प्रभु-भक्ति का वैदिक स्वरूप

April 1956

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(आचार्य श्री भद्रसेन जी, अजमेर)

आत्मिक शान्ति और पूर्णानन्द को प्राप्त करने के लिये यह जीव मानव देह में अवतरित हुआ है। यही इसके जीवन का चरम लक्ष्य है। इसीलिये ही यह जीव सुख और शान्ति का खोजी बनकर उसकी प्राप्ति के लिये दर-ब-दर भटकता और ठोकरें खाता फिरता है। इसके जीवन का सारा क्रियाकलाप, सारी उधेड़बुन केवल जीवन का शान्त और सुखमय बनाने के लिये ही है। किन्तु इस जीवन संग्राम में इतनी खटपट और उधेड़बुन करने पर भी जीव उस सच्चे सुख और शान्ति से वञ्चित ही रहता है जिसकी कि उसे अभिलाषा है। इतना ही नहीं, प्रत्युत कभी-कभी तो वह जीवन में सुख और शान्ति के स्थान पर अत्यन्त क्लेश, दुःख और अशान्ति का ही अनुभव करता है। संसार के नाना-प्रकार के सुखप्रद विषयों और वैभवों को भोग करता हुआ भी वह उनमें उस शान्ति और आनन्द का अनुभव नहीं करता, जिसकी उसे चिर अभिलाषा है। ऐसा क्यों? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि जिन भौतिक पदार्थों में परमानन्द और परम शान्ति का अभिलाषी बन भटक रहा है, वे पदार्थ स्वयं सुख और शान्ति से रहित हैं। कोसों दूर हैं। भला जिस के पास जो वस्तु है ही नहीं वे दूसरे को क्या दे सकेगा? जो स्वयं भूख व प्यास से तड़प रहा है, वह हमें कैसे स्वादु भोजन तथा मधुर जल का पान करा सकेगा और हमारी भूख और प्यास शान्त कर सकेगा? इसीलिये आत्मा जब इन भौतिक पदार्थों में भटक कर निराश हो जाती है, उसे अपने अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होती। इतना ही नहीं प्रत्युत वह विश्व के विविध विषय-भोग और आमोद-प्रमोद, सुख और शान्ति के स्थान पर उल्टा उसके दुःख और अशान्ति का कारण बन जाते हैं। तो वह निराश हो जाता है। उसकी आत्मा संतप्त और व्याकुल हो उठता है, उसे चारों ओर विषय वासनाओं की जलती हुई प्रचण्ड ज्वालाएँ व्याकुल और अशान्त बना देती हैं। उस समय उसे सुख और शान्ति के परम धाम प्रभु का ध्यान आता है। और वह पश्चात्ताप करता हुआ वेद के शब्दों में प्रभु से पुकार उठता है।

सं मा तपन्त्यमितः सपत्नीरिव पर्शवः।

ऋग्वेद 1 18528॥

हे दीनबन्धु! हे अधमोद्धारक पतित पावन प्रभो, अब तो मुझे ये तृष्णाएँ, ये विश्व की क्षणिक कामनाएँ और विषयों की विषभरी वासनाएँ सपत्नियों के समान सन्तप्त और व्याकुल कर रही है। भगवन्! अब मैं सब ओर से निराश होकर और तेरा भक्त बनकर तेरे द्वार पर आया हूँ। हे दीनबन्धो! क्या इस दीन की पुकार न सुनोगे? क्या अपने इस भक्त को विश्व की क्षणिक वासनाओं और तृष्णाओं से हटाकर अपनी प्रेममयी पावन गोद में नहीं लोगे? उस समय ऋषि दयानन्द के शब्दों में प्रभु उस अति व्याकुल भक्त की करुण पुकार को सुनते हैं, और उसे अपनी सर्व-शक्तिमयी गोद में लेते हैं। प्रभु अपने शरणागत उपासक को निज शरण में ले लेते हैं।

वास्तव में योगीजनों के शब्दों में इस अविद्या आदि पञ्च क्लेशों से संतप्त और परिणाम, ताप, संस्कार आदि दुःखों से दुखी जीव के लिये एकमात्र वह, सच्चिदानन्द प्रभु ही सच्ची शान्ति और परम सुख का सहारा है। इसीलिये वेद कहता है—

न त्वदृते अमृता भादयन्ते।

“हे आनन्दकन्द, सच्चिदानन्द, प्रभो! तेरी शरणागति के बिना तेरा यह अभुत पुत्र पूर्णानन्द को प्राप्त नहीं कर सकते।”

वास्तव में जो मनुष्य अपने जीवन को कदाचारों और कुत्सित संस्कारों से हटाकर उस प्रभु की शरण में आ जाता है, दूसरे शब्दों में वह अपनी अधमावस्था पर पश्चात्ताप करता हुआ उसका परित्याग कर सत्पुरुष अर्थात् सन्मार्गगामी बन जाता है, भगवान अवश्य उसके ऊपर सब प्रकार के सुखों की वर्षा करते हैं। इसीलिये वेद कहता है—

“त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सतामसि।”

—ऋग्वेद 2/1/3॥

हे परमज्योतिर्मय प्रभो! तुम ही तो सत्पुरुषों के लिये अपने अनन्य भक्तों के लिये इन्द्र और वृषभ बन कर उसके ऊपर समग्र ऐश्वर्यों और सकल सुखों की वर्षा करने वाले हो।

‘मा ते भयं जरितारम्’ । अ॰ 1।186।4॥

तेरे प्रेमी भक्त को भय, चिन्ता और दुःख कहाँ? वेद के उपर्युक्त वचनों से सिद्ध होता है कि एकमात्र प्रभु भक्ति ही इस भव-बन्धन में पड़े जीव को सुख, शान्ति और परमानन्द प्रदान करने वाली है।

बिना ईश्वर आराधना के आत्मा को परमशान्ति और परमानन्द की उपलब्धि होना बहुत कठिन ही नहीं, अपितु नितान्त असम्भव है।

अब उस प्रभु भक्ति का क्या स्वरूप है, थोड़ा इस पर विचार करना चाहिये। भक्ति में तीन बातों को जान लेना परमावश्यक है, हम किस की भक्ति करें, कैसे बनकर करें, और क्यों करें? बिना इन तीनों बातों के जाने जो जन भक्ति मार्ग पर चलने लगते हैं, वे सदा अपने चरम लक्ष्य से वंचित ही रहते हैं, उन्हें निज अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होती। अतः भक्ति मार्ग के पथिक को उपर्युक्त तीनों बातों का जाना लेना परमावश्यक है।

भक्ति का पहला कर्त्तव्य है कि वह यह विचार करे कि जिसको वह अपना आराध्यदेव बनाने चलता है, जिस सुन्दर स्वरूप को वह अपने हृदय-मन्दिर में बैठाना चाहता है उसका क्या स्वरूप है? उसकी उपासना करने पर मुझे अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति होगी या नहीं? भक्त कैसे आराध्यदेव की आराधना करें? इस सम्बन्ध में अथर्ववेद में एक सुन्दर मंत्र आता है-

तमुष्टुहि यो अन्तः सिन्धुः सूनुः। सत्यस्य युवानभद्रोघवाच सुशेवम्॥

—अथर्व वेद 6।1।1।।

वेद कहता है —हे भक्त ! यदि तू सच्ची शान्ति और परमा आनन्द को प्राप्त करना चाहता है तो [ तम् +उ+स्तुहि ]उस ही प्रभु की उपासना कर [यः अन्तः सिन्धुः ] जो इस संसार में रम रहा है (सत्यस्य+सूनुः) जो सदा सत्य की ओर ही प्रेरणा करता है [ युवानाम् ] जो सर्वदा युवा अर्थात् एक रस रहता है, (सुवेशम्) जो सारे बलों, सुखों और आनन्द का भण्डार है ( अद्रोघवाचम्। जिसकी वाणी में किसी के प्रति असत्य, द्रोह और विश्वासघात नहीं है।

भक्त सोचता है मैं अपने प्रभु को कैसे मिलूँ। मेरा वह प्रियतम मुझे कहाँ मिलेगा, और नानाप्रकार की तृष्णाओं और आसुरी वासनाओं रूपी तरंगों से तरंगित काम, क्रोध, राग, मोह, ईर्ष्या आदि जल-जन्तुओं से पूर्ण इस भव सागर में मेरा कौन सहारा है? इन दोनों आशंकाओं का समाधान वेद एक ही शब्द में करता है (तमु+स्तुहि+यो+अन्तः सिन्धुः) भक्त तू उस प्रेम की स्तुतिः कर जो सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है। उस आराध्यदेव की आराधना करने के लिये तुझे अन्यत्र कहीं भटकना नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह तेरा अन्तर्यामी तो तेरे रोम-रोम में रम रहा है। फिर तुझे इधर उधर जाने और भटकने की क्या आवश्यकता और इसमें भी कुछ सन्देह नहीं कि यह संसार एक अथाह सागर है, और यह जीव अपनी दुर्वासनाओं और निर्बलताओं के वशीभूत होकर अहर्निश इसमें गोते खा रहा है। परन्तु यह भी ध्रुव सत्य है कि जो भक्त उस करुणामय प्रभु का आश्रय ले लेता है, उसकी प्रेममयी गोद में बैठ जाता है और उसकी शरण में आज जाता है, वह इस भव-सिन्धु से तर कर पार हो जाता है

प्रभु प्राप्ति का लक्ष्य केवल जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से छुटकारा पाना ही नहीं, प्रत्युत उससे छूटकर उस परमानन्द और परम् शान्ति को प्राप्त करना है, जिसकी खोज में जीव जन्म-जन्मान्तरों से भटक रहा है। अतः भक्त सोच सकता है कि प्रभु की उपासना से मैं जन्म-मरण के बन्धन से तो छूट जाऊँगा किन्तु मेरा अन्तिम लक्ष्य तो परमानन्द की प्राप्ति है। क्या प्रभु-भक्ति द्वारा इसकी भी मुझे प्राप्ति होगी या नहीं? वेद भक्त के इस संदेह को भी दूर करता है, हे प्रिय भक्त ! तू इस सन्देह को भी अपने हृदय-पटल से दूर कर दे, क्योंकि तेरे आराध्यदेव भगवान् तो “सुशेवः” हैं। सारे सुखों के भंडार हैं। परम शान्ति और पूर्णानन्द के धाम हैं। फिर यह कैसे सम्भव हो सकता है कि उस शान्ति और आनंद के परम निकेतन को प्राप्त कर लेने पर तू आनन्द से वंचित रह जाय। सच्चा ईश्वरभक्त उस परम कल्याणमय प्रभु की उपासना द्वारा उसमें तल्लीन हो जाता है और इतना तल्लीन हो जाता है कि अपने को भूलकर भेद के शब्दों में स्वयं कह उठता है:—

यदग्ने स्यामंह त्वं, वाधास्या अहम्। स्युष्टे सत्या इहाशिषः ॥ ऋ॰ 8।44।23॥

हे प्राणधन! अब तो मैं आपकी भवभय हारिणी पावन भक्ति द्वारा तुझमें इतना लवलीन हो गया, इतना तन्मय हो गया कि —मैं तू बन गया और तू मैं हो गया। अब मुझे पता लगा कि अपने अनन्य भक्तों के प्रति तेरे कृपा कटाक्ष और आशीर्वाद कितने अटल ध्रुव और सत्य हैं।

वेद जहाँ भक्त के आराध्य देव भगवान् के सत्य, शिव और सुन्दर स्वरूप को यथार्थ रूप में हमारे सम्मुख रखता है, वहाँ भक्त के स्वरूप और कर्त्तव्यों का भी बड़ा सुन्दर वर्णन करता है। वेद का कथन है कि जो भक्त प्रभु को प्राप्त करना चाहता है, सर्वप्रथम उसके हृदय में प्रभु-भक्ति की तीव्र लगन होनी चाहिए, उत्कट अभिलाषा होनी चाहिए। प्रभु प्रेम के प्रति उसे अपना सब कुछ अर्पण कर देना चाहिए।

प्रभु प्राप्ति के प्रति इतनी तीव्र लगन, इतनी उत्कृष्ट अभिलाषा तभी उत्पन्न होती है, जब भक्त संसार के क्षणिक विषय भोगों को छोड़ कर शुभ कर्मों द्वारा अपने हृदय को शुद्ध पवित्र और निर्मल बना लेता है। दूसरे शब्दों में अपने पुण्य कर्मों को उस यज्ञ रूपी प्रभु की हवि बना कर अपने जीवन को हविष्मान् अर्थात् यज्ञमय बना लेता है। इसीलिये वेद में प्रभु-प्राप्ति की तीव्र आकाँक्षा रखने वाले भक्त -भगवान् से प्रार्थना करते हैं:—

व्यमिन्द्र! त्वायवो हविष्मन्तो जरामहे। उत त्वमस्ययुर्भव ॥ ऋ॰ 3।41।7॥

हे इन्द्र! हम तेरे उपासक हविष्मान् बनकर, अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर तेरी साधना करें, जिससे कि तू हमारा और हम तेरे बन जायं। अतः जो भक्त प्रभु को अपना बनाना चाहता है; उसे वेद के कथनानुसार अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर प्रभु का बन जाना होगा। वेद न तो प्रभु का नाम ही “यज्ञसाध” रखा है, अर्थात् साधना यज्ञ द्वारा ही हो सकती है। वेद कहता है:—

तभील्ठत प्रथमं यज्ञसाधम्॥ ऋ॰ 1/96/3॥

हे प्रभु प्राप्ति के अभिलाषी जनो! याद रखो वह मंगल मय प्रभु “यज्ञसाध” है। अतः यदि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो तो यज्ञ साधना द्वारा ही उसकी स्तुतिः प्रार्थना और उपासना करो।

वह प्रभु “यज्ञसाध” है इसीलिये ही तो वेद ने कहा—

यज्ञेन वर्धत जातवेदसमग्निम्। यजघ्वं हविषा तना गिरा॥

ऋ. 2/8/1॥

हे मनुष्यों! उस वेद ज्ञान के भण्डार परमात्म-ज्योति को यज्ञ द्वारा ही अपने हृदय मन्दिर में प्रकाशित करो और अपने यज्ञमय कर्मों की हवि द्वारा तथा प्रेमरस भरी उदार वाणी द्वारा उसके पवित्र नाम का स्मरण और उसके पवित्र गुणों का कीर्तन करते हुए उस परम ज्योति को प्रतिदिन अपने हृदय-मन्दिर में बढ़ाते चलो।


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