मानव-जीवन का आदर्श—संयम

April 1956

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(एक जैन जिज्ञासु)

मनुष्य और पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों में विवेक का ही प्रधान अन्तर है। वास्तव में विवेक ही मनुष्य की मनुष्यता का माप-दण्ड है। हिताहित व कर्त्तव्य अकर्तव्य का विचार विवेक न करके जब जो चाहे करे, कहे, खाये तो वह मनुष्य के रूप में पशु ही है। विवेक पूर्वक प्रवृत्ति का नाम ही संयम है। हम अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति की जाँच करें और स्वच्छन्दता पर नियन्त्रण कर सर्वहितकारी तथा परिमित (अनावश्यक को सर्वथा छोड़ कर जो आवश्यक हो, उसका भी आचरण विवेक पूर्वक) आचरण ही संयम है इसके लिए 5 इन्द्रियाँ, 4 कषाय (कलुषित-प्रवृत्तियां, क्रोध, मान माया, लोभ ) शरीर, मन व आत्मा पर नियन्त्रण होना आवश्यक है। भारतीय आध्यात्मिक साधना में इस पर बड़ा जोर दिया गया हैं। क्योंकि असंयत व विवेक रहित स्वच्छंद जीवन ही मनुष्य के पतन का एक मात्र कारण है।

मनुष्य प्रति पल कुछ न कुछ प्रवृत्ति तो करता ही रहता है। नेत्रों से सुन्दर असुन्दर पदार्थ देखना, कानों से भली-बुरी बातें सुनना, नाक से सुगन्ध-दुर्गन्ध ग्रहण करना, रसना से विविध खाद्यों का रस अनुभव करना, त्वचा से कोमल, कठोर, गर्म, शीतल आदि विविध अनुभूति करना, मन से शुभाशुभ बाते सोचना आदि प्रवृत्तियाँ निरन्तर होती ही रहती हैं। इनमें बहुत सी अनावश्यक एवं अहितकर भी होती हैं। आत्मा की शक्ति इन सब प्रवृत्तियों में व्याप्त और बिखरी हुई रहती हैं। इस बिखरी हुई शक्ति का एकीकरण ही संयमाचरण का प्रधान उद्देश्य होता है। बिजली की शक्ति अनेक बल्बों में बिखरने पर साधारण प्रकाश-रूप लगती है पर वही संचित होने पर अद्भुत कार्य कर दिखलाती है। इसी तरह बिखरी हुई शक्ति का संग्रह व एकीकरण किया जाय तो आत्मा में अतुल शक्ति विकसित होती है, जो योग-सूत्र में वर्णित है। योग सूत्र विभूति पाद में लिखा गया है कि अमुक प्रवृत्ति के संयम से अमुक शक्ति विशेष उत्पन्न होती है। योग का उद्देश्य ही चित्त-वृत्तियों का निरोध है। इन्द्रिय, शरीर का मन पर आत्मा का नियन्त्रण रहता है तो हमारी प्रवृत्तियाँ बाहर से हटकर अन्तर्मुखी होती हैं। उनके नियन्त्रण-स्वरूप संयम के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति यों की वृद्धि होती है।

योगियों की बात एक किनारे रख के भी सोचते हैं, तो असंयत जीवन से व्यक्ति , समाज, देश, राष्ट्र सभी का अकल्याण है। मन की इच्छाएं तो प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती हैं। यदि स्वच्छन्दता से उन इच्छाओं के अनुरूप ही प्रवृत्ति करते रहें तो पग-पग पर कष्ट ही समझिये। कुछ बातें, जिनके विवेक और संयम से आदर्श जीवन बनता है, दृष्टान्त-स्वरूप विचारणीय हैं।

जीवन के सभी क्षेत्रों में संयम की बड़ी आवश्यकता है। भोजन में भी यदि संयम न रखा जाय तो स्वास्थ्य के विरोधी तत्त्वों के हो जाने से शरीर रोगी हो जायगा। रोग की दशा में यदि संयम का पालन न किया गया और कुपथ्य सेवन हुआ तो मरण निश्चित है। विषय-सुख मधुर लगता है, पर उसमें भी संयम का ध्यान न रखने से नाना प्रकार के कष्टों और अनर्थों का सामना करना पड़ता है। बोल-चाल में यदि संयम न रखा जाय तो कलह और मनोमालिन्य की उत्पत्ति सम्भव है। वाणी के असंयम से बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती और फिर उसका परिणाम तलवार के घाव से भी बढ़कर दारुण देखा-सुना जाता है। वाद्य यन्त्रों के बजाने में भी संयम सर्वथा अपेक्षित है। ताल और स्वर में असंयम आते ही गाने का समस्त आनन्द किरकिरा हो जाता है।

मनुष्य को हर व्यवहार में ‘अति’ से बचना पड़ता है। क्योंकि न्यूनता से काम पूरा नहीं होता और अति से किया कराया बिगड़ जाता है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ कहा गया है। कम और अधिक दोनों के बीच के संतुलित व्यवहार से ही कार्य की सिद्धि होती है। यह यथा-योग्य संतुलित व्यवहार, संयम का ही एक प्रकार है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संयम के बिना जीवन ठीक से चल नहीं सकता-सिद्धि मिल नहीं सकती।

संयम रूपी ब्रेक की आवश्यकता हर काम में अनुभूत होती है। मोटर; रेल, साइकिल आदि में ब्रेक न हो तो महान अनर्थ हो जाय। जीवन में कभी चलने की आवश्यकता होती है तो कभी बीच-बीच में रुकना भी आवश्यक हो जाता है। आवश्यकता के समय आवेश से बचकर रुकना ही संयम है। इससे शक्ति बढ़ती है।

मकान के सब दरवाजे खुले रहते हैं तो इधर-उधर से धूल-धक्कड़ इकट्ठा हो मकान को अशोभनीय बना देते हैं। अतः कचरा करकट प्रवेश न करने पावे, इसके लिए खिड़की व दरवाजे बन्द रखने आवश्यक होते हैं। तद्नुरूप ही विविध प्रवृत्तियों से जो कर्म-रूप कचरा आत्मा में छा रहा हैं, उससे बचने के लिए मन, वचन, काया को जो परा खुला रखा हुआ है, काबू में लाना होगा। अति कर्म के खुले मार्ग को बन्द करना होगा।

जैनागमों में भी संयम को बड़ा ही महत्व दिया गया है। जैन मुनियों का विशेषण जहाँ भी आता है, उन्हें तप और संयम से आत्मा का भावित करने वाला बतलाया गया है। भगवान् महावीर का जीवन साधना, तप और संयम का अपूर्व उदाहरण है। जैन धर्म के अनुसार संसार में जीव के अनादि काल से परिभ्रमण करते रहने का कारण उसके कर्म ही हैं। आत्मा के साथ कर्म का बन्धन मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, मन, वचन, कायारूप भोग्य और प्रमाद से होता है। कर्मों के आने के मार्ग को आश्रव कहा जाता है। कर्म बंध को रोकने को संवर या संयम कहते हैं। पूर्व कर्म का आत्मा से अलग हो जाना निर्जरा कहलाता है और कर्मों से छुटकारा पा जाना ही मुक्ति या मोक्ष कहलाता है। इन चारों तत्वों को ठीक से समझने के लिए सरोवर की उपमा दी जाती है। आत्मा के अनेकों मार्ग होते हैं। इन मार्गों को आश्रव समझिए। आश्रव द्वारा कर्मरूप जलों के आने के मार्ग को रोक देना स्वर कहलाता है। हमें यदि सरोवर को खाली करना है तो सबसे पहले नये आने वाले जल को रोकना पड़ेगा। उसके बाद पहले के आये हुये जल को उलीच कर बाहर निकालना पड़ेगा और धूप, अग्नि की गर्मी से सब सरोवर को सुखाना पड़ेगा। संयम के द्वारा आत्मा में आने वाले नये कर्म रुक जाते हैं। फिर तप और शुभ भावना रूप निर्जरा से क्षय करने से आत्मा का मोक्ष हो जाता है।

संयम सत्रह प्रकार का माना गया है। पाँच इन्द्रियों, मन, वचन, काया, वियोग और चार कषाय पर अंधुश रखना साधक के लिए अत्यावश्यक है। बहिर्मुखता छोड़कर आत्मा में ही निवास करना, स्थिर रहना, रमते रहना संयम है।

निरर्थक प्रवृत्तियों में शक्ति का जो अपव्यय होता है, संयम द्वारा उसके रुकने से ही शक्ति बढ़ती है। उस संचित शक्ति से आत्मा का उत्थान सहज हो जाता है। बिखरी हुई शक्ति किसी भी काम को पूर्ण तथा सफल बनाने में असमर्थ हो जाते हैं। असत् कार्यों में जो शक्ति लगती थी उसके अच्छे कार्यों में लगने से परिणाम शुभ ही होगा।

संयम यथेच्छा प्रवृत्ति करने वालों के लिए कांटों का दुर्गम मार्ग है, पर वैराग्यवान् साधक व्यक्तियों के लिये आगे बढ़ने में वह परम सुगम एवं आवश्यक है। जब मन, वचन, कायारूप बाहर की प्रवृत्तियों से हटकर आत्मा अन्तर्मुखी होती है, तो उसके सारे दुःख सुख-रूप में प्रतीत होने लगते हैं। इसीलिए कहा गया है कि संयमी पुरुष के आगे चक्रवर्ती का सुख भी तुच्छ है, क्योंकि संयम का आनन्द अपरिमित है। बाहरी सुख वास्तव में सुख नहीं, सच्चा सुख तो संयम में है।

साधक के लिये एकान्त का महत्व इसीलिए है कि संसारी आत्मा निमित्त वासी है। भले, बुरे सब प्रकार के संयोग मिलते हैं। मन, वचन, कषायों से प्रभावित हो तद्नुरूप प्रवृत्त हो जाते हैं। अतः निमित्त कारण ही कम मिले तो प्रवृत्ति का कम हो जाना स्वाभाविक है। गुफा, वन जंगल आदि एकान्त स्थानों में चित्तवृत्ति अधिक एकाग्र होती है, क्योंकि यहाँ इन्द्रियों को आकर्षित करने वाले साधन कम होते हैं। मनोबल के बढ़ जाने पर तो जहाँ कहीं भी रहा जाय, वन ही घर है,घर ही वन है। मन अपने हाथ में और वश में है तो कहीं भी जाइये, कैसे भी बुरे संयोग में रहिए, उनका आप पर प्रभाव नहीं पड़ेगा।


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