यज्ञों का आध्यात्मिक स्वरूप

April 1956

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्रर वीरसेन जी, इन्दौर)

विश्व में जो प्रवाह चल रहा है वह उत्पत्ति से प्रलय की ओर चल रहा है। इसलिये जन्म का अन्त मृत्यु है, यौवन का अन्त जरा और सुख का अन्त दुःख है। योग दर्शन में “परिणामताप” संस्कार दुःख गुणवृत्ति विरोधाच्च दुःखमेव सर्वे विवेकिनः (साधनपाद,सू. 15 इस सूत्र द्वारा सब सुखों का अन्त दुःख ही बताया है। मेघ से वृष्टि नीचे आती है। नदियाँ नीचे की ओर बहती है। खाया पीया सब नीचे की ही ओर जाता है। इस विनाशात्मक प्रवाह के साथ निर्माणात्मक प्रवाह भी चलता है, जो विनाश से निर्माण की ओर, उत्पत्ति से प्रलय की ओर तथा रात्रि से दिन की ओर है। इन्हीं निर्माणात्मक प्रवाहों या क्रमों का नाम ही यज्ञ हैं। ये यज्ञ इस सृष्टि में परमात्मा द्वारा होते रहते हैं। जल का स्वभाव निम्न स्थान में जाने का है, परन्तु सृष्टि में से सूर्य रूपी होता द्वारा वह ऊर्ध्व हो जाता है। उत्पत्ति से प्रलय तक इस विनाशात्मक प्रवाह के अंतर्गत इस प्रकार के निर्माणात्मक प्रवाह सीमित रूप में पृथक् पृथक् रूप से चलते रहते हैं। इसी प्रकार प्रलयावस्था के पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति तक निर्माणात्मक प्रवाह प्रधानता से चलता है अर्थात् प्रत्येक कार्य का अन्त निर्माणात्मक प्रवाह के अंतर्गत विनाशात्मक प्रवाह भी सीमित एवं पृथक् पृथक् रूप से चलते रहते हैं। यही परमात्मा को यज्ञ है, जो अणु-अणु में पिण्ड-पिण्ड में, मण्डल-मण्डल में और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हो रहे हैं। इस प्रकार अनेक यज्ञों से एक यज्ञ की पूर्णता और एक यज्ञ से अनेक यज्ञों की पूर्णता होती रहती है।

इस यज्ञ का मुख्य अग्रणी, पुरोहित, संचालक देव अग्नि-परमात्मा ही है, क्योंकि उसी से इस विश्व में रूप हैं, दर्शन है और प्रकाश है। तस्यमासा सर्वमिदं विभाति अर्थात् उसी के आलोक से समस्त विश्व आलोकित है। अतएव ऋग्वेद का प्रथम मंत्र एवं शब्द भी उसी प्रधान अग्रणी देव अग्नि की ही स्तुति से प्रारम्भ होता है तथा वेद की सर्वाधिक ऋचायें इसी अग्नि देव की ही स्तुति में हैं। उसी स्तुत्य, वन्दनीय, ज्ञानस्वरूप प्रकाशक अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रभु की उपासना से जीवन पवित्र होता है। आत्मा उन्नति को प्राप्त होती है और अमृतत्व को भी प्राप्त करती है।

भौतिक अग्नि में भी इन गुणों का अनुभव होता है। उसमें निम्नगामी को ऊर्ध्वगामी बनाने का स्वभाव है, क्योंकि वह स्वयं ऊर्ध्व ज्वलनशील है एवं ऊर्ध्वगामी हैं। इसीलिये भौतिक यज्ञों में अग्नि ही प्रधान देवता है। इसी की स्थापना एवं इसी की विधिवत् पूजा, सेवा, विधिवत् प्रयोग-यजन से इस विश्व के कर्म सम्पादित हो रहे हैं। यज्ञ द्वारा अग्नि में द्रव्यों को डालकर ऊर्ध्वगामी बना दिया जाता है अर्थात् उनको पूर्णावस्था में स्थापित कर दिया जाता है। जब यह कार्य सृष्टि के तत्वों तक ही सीमित रहता है या सृष्टि के तत्वों के लिये ही किया जाता है तो ये यज्ञ द्रव्यमय-यज्ञ ही रह जाते हैं और जब इन द्रव्यों के यज्ञ के साथ अपने उन्नयन अर्थात् अपनी उन्नति के लिये कर्म किए जाते हैं, तो उनके साथ हमें अपना संकल्प क्रिया का उद्देश्य एवं अभिप्राय भी खोलना आवश्यक हो जाता है अर्थात् उद्देश्यानुकूल कर्म करना यज्ञ में आवश्यक हो जाता है। उद्देश्य विहीन, असंगत कर्मों का यज्ञों में कोई स्थान नहीं। संगत एवं समुचित यज्ञों के संगत एवं समुचित परिणाम या फल होंगे और असंगत यज्ञों के परिणाम भी असंगत एवं हानिप्रद ही होंगे। इसीलिए महाभारत के डडडड पद के विदुर प्रभाकर अध्याय में विदुर जी धृतराष्ट्र से कहते हैं कि संसार में चार कर्म ऐसे हैं जो अभय करने वाले हैं परन्तु यदि वे असंगत रूप में या विधि हीन किए जावें तो भय-विनाश-उत्पन्न करने वाले हो जाते हैं। इन चार कर्मों में दो कर्म यज्ञ तथा अग्निहोत्र ही हैं। अतः यज्ञों को संगतिपूर्वक करना उन्नति का हेतु है और असंगत रूप में करना अवनति का हेतु है और संगत यज्ञों की ही विधि अनुकूल अर्थात् वेदानुकूल यज्ञ कहा जाता।

प्राचीन समय में शारीरिक, सामाजिक एवं आत्मिक उन्नति के लिये अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे। जिस निमित्त जो यज्ञ होते थे, उनमें उसका चित्रण या रूपक रूप से आभास प्रकट किया जाता था। भौतिक तत्वों में अग्नि देव आयु को विशेष क्रियाशील करके मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं। उसी प्रकार आत्मिक यज्ञों में आत्मारूपी अग्नि प्राणादि शरीरस्थ वायुओं द्वारा स्वर्ग-सुख विशेष का सम्पादक होता है। इसीलिए आर्य जाति में प्राणविद्या जानने का विशेष महत्व है। इसी प्राण विद्या और उसके द्वारा स्वर्ग-सुख विशेष तथा अमृतत्व प्राप्त करने के लिये जो अभ्यास एवं उनका क्रियात्मक प्रदर्शन होता था, वही उस यज्ञ का रूप होता था।

प्राणविद्या के अभ्यासार्थ साधक को सर्व प्रथम यह आवश्यक है कि वह शरीर में नासिका द्वारा निकाले गये एवं ग्रहण किये गये वायु के बारे में ज्ञान प्राप्त करें कि दाहिने और बाँये नासा छिद्रों से जो वायु ग्रहण एवं त्यागी जाती है उनमें बाँये नासाछिद्र की क्रिया इड़ा नाड़ी से और दाहिने नासाछिद्र की क्रिया पिंगला नाड़ी से होती है। इन दोनों नाड़ियों का सम्बन्ध अग्नये एवं सौम्य तत्वों से हैं। इन आग्नेय और सौम्य तत्वों के प्रतिनिधि इस विश्व में सूर्य एवं चन्द्र हैं। अतः इड़ा नाड़ी की चन्द्र संज्ञा हुई और पिंगला की सूर्य संज्ञा हुई। इसी रहस्य को बताने और उसके अभ्यास के लिये दर्श और पौर्णमात्येष्टियों का आयोजन है। जिसने ये इष्टियों नहीं ? यज्ञ का अग्नि को विधिवत् स्थापित रक्षित एवं संबंधित करने के लिये जिससे आगे के यज्ञ सुसम्पादित यथा समय हो सके, इस निमित्त इन यज्ञों का प्रारम्भ में करना आवश्यक है। इसका तात्पर्य यह था कि साधक को सर्व प्रथम प्राणविद्या के आधारभूत सिद्धान्तों को और कर्त्तव्यों को जानना चाहिये और उन पर अभ्यास करना ही चाहिये। इसी सिद्धान्त के प्रतिपादनार्थ, प्रदर्शनार्थ तथा प्रचारार्थ सर्व प्रथम में ही दोनों दर्श एवं पौर्णमास्य इष्टियाँ हैं। यही पिंगला और इड़ा सूर्य एवं चन्द्र होने से विश्व में अग्नि और सोम रूप से तथा उष्ण एवं शीतरूप से सर्वत्र विद्यमान है।

उपरोक्त दोनों यज्ञों द्वारा प्राणविद्या के व्रत के ले लेने पर पशु बन्ध यज्ञ किया जात था। कारण यह है कि प्राणविद्या के अभ्यास मार्ग में बाधक जो शरीर की पाशविक वृत्तियाँ जब तक उनका बन्ध नहीं होगा। साधक का अभ्यास चलेगा ही नहीं यह पशुबन्ध अपनी आसुरी प्रवृत्तियों अर्थात् पंच ज्ञानेन्द्रिय एवं छठे मन इस प्रकार छः पशुओं का बन्धन नहीं होगा तो पशुत्व भाव अर्थात् जब जहाँ आहार या तृष्णा मिली तुरन्त उसे भक्षण कर लिया और फिर उसी का चर्वण अर्थात् चिन्तन किया, इस प्रवृत्ति से प्राणविद्या की उन्नति ब्रह्मवर्चस्काम, ऊध्व रेतस् स्थिति एवं अमृतत्व प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं! इसी विधि का चित्रण पशुबन्ध यज्ञ है।

जब साधक प्राणों की पृथक्-पृथक् स्थिति जान कर एवं उन पर इन्द्रियों के संयम द्वारा आधिपत्य स्थापित कर लेता है तभी वह अग्निष्टोम यज्ञ अर्थात् सूर्य एवं चन्द्र नाड़ी इन दोनों से संयुक्त यज्ञ अग्नि-सोम यज्ञ कर सकेगा। इन्द्रियों के बाह्यरूप से संयम करने के पश्चात साधक को इनकी वासनायें एवं प्रवृत्तियाँ बाधक न बनें अतः उनका पूर्णरूप से बध करना होता था, अग्नि सोम यज्ञ, प्राणापानाहुति यज्ञ है। प्राणापान के समत्व सम्पादन के लिये है, प्राणापान है समत्व में अथवा इड़ा-पिंगला इन दोनों स्वरों के समभाव में चलने पर, सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का संचार होने से और उन्नत स्थिति साधक को प्राप्त होती है, तभी वह सोमयाग और वाजपेय कर पाता है अर्थात् प्राणों में सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग द्वारा ऊर्ध्वगामी करने पर उसके साथ शरीर में बल और ओज को सम्पादन करने वाले वीर्य को प्राणों की ऊष्मा के द्वारा सोम रूप शान्त एवं सूक्ष्म तथा उद्देश्य बनाकर उसको ऊपर उड़ा ले जाना या उनका हरण कर लेना और उसको शरीर के ‘द्य’ स्थान मूधाँ में ले जाकर इस स्थान के देवताओं-इन्द्रियों को उस सोम का पान कराना, बल से सम्पन्न कराना वाजपेय यज्ञ है। बाज का तात्पर्य बल और ओज ही है। इस प्रकार पुनः-पुनः यज्ञ करने से जो शतक्रतु बनकर इन्द्र पद को प्राप्त हो जावे तभी वह स्वयं का राजा हो पाता है। उसी के आधीन सब देव इन्द्रियों हो जाती हैं, क्योंकि वह बार-बार उन्हें तृप्त करता है। यही साधक का राजसूय यज्ञ है। वही अपने शरीररूपी राष्ट्र या विश्व की समृद्धि के लिये अश्वमेध रच पाता है।

इस प्रकार ये आध्यात्मिक-प्राणविद्या—के यज्ञ अपने अलंकार रूप में हैं। इनको समझाने के लिये तथा इनका चित्रण पूर्वक प्रदर्शन करने के लिये कर्मकाण्ड मय यज्ञों को किया जाता है। जिस कर्मकाण्ड के पीछे प्राणविद्या या आध्यात्मिक उन्नति का पाठ नहीं है, वह निष्प्राण, निश्चेष्ट एवं निष्फल यज्ञ है। ऐसा यज्ञ प्राण रहित शरीर के तुल्य है तथा भस्म में आहुति डालने के तुल्य निरर्थक है तथा हेय भी है।

वैदिक श्रोत यज्ञों का आत्मिक उन्नति के लिये यह उत्तम क्रम था, कालान्तर में रूढ़िवाद में पड़ कर ये यज्ञ प्राणविद्या से शून्य हो गये और इन यज्ञों द्वारा उन्नति का क्रम लुप्त हो गया। केवल रूढ़िमय यज्ञों में उद्देश्य को न समझते हुए जो क्रियाकलाप अनुकृति करते हुए किये जाने लगे, वे लक्ष्य से दूर हो गये। साथ ही साथ उनमें अनाचारी लोगों ने तथा तात्पर्यार्थ शून्य, वाह्य शब्दमात्र में ही रमण करने वाले पण्डितों ने अर्थ एवं लक्ष्य को न समझ कर प्रकट रूप में यज्ञ में अश्लील कार्यों, पशुवध, माँसाहार, सुरापान आदि सदृश कर्मों को भी समाविष्ट कर दिया।

वाह्यरुप से प्रचलित किये यज्ञ सब आन्तरिक स्थितियों के परिचायक या रूपक ही होते थे। इन यज्ञों में प्रयुक्त शब्द एवं विनियुक्त कर्म भी गूढार्थ वाचक या विशदार्य युक्त होते थे। सामान्य रूप से इन यज्ञों में कुछ आधार भूत कर्म होते थे। उनमें से कुछ कर्म दक्षिणाग्नि में, कुछ गार्हपत्याग्नि में, कुछ आवहनीयाग्नि में और कुछ उत्तराग्नि में होते थे। आहुति के लिये आज्य-धृत तथा हवि प्रयुक्त होता था। यज्ञशाला में एक स्तम्भ जिसे यूप कहते हैं, गाड़ा जाता था। और उसके साथ यजमान-पत्नी को बांधा जाता था। यजमान को दीक्षा दी जाती थी। उसे व्रत भी करना पड़ता था। उसे पशुओं का बांधना तथा उनका वध भी करना होता था और सोम रसादि पान करना होता था।

यज्ञों में उपरोक्त कर्म आध्यात्मिक उन्नति के चित्रण के लिये ही थे। यजमान की श्रद्धा ही वास्तव में वाह्य यज्ञ में पत्नी रूप से है। ‘पत्युर्नु’ यज्ञ ‘संयोग‘ पाणिनी सूत्र यज्ञ में यजमान के साथ पत्नी होना आवश्यक बताता है। इसके बिना यज्ञ नहीं हो सकता। वास्तव में यही स्थिति है। श्रद्धा का ही रूपक पत्नी रूप से है। इसी आधार पर मनु की श्रद्धा को पत्नी का रूप दिया गया। इसी आधार पर सीता-वनवास काल में राम के अश्वमेध के समय सोने की सीता की प्रतिमा यज्ञ समय में स्थापित करने का कवियों को वर्णन करना पड़ा। तात्पर्य यह है कि जब तक यज्ञ कार्य में श्रद्धा न हो, यजमान यज्ञ करने को उद्यत ही न होगा। बिना पत्नी के यज्ञ सम्भव नहीं, अतः यज्ञ में श्रद्धा की प्रतीक पत्नी की उपस्थिति आवश्यक है। यजमान का लक्ष्य ही यज्ञ का स्तम्भ या यूप रूप में प्रकट किया जाता है। उस यूप से ही यजमान पत्नी को बाँधा जाता है अर्थात् लक्ष्य से श्रद्धा बिल्कुल बन्धी होनी चाहिये जिससे वह श्रद्धा विचलित न हो सके और यज्ञ पूर्ण श्रद्धा से सम्पन्न हो सके।

इन यज्ञों द्वारा शरीर के आन्तरिक स्थानों का चित्रण भी किया जाता था। अनेक कार्यों का चित्रण ही रूपक में संगत प्रकट कर देना यज्ञ की गम्भीर एवं विशद् विचार सरणि का द्योतक है। अतः जब हम यज्ञ में यूप और उससे पत्नी को आबद्ध पाते हैं तो ज्ञात होता है कि इड़ा और पिंगला के विधिवत् होम में मेरुदण्ड का प्रतीक यूप रखा गया है। योगी जन इसी मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी के अधोभाग में वर्तमान कुण्डलिनी शक्ति को 3॥ लपेटे डाले हुए वर्णित करते हैं। इसी का चित्रण पत्नी को रस्सी से आबद्ध करके यज्ञ के यूप से बाँधने का प्रतीत होता है।

व्रत और दीक्षा यज्ञानुष्ठान कार्य में अनुकूलता सम्पादन करने तथा लक्ष्य प्राप्ति निमित्त आहार-विहार, तथा दिनचर्या के नियमों के आचरण निमित्त होते हैं, जो आवश्यक ही हैं।

यज्ञों में पशुवध कार्य का विकृत एवं वीभत्स कर्म यज्ञों से अश्रद्धा कराने वाला हुआ। पशुवध मीमाँसा बहुत उत्तम है यदि उसके वास्तविक लक्ष्य और कर्म को ज्ञात कर अंगीकार किया जावे। परन्तु जब से इनका तात्पर्य केवल भौतिक अर्थ में लिया जाने लगा और लोग इसके आध्यात्मिक तत्व को भूल गये तो प्राणियों का ही वध करने लग गये। वास्तव में यज्ञों में किन्हीं प्राणियों का वध नहीं होता था अपितु पशुओं का वध होता था। जिनमें प्रधान रूप से ‘अज’ है। यज्ञ के आध्यात्मिक चित्र की भूल से अब अज प्राणी बकरे का वध होने लगा। अज प्राणी और अज पशु इन दोनों में भेद है। अज प्राणी तो बकरा है। और पशु रूप से अज का तात्पर्य काम देव से है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, एवं अहंकार रूपी पशु जब तक हमारे में रहेंगे, हम गिरते ही जावेंगे। बड़े से बड़ा सत्पुरुष एवं विद्वान भी इन पाशविक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर पशुवत् विवेक रहित हो जाते हैं। अर्थात् ये प्रवृत्तियाँ मनुष्य को पशु बना देती हैं। अतः इन पशु प्रवृत्तियों का हनन या वध यज्ञ में कराया जाता था। अर्थात् इन वृत्तियों एवं इनके सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कारों और वासनाओं के समूल नष्ट करने की विधि का अभ्यास कराया जाता था। इन उपरोक्त पशुओं के वध से ही स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है, इन मूक प्राणियों के वध से नहीं।

‘अजैर्यष्टय्यम्’ आदि वाक्यों के वास्तविक अर्थ को न समझने से यज्ञ का सौंदर्य एवं महत्व नष्ट हो गया। पुरुष में जो कामवासना की प्रवृत्ति है उसको संयमादि द्वारा नियंत्रित करना ही अज अर्थात् कामदेव का वध या हनन है। इस अज को जितना अधिक मारा जावेगा अर्थात् जो जितना ही अधिक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेगा और सदाचारी रहेगा वह उतना ही अधिक दीर्घजीवी एवं सुखी होगा। इस प्रकार के यज्ञ से मनुष्य देवत्व को प्राप्त होगा और ऐसे सौ यज्ञ करने से वह दवों के राजा इन्द्र पदवी को भी प्राप्त होगा। वही इन्द्र ब्रह्मचर्य रूपी सोमपान करके मद से मस्त, अत्यंत बलिष्ठ एवं सदा युवा बना रहेगा। क्योंकि ‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाध्नत’ के अनुसार वह मृतयुक्षयी हो जावेगा। यही काम मद सब मदों में प्रथम है, अतः इसी का वध प्रधान है तथा अनेक संख्या में हैं।

इसी प्रकार अविपशु का भी वध है। अवि-पशु से अविप्राणी भेड का ग्रहण जब करने लग गये तो इसकी भी हिंसा यज्ञ में होने लगी। वास्तव में अवि का तात्पर्य सूर्य से है। भेड़ के मारने से स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है अपितु अवि अर्थात् सूर्य मार्ग के भेदन से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मोक्ष की कामना चाहने वाले “सूर्य द्वारेण ते विरजा प्रयान्ति” सूर्य द्वारा ही जाते हैं। सूर्यद्वार प्राण का ही द्वार है। इसका भेदन ही अवि का वध है। इस प्रकार सूर्य द्वार और चन्द्र द्वार, अर्चिमार्ग और धूममार्ग, शुक्ल और कृष्णगति, अहः एवं रात्रि, उत्तरायण एवं दक्षिणायन देवयान तथा पितृयान इन मार्गों की संज्ञा है। उपनिषदों में अर्चिमार्ग, उत्तरायण एवं देवयान द्वारा ब्रह्मलोक-मोक्ष की प्राप्ति बताई है। बाल ब्रह्मचारी भीष्म ने अपने प्राणों को उत्तरायण सूर्य होने पर त्यागा था। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उत्तरायण सूर्य होने पर जितने भी व्यक्तियों के प्राण निकलते हैं या मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सब मोक्ष को प्राप्त होते हैं अपितु इसका यही तात्पर्य है कि जो अपने प्राणों को सूर्य नाड़ी द्वारा त्यागता है देवयान गति को प्राप्त होता है। यही प्राणविद्या में उत्तरायण पथ है। यही अर्चिमार्ग है। यही अविभेदन है। यही स्वर्ग-मोक्ष या अमृतत्व पद प्राप्त करता है, न कि भेड़ पशु का वध!

परन्तु जब अध्यात्म विद्या से शून्य मनुष्यों के हाथ में यह कर्मकाण्ड आया, तो वही अविवध से भी प्राणी का ही वध होने लगा। ऐसा कर्मकाण्ड जीवित भी कैसे रह सकता था? अतः वैदिक धर्म के प्रति जनता की अश्रद्धा होना आवश्यक हो गई।

उपरोक्त दोनों प्राणियों के अतिरिक्त यज्ञ में गौ और अश्व के भी वध प्रारम्भ हो गये। माँसाहारियों ने यज्ञों द्वारा माँसाहार का ही प्रचार कर दिया। वे उसके उद्देश्य को ही न समझ सकें। गौ का तात्पर्य वाणी है, वाणी ही कामधेनु है। इसी से संसार के इच्छित कर्म हो रहे हैं। अनुकूल और प्रतिकूल व्यवहार इसी से निष्पन्न हो रहे हैं। वेद में कहा है कि ‘वाचो में विश्वभेषज अर्थात् मेरी वाणी विश्व की औषधि है। औषधि को बनाने के लिये उसे कूटा-पीसा जाता है, तपाया जाता है, भस्म किया जाता है तथा उसमें अनेक रसों का पुट दिया जाता है। एक ही औषधि अनेक रोगों में देने के लिये अनेक रस में से रगड़ी या मारी जाती है। ऐसी दशा में जिसे संसार की महौषधि बनाना हो वह कितनी बार रगड़ी या मारी जायगी? वाणी पर कठोर संयम एवं उसको मृदुभाषी बनाना गौ वध है या गौ मेघ है। तभी जिह्वा में मधुमत्तमा हो सकेगी।

सामवेद के सेतू स्तर साम को ऋषि लोग किसी समय समस्त पृथ्वी पर गाते हुए विचरण करते थे। संसार रूपी सागर को पार करने के 4 सेतु-पुल बताये हैं। जिसने इन सेतुओं पर आरुढ़ होकर भव सागर पार कर लिया बड़े स्वर्ग के द्वार में क्यों न प्रवेश करेगा। वह सुन्दर और मनोहारी साम बताता है कि क्रोध को अक्रोध से अदानशीलता को दानशीलता से, अश्रद्धा को श्रद्धा से और असत्य को सत्य के द्वारा जीतो। ये ही 4 कठिन सेतु हैं। यही गति है। यही अमृत है। यही स्वर्ग है। यही ज्योति है। इस प्रकार इस साम द्वारा भी वेद ने इन्हीं पाशविक प्रवृत्तियों को या जो प्रवृत्तियाँ मनुष्य को मानवता से पतित करती हैं उन्हीं को विजय करने का उपदेश किया है। अतः लक्ष्य प्राप्ति निमित्त ही शब्दार्थ सम्बन्ध चरितार्थ करते हुए कर्म करना चाहिए।

यदि इन अर्थों को त्यागकर गो मेघ से गो पशु का वध करते हैं तो उससे पाप ही नहीं अपितु महापाप होगा और ‘स्वर्ग कामोयजेत’ यह कभी चरितार्थ नहीं होगा और जो ‘जिह्वा में मधुमत्तमा’ के आदर्श पर चलेगा उसे इसी जीवन में स्वर्ग प्राप्ति होगी। समस्त विश्व उसका मित्र ही होगा। उसको भय ही नहीं होगा। भय नहीं तो शारीरिक और मानसिक दुःख भी नहीं। इसी प्रकार राष्ट्र वे अश्व मेघः। अश्व का अर्थ राष्ट्र है। राष्ट्र की प्रजा में से आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करना ही प्रजा में स्वर्ग स्थापित करना है यही अश्वमेध है।

इसी प्रकार सोमरस का भी अलंकार है। वेद में आता है कि ‘अर्थ वे सोमो वृष्णाँ अश्वत्य रेतः’ अर्थात् वर्षणशील सूर्य की ऊष्मा से पृथिवीस्य जल का जो सूक्ष्मरूप होकर अन्तरिक्ष में विचरना है वही सोमबल्ली है। यही सूर्य का रेत है। यही सोमबल्ली का आकशास्थ होना और अदृश्य रहने का तात्पर्य हैं। इसी प्रकार शरीरस्थ प्राणरूपी सूर्य की ऊष्मा से अधोगामी रेत की सूक्ष्म और ऊर्ध्वगामी बना कर उर्ष्वरेता बनना सोमपान है। इस सोमपान के लिए इन्द्र को बुलाना पड़ता है। बिना इन्द्र के सोमपान नहीं हो सकता अर्थात् प्राण रूपी इन्द्र ही इस सोमपान को करके मर्त्य से अमृतत्व को ही प्राप्त करता है। तभी ‘अथ मर्त्योऽमृतो भवति’ सार्थक होता है। आध्यात्मिक यज्ञों में सोमपान का महत्व होने से भौतिक यज्ञों में उसका रूपक औषधियों के रस को ग्रहण करने से लिया गया है। इसके अतिरिक्त यदि यजमान मेधा कामना से या आरोग्य कामना से यज्ञ करे तो उसके अनुकूल रोगादि के अनुसार विधिवत् औषधियों के रस को निष्पन्न कर ग्रहण करने की क्रिया भी इसी रूपक में समाविष्ट हो जाती है।

दक्षिणाग्नि तो देह की जठराग्नि का ही रूपक है। गाद्देपन्याग्नि की स्थापना और उसमें हवि प्रदान हृदयस्थ अग्नि में प्राणदान की आहुति का रुपक है। इन दोनों के द्वारा शरीर रस, रक्त युक्त तथा प्राण से संयुक्त रहता है। आहवनीयाग्नि एवं उत्तराग्नि का सम्बन्ध ज्ञानाग्नि से है जो मूर्धा में है। जिसमें सप्त होता यजन करते हैं। अथवा देव रूपी इन्द्रियाँ अपना अपना व्यापार कर रही हैं, ये ही सप्त ऋषि हैं। इन्हीं तीनों या चारों अग्नियों से जरामर्यसत्र रूपी यज्ञ हो रहा है। इस प्रकार के आध्यात्मिक यज्ञों में आत्मा का परमानन्द स्वरूप परमात्मा में जो बार-बार गोता लगाना है, वही बाह्य यज्ञों में अवभृथ स्नान के रूप में रखा गया है। यज्ञ के अन्त में जो स्नान होता है उसे अवभृथ स्नान कहते हैं क्योंकि परमानन्द प्राप्ति ही अध्यात्म यज्ञों का लाभ होता है। यहीं पर उसकी समाप्ति है। अतः यज्ञाँत को स्नान को यह स्थान प्राप्त हुआ।

इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणविद्या का विवरण इन श्रौतयज्ञों में प्रकट हो रहा है। महर्षि दयानन्दजी ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार लिखा है कि दर्रीष्टि से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ सबको करना चाहिए। इस पर बहुत से विद्वान् चक्कर में पड़े हैं कि राजसूय और अश्वमेध यज्ञ राजा ही करता है, उसे सर्व साधारण प्रजा नहीं करतीं है, तो फिर ये दोनों यज्ञ सब करेंगे? परन्तु वे भूलते हैं और नहीं सोचते कि अपने पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना भी तो राजसूय के अंतर्गत आ जाता है। आप अपने स्वयं के तो राजा बनें। जब आप अपने स्वयं के राजा नहीं तो दूसरों के राजा कैसे बनेंगे? राष्ट्र की प्रत्येक इकाई यदि राजसूय यज्ञ से अपने स्वयं पर आधिपत्य स्थापित करले अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति यदि अपनी इन्द्रियों का दमन कर ले, तो राष्ट्र को पुलिस तथा न्यायालय की आवश्यकता ही नहीं रहे। राजा अश्वपति का राज्य इसी प्रकार की यज्ञीय प्रजा युक्त था, तभी तो उसने कहा-न में स्तेनो जन॥ पदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नाविद्वान्नस्वैरी स्वैरिणी कुतः॥

अर्थात् मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है, न कोई कुत्सित प्रवृत्तियों से धनादि को संचय करके दबाकर रखने वाला है, न कोई मद्यादि का पान करने वाला है, न कोई ऐसा ही व्यक्ति है जो अपठित हो और कोई व्यभिचारी नहीं है। यदि राष्ट्र ऐसा समुन्नत बन आवे तो इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग है। इसी प्रकार का राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया ही ये श्रोत यज्ञ हैं।

अश्वमेध यज्ञ को स्थिति में जब योगी होता है तब यह अपने प्राणरूपी अश्व को शरीरस्थ समस्त नाड़ियों में ध्यान की विजय के लिए भेजता है। शरीर रूपी राष्ट्र की नाड़ियाँ ही प्राणरूपी अश्व के विचरण का क्षेत्र है। इसमें यदि कहीं विकार होगा तो प्राणरूपी अश्व का मार्ग अवरुद्ध हो जायगा अथवा इस राष्ट्र में कहीं भी विकार रूपी शत्रु होगा तो वह प्राणरूपी अश्व का निग्रह कर लेगा या बान्ध लेगा तो अश्वमेध कर्त्ता को उसके निवारणार्थ जो प्रयत्न करने पड़ेंगे वे ही इस निमित्त युद्ध हैं। इस युद्ध में यदि प्राणरूपी अश्व विकार रूपी शत्रुओं द्वारा वशीभूत कर लिया जावे तो अश्वमेध की असफलता है और यदि निर्विघ्न प्राणों का संचार समस्त नाड़ियों में हो जावे या इसके मार्ग में आने वाली बाधायें दूर कर दी जावें अथवा अश्व को पकड़ने वाले का वध कर दिया जावे और अपनी प्राण की ऐसी स्थिति शरीर की नस नाड़ियों की पूर्ण शुद्धि प्राण की पूर्णरूपेण स्व वश में करने से ही होगी। यही प्राणों का अपने बिलकुल वश में करना अश्वमेध—यज्ञ है।

जिस प्रकार बिना नक्शे के भवन नहीं बनता है उसी प्रकार बिना आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के कोई यज्ञ नहीं हो सकता है। अश्वमेध की इस आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का चित्रण लौकिक अश्वमेध यज्ञ में दृष्टिगोचर हो रहा है। अश्वमेध यज्ञ का अश्व छोड़ना और जो उसे पकड़े उससे युद्ध करना प्राणविद्या का ही चित्रण है। जो क्रिया व्यक्ति रूपी राष्ट्र में हैं वे ही साँमप्ट राष्ट्र में है। इसीलिये “राष्ट्र वे अश्वमेध” कहा गया है। आपको भी अपनी इन्द्रियों पर और दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पाना है, तभी आप अपने स्वयं के राजा हो सकते हैं। पुनः राजा बनने पर अपने शरीर रूपी राष्ट्र की समृद्धि के लिए, उसके प्राणों को क्रियाशील एवं बलवान बनाना होगा। अतः राजसूय एवं अश्वमेधादि यज्ञ करना भी प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य हो जाता है।

इस प्रकार दर्शेष्टि से अश्वमेध पर्यन्त श्रौतयज्ञ जो सबको करने के लिए कहे गये हैं, उनकी उपयोगिता प्रकट हो जाती है। उपलब्ध कर्मकाण्ड के स्वरूप को समझने में तथा उसकी उपादेयता के चिन्तन के लिए रूढ़िवाद में ही फँसे रहने से कोई तात्पर्य न निकलेगा। केवल रूढ़िवाद के ही ग्रहण करने से और उन्हीं में फँसे रहने से हम लक्ष्य से दूर हो जावेंगे तथा गुत्थी कभी सुलझ न पावेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118