होगा। त्याग, संयम, ईश्वर में विश्वास, सन्तोष इत्यादि हिन्दू की रग-रग में समाया हुआ होता है। ऋषि, मुनियों के आश्रमों में संयम और त्याग के चिन्तन में हमारी संस्कृति का जन्म हुआ है। यही कारण है कि आत्मदर्शन हमारा चरम लक्ष्य है।

निष्कर्ष यह है कि हिन्दू संस्कृति मनुष्य के आन्तरिक पक्षों के विकास से प्रारम्भ होती हैं। जब हमारी चेतना का विकास नैतिक वातावरण में होता है, तब हमारी विवेक बुद्धि सत् तत्व की ओर अधिक झुकी रहती है। विवेक बुद्धि के सामयिक विकास से ही एक सच्चे हिन्दू में आत्मदर्शन की शक्ति का अभ्युदय होता है। अपने आन्तरिक पक्ष की दृढ़ता के कारण ही हिन्दू संस्कृति संसार की अन्य संस्कृतियों से श्रेष्ठ है।


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