असफलता के तालिका कारण

April 1956

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(श्री लक्ष्मीचन्द्रजी बृहस्पति)

किसी कार्य के परिणाम को सफलता पूर्वक प्राप्त कर लेना, यद्यपि सदा-सर्वदा मनुष्य के वश की बात नहीं है,फिर भी प्रधान कारण वह स्वयं ही होता है।

एक एम.ए. का विद्यार्थी अपनी परीक्षा में सर्वोच्च आना चाहता है। इसके लिये वह नियमित रूप से अध्यवसाय पूर्वक पुरुषार्थ (अध्ययन) करना जा रहा है। उसी समय उसका साथी आकर इनसे बातें करता है। इनकी तैयारी देख कर उसी विषय की चर्चा चल पड़ती है। उसका साथी कहता है, आगामी वर्ष अमुक प्रतिभाशाली और परिश्रमशील विद्यार्थी ने ऐसा ही किया था पर सर्वोच्च आने की कौन कहे वह असफल ही हो गया। यहीं पर सफलता और असफलता का वीजवपन-या दिशा निर्धारित होती है। यह सुनने के उपरान्त भी यदि उसका उत्साह, आत्म विश्वास अविचलित रहता है, जरा भी नहीं हिलता, उसकी अव्यवसायी परिश्रमशीलता, अविराम गति से चलती रहती है तो समझिये सफलता, उसके लिए सुनिश्चित हो गयी और यदि उक्त कथानक को सुनने के पश्चात् इसे अपनी शक्ति पर-अपनी सफलता प्राप्ति में सन्देह और संशय हो गया तो, उनके लिए प्रायशः असफलता ही आकारित होने लगती है और समय पर पूरे आकार में प्रकट हो पड़ती है।

किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होने पर यदि उसे पाने की अपनी क्रिया-शक्ति पर जरा भी संशय और सन्देह हुआ तो वह इच्छित परिणाम और यह डडडड हैं और परिणाम को नाश करने में सफल न भी हों तो, उसे विकृत अवश्य कर डालते हैं। केवल इस संशय के कारण ही हमारा बहुत सारा परिश्रम और हमारी परिश्रम शक्ति, व्यर्थ हो जाती है। यह संशय, निश्चय ही विनाश की जननी है; असफलता की उत्पादिका है, यह जानकर भी यदि हम इसका परित्याग नहीं कर सकें, तो दूसरा इसका उत्तरदायी कौन बनेगा? तो प्रश्न यह होता है हमारा आत्म विश्वास, हमारी संकल्पशक्ति , हमारा निश्चय बल, हमारा मनोबल सुदृढ़ और निष्कम्प कैसे हो, जबकि संशयों के बादल इससे टकरा-टकरा कर स्वयं ही नष्ट हो जाते हों ओर इसकी शक्ति घटने के पर स्थान और भी शक्ति शाली और प्रभावशालिनी हो जाती हों?

तो हमें खोजना होगा कि हमारे विश्वास को अविचल रखने वाली संकल्प को दृढ़ता देने वाली और उत्साह को निरन्तर प्रज्वलित करने वाली शक्ति का निवास कहाँ है? यदि एकबार हमने उस शक्ति केन्द्र को, अनेकों कठिनाईयाँ झेलकर भी प्राप्त कर लिया, तो फिर हमारे लिये संशय-सन्देह का आक्रमण कभी भयावह सिद्ध न होगा, प्राप्त नहीं कर सकें, निसंशय रूप से जन भी लें तो वह बहुत बड़ा सहायक सिद्ध होगा।

तो क्या वह शक्ति -केन्द्र,हमसे बाहर, कहीं अनन्त दूरी पर, आकाश के किसी सर्वोच्च स्तर पर है,या स्वयं हममें ही उसका निवास है, अन्यत्र और दूर कहीं नहीं?

सच्चा खोजी (अन्वेषक) शीघ्र ही यह जान सकेगा कि वह शक्ति -केन्द्र हममें ही कहीं है, अन्यत्र और दूर आकाश में नहीं।

यह जानने के उपराँत यदि कोई उसे प्राप्त करने के लिये सच्चे भाव से व्याकुल हो उठे तो उन्हें ऋषियों और सन्तों के बताये पथ का अनुसरण करना चाहिए, पर सर्वोत्तम तो उनके चरणों में आश्रित होकर ही उपलब्धि का प्रयत्न करना है।

यदि वैसी तीव्रता नहीं हो तो हम यह जानने वाले लोग अपने आप में स्थित इस शक्ति केन्द्र से प्रार्थना, आह्वान, अभीप्सा आदि के द्वारा शान्त एकाग्र मन से अवश्य ही पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें सदैव सद्मार्ग का ही अनुगमन करना होगा। अपने जानते, किसी बुरी नीयत, बुराई की भावना, अनिष्ट-अमंगल की कामना लेकर हमारा कोई काम नहीं होगा।

जो सदा सत्कर्मों में लगे रहते हैं, बुराई के कामों से जिन्हें अरुचि है, उसके हृदय और मस्तिष्क प्रायः शान्त ही रहेंगे। ऐसी शान्त प्रकृति वाले के अन्तर में यदि कहीं, किसी कारण वश, सन्देह, आशंका, कायरता, भय और अशक्ति का प्रवेश हो भी जाय तो उस भीतर में स्थित होने के लिए कोई मजबूत-शक्ति शाली आधार नहीं मिलेगा। फलतः उसका संघर्ष भी हल्का-फुलका और क्षणस्थायी ही होगा। वह उसकी क्रिया शक्ति और सफलता के विश्वास को संशय और निर्बलता की कालिमा से पोत नहीं सकता। हल्के से अन्धकार तो शीघ्र ही उड़ जाने को बाधित होंगे।

जो मनुष्य दुराचार के पथ पर चलते हैं, वे चाहे बाहर में अपनी कितनी ही अकड़ क्यों न दिखावें, ऊँची डींग मारे शानदार वाणी को प्रयोग में लावें, पर भीतर उनके सदा ही भय से प्रकम्पित, अशान्त निर्बल, आशंका से भरे और चञ्चल होते हैं। उनकी प्रफुल्लता और प्रसन्नता भी दिखावे की होती है। उसमें आनन्द के वास्तविक तत्व नहीं होते। उनके विचार बिखरे से- अस्थिर, कल्पना शक्ति विश्रृंखलित भावनायें धूमिलतायें भरी और बुद्धि भी हानिकर निर्णय करने वाली होती हैं। फलतः अपना लाभ सोचते हुए ही वह अपना विनाश सोचता और कर लेता है। ऐसे व्यक्तियों के कल्याण के लिये एक ही मार्ग है कि वह अपने पापों को सच्चे हृदय से स्वीकार करे-हो सके तो किसी सत्पुरुष सच्चरित्र व्यक्ति के निकट उसे वर्ण न करे, पश्चात्ताप करें, अनुताप पूर्वक उनके सम्मुख पुनः ऐसा नहीं करने के निश्चय की घोषणा करे। ऐसा करने से उसके अन्तर को निर्बल बनाने वाले द्वन्द्व और अशक्ति यों से छुटकारा मिल सकता है और पुनः वह अपने कल्याण की शुद्ध बात सोचकर-उस पर चल कर अपना शुभ निर्माण कर सकता है।

किसी काम को अच्छा और बुरा होने का निर्णय दूसरे का विचार या राय नहीं हो सकती। कभी समाज में भले दीखने वाले कामों के अन्तराल में बहुत ही खोटे भावों की परिपूर्ति की जाती है और कभी समाज की दृष्टि में अच्छा न जँचने वाले कामों में कल्याण के तत्व ही सन्निहित होते हैं। अच्छा काम करने का पुरस्कार अन्तर और बाहर की स्वाभाविक, निर्भीक और परिस्वच्छ प्रसन्नता ही होती हे, जिसे कर्त्ता पुरुष अपने आप में भली भाँति बोध कर सकते हैं। यह स्वच्छ प्रसन्नता स्वयं ही अच्छे, विचारों और कार्यों का जन्म देने वाली उत्पादिका है। ऐसा ख्याल रखने वाले जन अच्छे-बुरे कामों को ठीक-ठीक चयन कर, सत्पथों का ग्रहण और कुपथों का परित्याग कर सकेंगे। यह प्रसन्नता, ऐसी ही सम्भावनाओं की सूचिका है,

एक मनोवैज्ञानिक ने एक प्रत्यक्ष देखी घटना का उल्लेख किया है—

मेरे एक परिचित ने सार्वजनिक सम्पत्ति हड़प ली और उस स्थान से भाग गया। जिस भय ने वह स्थान छोड़ने के लिये विवश किया था, वह आशंकित भय उसे वहाँ भी लगा ही रहा। उसे प्रतीत होता कि पुलिस मेरा पीछा कर रही है। उसका हृदय इस भय से सदा आच्छन्न ही रहता। इस प्रकार कुछ, ही समय में दिल में हौला उठने के कारण वह गिर गया।

यह घटना स्पष्ट करती है कि पाप करने वाले के अन्तर में कभी भी शान्ति का निवास नहीं हो पाता। यह अनुचित क्रिया बारम्बार उसके हृदय को आघात करती ही रहती है।

कुछ भावुक नौजवान,बुरे पथ पर जाते ही, अपने को नष्ट करने वाले विचारों से भी आक्रान्त हो जाते हैं। यदि कही पढ़ लिया या किसी ने बलपूर्वक कह दिया कि कुमार्गगामी एक दिन नपुंसक हो ही जाने हैं तो उनका पाप-प्रकंपित मन,तुरन्त ही इस आशंका का अन्तर में बीज उत्पन्न करता है और एक दिन वे सचमुच ही नपुंसकता का शिकार बन जाते हैं। जो शराबी है, वैश्यागामी और व्यभिचारी हैं, ऐसे जनों के मस्तिष्क और अन्तःकरण प्रायः आशंकाओं का शिकार बनने के लिये तैयार ही होते हैं। उनके निर्बल चित्त,उन विनाशकारी विचारों को शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं और अन्तर में रहे सहे आत्म विश्वास और शक्ति यों को नष्ट कर देते हैं। पुनः अपने उद्धार की आशा उनमें जरा भी नहीं रह जाती।

ऐसे निराश हृदयों के उद्धार का क्या साधन हो सकता हे? सब से प्रथम तो उसे अन्तरतया अपनी भूलों को स्वीकार कर, उसके प्रतिकूल सत् विचार, सद्भाव, सद्वाणी एवं सदाचार का पालन, निष्ठा नियम और सहित करके अपना उद्धार आप ही करना चाहिये। इस भाँति सत्कर्म करते करते अभ्यास वशतः स्वतः उसे उद्धार का पथ मिल जाता है और पुनः अपना सुधार कर वह आत्म निर्माण की शक्ति और सामर्थ्य पा लेता है। उनका विश्वास बढ़ते-बढ़ते,सुदृढ़ होने लगता है, चित्त और मन, शान्ति की छाया में-और गोद में विश्राम करने लगता है।

जब किसी की अपराधी वृत्ति अन्तर में घनीभूत होकर जम जाती है, तो ऐसे व्यक्ति को अपनी अन्तरात्मा का निर्देश उसकी वाणी ,ठीक-ठीक सुनाई ही जानी चाहिए। सब ब्राह्मणों को धोखा देना चाहतें हैं, पर स्वयं ही उस धोखे का शिकार बनता रहता है। सामाजिक लाञ्छना और दण्ड भुगतने के उपरान्त भी उसमें यह चेतना जाग्रत नहीं होती कि हमारे कुविचार हमें चारों ओर से घेरे रहते हैं, हम में अपने को सिद्ध करने के लिये कोई बल नहीं है और हमारे एक-एक कर्म और गति-विधि हमारी अंतःवृत्ति को उद्घाटित करते रहती है। हमारी आशंका और भय से भरी भावना दूसरे के हृदय में जाकर प्रतिफलित होती है। परिणामतः हम दूसरों को भ्रमित करने जाकर स्वयं ही भ्रम से आच्छन्न होते हैं और उसके प्रतिफल भुगतने हैं। ऐसा व्यक्ति बुराई के पथ से अपने को कदाचित ही हटा पाता है।

त्याग हमें बलवान बनाते हैं और भोग, कम जोर। जिनके शरीर के सभी तत्व परिपुष्ट हैं, उनके मन, प्राण भी वैसे ही हैं। भोग से जिस भाँति शरीर क्षीण होते जाता है, उसी भाँति उसके मस्तिष्क और हृदय भी बलहीन और क्षीण होते जाता है। ऐसे हृदयों और मस्तिष्कों में यदि अन्तरात्मा के निर्देश, जो सदा कल्याणकारी ही होते है-यदि कभी पहुँच भी जाते हैं, तो अधिक देर तक टिक नहीं पाते; क्योंकि उन तत्वों को धारण करने की शक्ति उसने गँवा दिया होता है। परिणामतः भोगीजनों के मन और प्राण में वासना और भोग की कुत्सित भावनाओं का राज्य हो जाता है और वे जिधर चाहते हैं, उस व्यक्ति को घसीट ले जाते हैं। भ्रम वश वे भले ही अपने को स्वतन्त्र कह लें पर,वस्तुतः वे गुलाम ही होते हैं। उसके चंगुलों से छुड़ा लेने की शक्ति उनमें नहीं होती। अतः भोग और शक्ति हीनता एक ही वस्तु के दो नाम मात्र है- उसी भाँति भोग-वासनाओं का त्याग ही शक्ति प्राप्त करने का साधन है-अतः वह स्वयं शक्ति ही है।

जिसका भीतर-बाहर निष्पाप है, जो भोगों का त्यागी है, वही वास्तव में सच्चे आनन्द का अनुभव कर सकते हैं, वही ज्ञानी हो सकते हैं, वही शक्ति शाली हे, सुखी है। सारी सफलतायें उनकी होने के लिये विवश है- खिंची हुई हैं।


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