यज्ञ की वैज्ञानिकता

April 1956

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(स्वर्गीय—श्री डाक्टर मीरीलालजी, डी.एस.सी.)

अग्निहोत्र अवश्य ही एक विज्ञान है, जिसकी आज भौतिकवादी दुनिया-तर्क प्रधान बुद्धिवादी युग में ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या की जरूरत है, जो नर्क संगतता के साथ प्रयोग सिद्ध भी हो।

वैदिककाल में अग्निहोत्र के द्वारा श्रेय और प्रेय, दोनों की प्राप्ति की जाती थी, यही इसका प्रमुख या वास्तविक स्वरूप था, पर पीछे, चलकर स्वार्थी लोगों ने कर्मकाण्ड की आढ़ में इसमें माँस-मदिरा का प्रयोग करके विकृत कर दिया। यज्ञ,धर्म और अध्यात्म के नाम पर वीभत्स हिंसा होते देख कर ही बुद्ध भगवान् को यज्ञ का निषेध करना पड़ा था, सात्विक हिंसा रहित यज्ञ से उन्हें भी विरोध नहीं था। पर, उससे यज्ञ के कल्याणकारी रूप का उद्धार नहीं हो पाया। जब स्वामी दयानन्दजी वैदिक सभ्यता और संस्कृति के पुनरुद्धार के प्रयत्न में यज्ञों के “अहिंसा परमोधर्म” युक्त वैदिक रूप उपस्थित करने में सफल हुए, तभी पुनः सभी धार्मिक वृत्ति वालों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ और पश्चिमीय सभ्यता सम्पन्न निष्पक्ष विद्वानों को भी कहना पड़ा कि अवश्य ही प्राचीन भारत में विज्ञान की महत्वपूर्ण उन्नति हो चुकी थी।

शस्त्रों में हवन करने की विविध रीतियाँ तथा ऋतुओं के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के हवन का विधान वर्णित है। ऋतु-सन्धियों में रोगों की उत्पत्ति होती है:—

“ऋतु सन्धिषु रोगाःजायन्ते”

इन रोगों के निवारण के लिये ही “चातुर्मास्य-यज्ञ” किये जाते हैं। इससे पता लगता है, कि ‘अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता के लिये पाँच क्रमों पर विचार किया जा सकता है।

1) यज्ञकुण्ड की आकृति की भिन्नता का कारण।

2) समिधाओं का चुनाव और उनका विशेष प्रकार से दहन।

3) मन्त्रों का शुद्ध-शुद्ध उच्चारण।

4) अग्निहोत्र का समय-विचार।

5) सामग्री का गुण-विश्लेषण।

1—विभिन्न आकृतियों एवं परिमाणों की वेदियों में, समिधाओं एवं हवन सामग्री संयुक्त जो ताप, और प्रकाश उत्पन्न होते हैं, इससे परिणाम के रूपों में भी विभिन्न परिवर्तन हो जाते हैं। इसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा और प्रयोग सिद्ध किया गया है।

2—काष्ठ (समिधा)के चुनाव के कारण अग्नि के ताप की तीव्रता और गुणों में स्पष्ट ही भेद हो जाता है। उदाहरण के लिये पलाश और कीकर के काष्ठों में ताप और गुण की, मात्रा और विभेद, स्पष्ट किया जा सकता है।

3—मन्त्रों के शुद्ध-शुद्ध एवं संतुलित, नियमित उच्चारण के परिणामों की विभिन्न दिशायें हैं। अग्नि के तापों की तीव्रता को एक निश्चित स्तर पर बनायें रखने के लिये ठीक समय पर ही आहुति देनी पड़ती है, इसके लिये मन्त्रों का ठीक उच्चारण ही माध्यम बनता है।

अक्षरों के अनुक्रम से ठीक-ठीक उच्चरित ध्वनि एक विशेष गति के द्वारा विशिष्ट परिणाम उत्पन्न करती है। ध्वनियों की गति और उसका परिणाम तो भौतिक-विज्ञान द्वारा सिद्ध हो ही चुका है।

मन्त्रों और अर्थों में सन्निहित हमारी भावना और विचार की शक्तियाँ भी आहुतियों के साथ एकीभूत होकर इस जगत में सब यज्ञीय क्रियाओं की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली से काम करती है और कल्याणकारी व्यापक परिणाम उत्पन्न करती है।

4— ऋतु सन्धि तथा दिन-रात की सन्धि यज्ञ करने के लिये सर्वोपयुक्त काल है। सन्धिकाल, संक्रमण काल होता है। इस समय प्रकाश ऋण धन भागों में विभक्त हो जाता है, जो दुष्ट रोग-कीटाणुओं की वृद्धि के लिये बड़ा ही अनुकूल समय होता है और उसकी आक्रामक शक्ति भी इस समय बढ़ जाती है। संख्या और शक्ति बढ़ जाने से ये नीरोग शरीर को भी रोगी बनाने का साहस करने लगते हैं।

5—हवन सामग्री

यह सर्व विदित नियम है कि ताप, पदार्थों में रासायनिक परिवर्तन किया करता है। पदार्थ साधारण घटकों में फट परस्पर मिल कर नयी-नयी रचनाओं को उपस्थित करते हैं। इस प्रकार मूल द्रव्यों के गुण-धर्म भी बदल जाते हैं। द्रव्यों के ज्वलन से नये पदार्थों की उत्पत्ति का यही रहस्य है। भिन्न-भिन्न द्रव्यों के ज्वलन से, भिन्न-भिन्न तापमानों की आवश्यकता होती है।

सामग्री में दो प्रकार के द्रव्य रहा करते हैं। एक वह पदार्थ हैं जो प्रचण्ड से प्रचंड ताप से भी जलते नहीं, यानी उसमें परिवर्तन नहीं होता या उस का प्रभावोत्पादक अंश नष्ट नहीं होता। दूसरा वह द्रव्य है जो उत्तापों से दूसरे नये पदार्थों में बदल जाते हैं और अपना नया गुण-धर्म प्रकट करते हैं।

पदार्थों के रासायनिक गुण-धर्म, उनकी भौतिक अवस्था पर आश्रित है। पदार्थों की स्वाभाविक अवस्था में अनेक पृष्ठ पर रहने वाले मात्रिक घटक, पदार्थों की मात्राओं के परस्पर सम्बन्ध द्वारा रासायनिक प्रभाव उत्पन्न करने की क्रियाओं में भाग लिया करते हैं। पदार्थों की ठोस अवस्था की अपेक्षा सूक्ष्म अवस्था में ये मात्रिक, घटक अत्यधिक संख्या में परस्पर मिलते हे, इसीलिये पदार्थों की वाष्पीय अवस्था में इन घटकों का सम्बन्ध बहुत अधिक बढ़ जाता है।

यदि हम एक धन सेन्टीमीटर को सूक्ष्म कणों में विभक्त करें जिनमें से प्रत्येक कण 1/10000 परिणाम का हो तो उसका क्षेत्रफल छः लाख वर्ग सेन्टीमीटर ही पड़ता हो जाता है, परन्तु एक घन सेन्टीमीटर जल में इतने कण होते हैं, जिनमें प्रत्येक का व्यास 1/108 दस करोड़वाँ भाग सेन्टीमीटर होता है। इसका पृष्ठफल इससे भी अत्यधिक सूक्ष्म परिणाम वाला होता है। इस प्रकार हम उनका पारस्परिक प्रभाव बहुत अधिक बढ़ा सकते हैं। इस भाँति जो पदार्थ अपनी साधारण अवस्था में प्राणवायु से मिल सकने में असमर्थ होते हैं वही अपनी वाष्पीय अवस्था में मिलने के योग्य बन जाते हैं। लोहा, सीसा आदि धातुओं को जब इस प्रकार सूक्ष्मता में परिणत कर वायु में छोड़ दिया जाता है तो बड़ी चमक के साथ जल पड़ते हैं और सुन्दर लाल चिनगारियाँ छूटती हैं। शकर, कोयला आदि जब बड़ी सूक्ष्म अवस्था में वायु से मिलते हैं तो बारूद के समान धड़ाके की आवाज उत्पन्न करते हैं। इस भाँति यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी पदार्थ को सूक्ष्म अवस्था में परिणत कर उसके रासायनिक

गुणों को बहुत अधिक मात्रा में बढ़ाया जा सकता है।

यह ध्यान रखने योग्य है कि सूक्ष्मकणों में वक्रता होती है। यह वक्रता जितनी ही कम होती जाती है,उतना ही उसका रासायनिक प्रभाव बढ़ता जाता है और सूक्ष्मता की परिवृद्धि के संग ही इसकी वक्रता घटती जाती है। ऐसे पदार्थों में जायफल, जावित्री, बड़ी इलायची आदि बड़ी ही उत्तमकोटि और प्रथम श्रेणी की सामग्री है।

हवन सामग्री में जो सुरभित तैल होता है, यह शीघ्र ही ज्वाला को पकड़ लेता है और वाष्पीय रूप में परिणत होकर अत्यधिक विस्तार प्राप्त करता है और तदनुसार उसका प्रभाव भी व्यापक हो जाता है। वाष्प अवस्था में उड्डयनशील उन तैलों के सूक्ष्म कणों का व्यास सेन्टीमीटर के एक लाखवें भाग से 10 करोड़वें भाग तक पाया जाता है। उन हवन सामग्रियों से निकाला हुआ अर्क या तैल उतना प्रभावोत्पादक नहीं होता, जितना अत्यधिक उन्हीं सामग्रियों के हवन करने से होता है। यही यज्ञ या अग्निहोत्र की उपयोगिता और महत्ता है।

अर्क या तैल निकालने पर अवशिष्ट भागों को तो फेंक ही दिया जाता है, पर हवन में तो उसका भी सदुपयोग हो जाता है। उन अवशिष्ट भागों के जलने से जो रासायनिक परिवर्तन होते हैं, वह अत्यन्त ही लाभकारी होते हैं।

हवन सामग्री को जलाने से उसमें अनेक पदार्थ पाये जाते हैं, जैसे कि अल्डीक्लाइड, अमाइन्स, पिलीनोलिक, साइक्लिक, टरपेनिक, श्रेणी के पदार्थ पहचाने जा चुके हैं।

हवन सामग्री में नमकीन पदार्थ नहीं होते, क्योंकि नमक (सोडियम क्लोराइड ) फटकर के क्लोरीन गैस पैदा करता है, जो रोग कीटाणुओं के लिये जैसा हानिकारक है, वैसा ही मनुष्यों के लिये भी है।

हवन में धृत का विशेष परिमाण में उपयोग किया जाता है। इसके दो लाभ हैं प्रथम यह अग्नि को प्रज्वलित करके उसके तापमानों को विविध मात्राओं में परिमित-मर्यादित करता है—यथा 120.0, 200.0, 300.॰ आदि। दूसरा यह(धृत) वाष्प रूप में परिणत होकर सामग्रियों के सूक्ष्मकणों को चारों ओर से घेर लेता हे और उस पर विद्युत शक्ति का ऋणात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है।

हवन का प्रथम लाभ वायु की परिशुद्धि है। अग्नि के उत्ताप से यज्ञ स्थान की वायु गर्म और हलकी होकर ऊपर को उठती है, इससे चारों ओर से शुद्ध वायु अवकाश-रिक्त ता को भरने के लिये खिंची हुई आती है तथा अग्नि के ताप से रोगों के कीटाणु मर जाते हैं।

सूर्य की किरणों में ‘प्रकाशिनीरश्मि’ होती हैं। समुद्र-पृष्ठों पर उन तरंगों की लम्बाई 2960 ए॰ यू॰ होती हैं। प्रत्येक 800 गज की ऊँचाई पर इन रश्मितरंगों की लम्बाई 10 ए॰ यू0 घटती है। 2960 ए0 यू0 से कम लम्बाई की तरंगों वाली रश्मियाँ रोग-कीटाणुओं को नाश करने के लिये विशेष उपयोगी होती हैं। 2950 ए0 यू0 लम्बाई की तरंगों वाली रश्मियाँ, वायु को ऋण-धनात्मक रूप में परिणत कर देती है, इससे वायु में जीवन और स्वास्थ्यप्रद तत्वों की वृद्धि हो जाती है।

सूर्य की किरणों में भिन्न-भिन्न रंगों वाली रश्मियाँ होती हैं और उनकी लम्बाइयाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं तथा रोग-कीटाणुओं पर उसका प्रभाव भी भिन्न-भिन्न होता है। उसका परीक्षण निम्नलिखित रूप में किया गया है।

बहुत से टीन के कनष्टरों का अन्दर से भिन्न 2 रंगों से रंग दिया गया और उसे एक ऐसे कमरे में रखा गया जहाँ असंख्य मच्छड़ों का निवास था। सुर्योदय के समय सभी कनष्टरों का मुख ढक दिया गया। एक-एक करके ढक्कन हटाकर देखने से पता चला कि नारंगी रंग के कनष्टरों में मच्छड़ों की संख्या सबसे कम थी। अग्नि का रंग भी नारंगी ही है, इस से अग्निहोत्रों की उपयोगिता और उसका प्रभाव स्पष्ट हो जाता है।

हवन की अग्नि से उत्पन्न हुई किरणें, भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग-कीटाणुओं पर भिन्न-भिन्न घातक प्रभाव डालती है, इसे भी इसी भाँति सिद्ध किया जा सकेगा।

एक रोगी के कमरे के रोगाणुओं की संख्या प्रथम गिनली गयी और तदुपरान्त उस कमरे को वन्द कर उसमें हवन किया गया। फिर रोग के कीटाणुओं की गिनती की जाने पर उसकी संख्या बहुत ही कम पाई गयी। इससे भी हवन अग्निहोत्र से रोग-कीटाणुओं को नाश करने की शक्ति का स्पष्ट पता लग जाता है।

पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने रोग-कीटाणुओं के नाश करने के लिये दो पदार्थ खोज निकाले हैं। (1) एण्टी सेप्टिक (विष विरोधी) और (2) डिस इवफैकटन्स (छूत के प्रभाव को रोकने वाले) प्रथम श्रेणी के पदार्थ रोग-कीटाणुओं से मनुष्य की रक्षा करते हैं— मारते नहीं। इस श्रेणी में फिनायल, क्रियोजोट, हाइड्रोजन पर ऑक्साइड आदि की गणना की जाती है। दूसरी श्रेणी के पदार्थ रोगाणुओं को सीधे मार देते हैं। कुछ पदार्थों में दोनों गुण उसकी घनता और विरलता की स्थिति के अनुसार पाये जाते हैं। पर इन तत्वों का सही प्रयोग एक कुशल वैज्ञानिक ही कर सकते हैं। साधारण लोग उसकी मात्रा का सही परिमाण नहीं कर सकने के कारण लाभ के स्थान में हानि ही उठा सकते हैं और यह हानि, तीव्र घातक होती है।

हवन गैस, इस दोष से रहित है। कदाचित कुछ विषैला अंश रहे भी तो धृत का वाष्पीय प्रभाव उसे भी नष्ट करके लाभकारी बना देता है। इसमें स्थित क्रियोजोट, एल्डीहाइड, फिनायल और दूसरे उड्डयनशील सुरक्षित पदार्थ वैसा ही लाभ देते हैं। इससे सभी निर्विघ्न रूप से लाभ उठा सकते हैं।

वायु शुद्धि के अतिरिक्त हवन गैस से स्थान, जल आदि अनेकों तत्वों की शुद्धि भी हो जाती है, जिससे पर्जन्य के द्वारा अन्न और औषधियाँ भी निर्मल और परिपुष्ट हो जाती हैं। इससे मानव शरीर, रोगाणु निरोधक और विनाशक अणुओं से भरपूर हो जाता है। फिर उस पर रोगों का आक्रमण हो जाय और कदाचित सफल भी हो जाय तो उसके शरीर में स्थित शक्ति शाली रोग विध्वंसक अणु उसे अधिक समय तक जीवित रहने नहीं देता। उसका शीघ्र ही विनाश कर देता है।

खरगोशों और चूहों पर ये परीक्षण करके हवन गैस की रोग निरोधक और रोग विनाशक शक्तियाँ सिद्ध करली गयी हैं।

परीक्षण के लिये रोग कीटाणुओं का घोल तैयार किया गया है। उसे सबल-स्वस्थ जानवरों के देह में प्रवेश कराने से वह उस रोग से आक्रान्त हो जाता है। उसी को या दूसरे स्वस्थ जानवरों के शरीर में जब उस घोल में हवन गैस मिश्रित कर प्रवेश कराया जाता है, तब वह रोगी नहीं होता। बारम्बार यह प्रयोग सफल सिद्ध हुआ है।

कृषि में भी हवन गैस की लाभदायकता सिद्ध हो चुकी है। मिट्टी में दो तरह के कीटाणु होते हैं एक उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाले तथा दूसरा उसे नष्ट करने वाले। पाश्चात्य विज्ञान ने उर्वरा-शक्ति नष्ट करने वाले कीटाणु को नष्ट करने के लिये जो घातक द्रव्य तैयार किया है, उसे मिट्टी में मिला देने से उर्वरा-शक्ति विनाशक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे पोषक कीटाणुओं की प्रवृद्धि होकर उसकी उर्वरा-शक्ति बढ़ जाती है, पर उसमें दोष यह है कि उसे शीघ्र ही मिट्टी से अलग नहीं करने पर वह उर्वरा-शक्ति वर्द्धक कीटाणुओं का भी विनाश कर डालती है।

हवन गैस को कुछ समय तक मिट्टी पर डालकर देखा गया है कि इससे उसकी उर्वरा-शक्ति बहुत बढ़ जाती है और पोषक अणुओं को बढ़ाने वाले आवश्यक तत्व उसमें भर जाते हैं। इसी तत्वों के कारण यज्ञीय-गैसों से पूरित पर्जन्य-और बादल अन्न और औषधियों को निर्मलता और पुष्टि-प्रदान करते हैं।

आकाश मण्डल में वायु के दो सतह होते हैं। एक तो धरती से छह मील की दूरी तक और दूसरी 625 मील ऊपर की ओर। वर्षा का सम्बन्ध केवल पहली सतह से ही है।

बादलों के निर्माण में निम्न बातें सहायक हैं।

1—वायु में जलकणों की उपस्थिति

2—तापमान

3—वायु का फैलाव

4—धूल कणों की संख्या, उनका अनुपात और आकार

5—धुंए के अणु

बादलों को सात्विक गुणों वाले एवं निर्मल-पुष्ट बनाने में यज्ञ धूम्र के अणुओं का उसमें प्रविष्ट कराना सर्व-श्रेष्ठ है। इसीलिये जिस देश में अधिक अग्निहोत्र और यज्ञ कर्म होते हैं, वहाँ की वृष्टि सत्वगुणों से भरी होने के कारण अन्न और औषधियों में भी वे गुण ओत-प्रोत हो जाते हैं। अन्न का सूक्ष्म अंश ही मन को पुष्ट करता है, अतः यज्ञीय देशों के निवासियों का मन भी सात्विक निर्मलता से अनुप्राणित होता रहता है। वहाँ के निवासियों के जीवन और गति में सात्विक तत्व संचारित होता है।

आज सारे संसार में ही अग्निहोत्र करने की विशेष आवश्यकता है। गत महायुद्ध में भिन्न-भिन्न विषैली गैसों के कारण आकाश, वायु, बादल आदि सभी में वह विष भर रहा है, इसी से सर्वत्र विषैली राजसी-तामसी भावनाओं ने ही, अन्न, वनस्पति सभी प्राणी और मनुष्यों में अपना आधिपत्य जमा रखा है। फलतः सर्वत्र रोग, पीड़ा, अशान्ति और संघर्ष फैला हुआ हैं। इसके निवारण का एक ही हल है। वह है, सभी देशों और स्थानों में शास्त्रीय विधि से किया गया विभिन्न अग्निहोत्र।

अग्निहोत्र से जो वायु मण्डल में घी और हवन सामग्रियों के धुएं के अणु फैलते हैं उसमें निगेटिव चार्ज के विद्युत प्रवेश कर जाते हैं। यह आज के भौतिक विज्ञान द्वारा प्रयोग सिद्ध हो चुका है कि यह निगेटिव चार्ज वाला विद्युत अणु, वायु मण्डलों में से नमी को खींच लेते हैं और धीरे-धीरे इसके आस-पास बादल के खण्ड बन जाते हैं। ये बादल यज्ञीय धूम्र अणुओं से ओत-प्रोत रहते हैं। इसका विषैला अंश विनष्ट हो जाता है। ऐसी वृष्टि से केवल मनुष्य में ही नहीं, सारे प्राणी मात्र, वनस्पति और मिट्टी में भी सात्विक भावों का संचार हो जाता है।

इस भाँति अग्निहोत्र द्वारा देश ही नहीं सम्पूर्ण संसार के व्यक्ति और समाज तथा भावी सन्तति को भी इसके लाभ प्राप्त होते हैं। इस पुण्य कर्म की शृंखला चलते रहने से क्रमशः रज और तम का विषाँश दूर होकर दिनानुदिन सात्विकता बढ़ती ही जाती है और सारा संसार सुख-शाँति का बढ़ता हुआ आनन्द उपलब्ध करता रहता है।

आज गायत्री तपोभूमि (मथुरा) में हो रहा, यह महायज्ञ उसी विश्व कल्याण की प्रारम्भिक भूमिका नींव और बीज है। भूलोक में जिस स्वर्ग को बसाने की हम कल्पना करते हैं, उसी का यह क्रियात्मक स्वरूप है।

हम और आप जो विश्व-शाँति के लिये प्रयत्न करने की बात कहते हैं, वे इस महायज्ञ को सम्पन्न होने और करने में किस भाँति अपना कर्त्तव्य पूरा कर रहे हैं, इसी से उसकी पहचान कर सकते हैं। अभी भी हम उसमें सहयोग करके अपने कर्त्तव्य की त्रुटियों को पूरा कर सकते हैं। स्मरण रहे कि हमारे जीवन में ही नहीं, बल्कि लिखित इतिहास में केवल यही एक अवसर है जबकि ऐसा महान् यज्ञ हो रहा है। अपने जीवन में प्राप्त ऐसे अपूर्व अवसर को कभी हाथ से न गंवाये, वरन् में इसमें यथा शक्ति भाग लेकर पूरा लाभ उठायें।


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