जिसको ब्रह्मज्ञान हुआ हो, वह जीवनमुक्त है। वह ठीक समझता है कि—आत्मा अलहदा है और देह अलहदा। भगवान् का दर्शन (आत्म-ज्ञान) होने पर देहात्मबुद्धि-देह में अहंभाव नहीं रहता। जैसे नारियल का जल सूख जाने से भीतरी गिरी और गुठली अलहदा पृथक् हो जाती है; वैसे ही विषय आदि में अहंभाव चले जाने पर आत्मज्ञान होता है। तब आत्मा अलहदा और देह अलहदा का बोध होता है।
जो माँ इस भाँति कहती हो (कि आत्मोन्नति के लिए प्रयत्न मत करो) वह माँ, माँ नहीं है। वह अविद्यारूपिणी है। जो ईश्वर लाभ के मार्ग में विघ्न डालती हो, ऐसी माँ की बात न सुनने से कोई भी दोष नहीं है। ईश्वर के लिए गुरु जनों के वाक्य का जप करने में कोई दोष नहीं होता। भरत ने रामचंद्र के लिए कैकेयी की बात नहीं सुनी। गोपियों ने कृष्ण के दर्शन करने के लिए अपने पतियों का अटकाव नहीं माना। प्रह्लाद ने ईश्वर के लिए अपने बाप की बातें नहीं सुनी। बलि राजा ने भगवान् की प्रीति के लिए गुरु शुक्राचार्य की बातें नहीं मानी। विभीषण ने राम को पाने के लिए बड़े भाई रावण की बात नहीं मानी थी। किन्तु इस बात को छोड़कर कि-”भगवान् की ओर मत जाओ,” और उनकी सब बातें अवश्य सुननी चाहिए।
गम्भीर ध्यान में बाह्य ज्ञान शून्य होता है। एक व्याध ने चिड़िया मारने के लिए ऐसी टकटकी बाँध रक्खी थी कि-कोई बारात कहीं से जा रही थी, साथ ही कितने लोग, कितने बाजे गाजे, कितनी सवारियाँ और कितने ही घोड़े भी थे, कितने देर तक अपने ही पास होकर वे चले गये, किन्तु व्याध को कोई होश नहीं; वह नहीं जान सका कि-उसके पास होकर एक बारात चली गई।