गौ माता की रक्षा होनी ही चाहिए

March 1955

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(राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी) (गौ सेवा संघ, वर्धा द्वितीय वार्षिक सम्मेलन में दिये गये भाषण का साराँश)

गौ सेवा का प्रश्न भारतवर्ष में विशेष महत्व रखता है। हम हिन्दुओं का धर्म गौ रक्षा के साथ साथ घनिष्ठता रखता है, मगर मैं सिर्फ धार्मिक दृष्टि से नहीं सोचता। जब हमारे महर्षियों ने देखा होगा कि गो रक्षा के बिना हमारी प्रगति न हो सकेगी, तभी तो उस प्रश्न को इतना महत्व दिया। आज के वैज्ञानिक युग में भी हिन्दुस्तान में गाय का महत्व उतना ही है, जितना कि पुराने जमाने में था। अगर हम गहराई में जाकर सोचें तो हमें मालूम होगा कि जिस रीति नीति से हम आज तक गौ सेवा का काम करते आये हैं, वह बहुत कुछ हद तक ठीक ही है।

यह तो सभी कहते हैं और सुनते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है। आज भी अस्सी फीसदी भारतीय कृषि पर निर्भर रहते हैं। इतने लोगों को खेती के अलावा और कोई आजीविका का साधन हम देना चाहें तो भी नहीं दे सकते। कल कारखानों के जरिये भले ही एक बड़ी तादाद में लोग अपना भरण पोषण कर लें, लेकिन सारे देश के लिये कल−कारखाने काम न दें सकेंगे। उसके लिए तो कृषि की मदद लेनी ही पड़ेगी। यानी आने वाले जमाने में भी हिन्दुस्तान कृषिप्रधान ही रहेगा, और मैं कहता हूँ कि उसे रहना भी चाहिए। क्योंकि हिन्दुस्तान के कृषिप्रधान रहने से किसी भी दूसरे देश का कोई नुकसान होगा नहीं। आज दुनिया जिस रास्ते पर चल रही है, उस रास्ते पर अगर हम चलें तो उन्हीं की तरह हम भी दुनिया के लिये अभिलाषा रूप साबित हो जायेंगे।

हिन्दुस्तान की आबादी चालीस करोड़ है और यहाँ पशुओं की संख्या बीस करोड़ है। तो भी भारतवर्ष में पशुओं की संख्या अधिक समझी जाती है। दुनिया में और कोई देश ऐसा नहीं है, जहाँ इतनी संख्या हो। इसका कारण यही है कि हिन्दुस्तान खेती के लिये पशुओं पर निर्भर है। अमेरिका आदि देशों में नये तरीकों से खेती होने लगी है। वहाँ हजारों एकड़ जमीन पड़ी थी। इसलिए कलपुर्जों से खेती करना उनके लिए जरूरी हो गया। हमारे यहाँ 30 करोड़ एकड़ जमीन है, जोकि कलों से जोती जाने लायक नहीं समझी जा सकती। यहाँ पहले जितनी आबादी थी, अब वह खाली ही होती जा रही है। फिर हमारे यहाँ की जमीन के बहुत छोटे छोटे टुकड़े हो गये हैं और होते जा रहे हैं। बहुत से खेतों को एकत्र करने पर ही यहाँ ट्रैक्टर चलाया जा सकता है। यह काम आसान नहीं है। लोग नाराज न हों और सबको पूरा बदला मिल जाय इस तरह इन्तजाम होना चाहिए, कि तभी पंचायती खेती हो सकती है। लेकिन अभी तो यह मुश्किल मालूम होता है। हमारे सामने एक ही सवाल रह जाता है कि किसान अपना खेत किस तरह आबाद करे। बहुत सोच विचार करने के बाद यह समझ में आ सकता है कि बैलों के सिवाय यह काम नहीं हो सकता। अगर हम बैलों को रखना चाहते हैं तो गायों को भी हमको रखना ही होगा।

गाय केवल बैल ही नहीं देती, बल्कि वह दूध भी देती है। उसका स्थान कोई दूसरी चीज नहीं ले सकती। दूध से होने वाला लाभ किसी ओर पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता। क्या गाय की संख्या इतनी अधिक है कि उनका पालन हम नहीं कर सकते? दूध की आज हमें इतनी जरूरत है कि उसे देखते हुए आज की गायों की संख्या कम ही कहनी पड़ेगी। गाय के दूध के अभाव में हमारा स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता जा रहा है। इतने बैल हमको चाहिये उतने आज हमारे पास नहीं हैं। जमीन को उर्वरा बनाने के लिए बैल की बहुत आवश्यकता है। जमीन की उपज बैलों के अभाव से कम होती जा रही है। आज पशुओं की संख्या इतनी अधिक होने पर भी हमारे लिये दूध कम ही पड़ता है। इसलिए हम अगर इतनी ही संख्या में दूध की मात्रा बढ़ा सकें तो अच्छा होगा, क्योंकि जब गायें दूध कम देती हैं तब बैल मजबूत नहीं होते, और जब बैल मजबूत नहीं होते, जब उनसे जितना काम मिलना चाहिए, उतना नहीं लिया जा सकता। पशुओं का ह्रास होने के कारण क्या हैं, इसके बारे में भी हमें सोचना चाहिए। हमारी संख्या बढ़ती जा रही है। अर्थशास्त्र का सिद्धान्त यह है कि जो ज्यादा हो, उसे नष्ट कर दो। जैसे यूरोपीय देशों में अगर गेहूँ की फसल ज्यादा होती है तो उसे जला देते हैं ताकि बचे हुए गेहूँ की कीमत कम न हो जाय। हमारे यहाँ के अर्थशास्त्रियों पशुओं के बारे में यही सोचा है। हमारे यहाँ पशुओं की संख्या बढ़ती जा रही है, इसलिए हमारे अर्थशास्त्री कहते हैं कि अधिक पशुओं को मार डालो। जब जब मनुष्य और पशु में मुकाबला होता है तब तब पशु को मारना पड़ता है। मगर इसमें पुरुषार्थ नहीं है, बुद्धिमानी भी नहीं है। पिछली लड़ाई में फौज के लिए बहुत पशुओं की हत्या हुई। अगर हमारे अर्थशास्त्री इसी तरह का प्रयोग करना चाहें तो उससे काम न चलेगा। आज हिन्दुस्तान का किसान बैल खरीद नहीं सकता। अगर खरीदें भी तो उस पर कर्ज का बोझ बढ़ जाता है। एक तरफ तो “अधिक अन्न पैदा करो” का आन्दोलन चालू है, दूसरी तरफ उसके साधन—पशुओं का नाश हो रहा है। बैलों से अगर हम ठीक ढंग से काम लें तो वे अपने खाने लायक पैदा कर सकेंगे। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि हिन्दुस्तान के पशुओं से हिन्दुस्तान को सालाना 1 से 2 हजार करोड़ तक की आमदनी—उनके परिश्रम से —(मजदूरों के हिसाब से) होती है। इसमें दूध, खाद वगैरह का भी दाम जोड़ा गया है। अगर पशुओं के भरण पोषण का उचित प्रबन्ध किया जाय और उनसे ठीक ढंग से काम लिया जाय तो इससे कई गुनी आमदनी हो सकती है। आपने देखा है कि यहाँ की जो देहाती गायें पहले 3 सेर दूध देती थीं, वे बेहतर भोजन देने पर आठ−दस सेर तक दूध दे रही हैं। यानी सिर्फ खाने पीने का इन्तजाम अच्छा होने से उनका दूध बढ़ा। उसके लिए नस्ल बढ़ने की या बाहर से बैल लाने की जरूरत नहीं रही। बैलों को अगर अधिक तगड़ा बना दिया जाय तो उनसे मिलने वाला पारिश्रमिक भी बढ़ जायगा। अगर हम इस विषय का अध्ययन शास्त्रीय रूप से करें और केवल पुस्तकीय ज्ञान पर नहीं, बल्कि अपने अनुभवों पर भरोसा करें तो पशुओं की वृद्धि हमारे लिये भार रूप न होगी। आज पशुओं का जिन्दा रखने के बजाय उन्हें मार डालने में अधिक मुनाफा होता है। इसमें सिर्फ माँस का ही सवाल नहीं है, चमड़े और हड्डी का भी बहुत अधिक मूल्य आता है।

हिन्दू और मुसलमानों में गाय के सवाल पर हमेशा झगड़े होते हैं। लेकिन अगर हम मनुष्य के लाभ हानि के खयाल से ही सोचें तो भी सब समझदार लोग इस सवाल के झगड़े का कारण न बनाकर मेल का साधन बनायेंगे।

युद्ध से पहले धार्मिक कारण से बहुत कम गौवध होता था। माँस के लिए भी बहुत कम गायें मारी जाती थीं। उस वक्त सिर्फ चमड़े के लिये ही गौवध होता था। क्योंकि उस वक्त माँस का कोई विशेष मूल्य नहीं रहता था। गौ के पेट में जो बछड़ा रहता है, उसका वध सबसे अधिक मुनाफे का समझा जाता था, और इसलिए गौ से भी उसके पेट के बछड़े की कीमत ज्यादा होती थी। जब मुनाफे का ही विचार प्रधान रहता है, (और ऐसे लोग हमेशा रहेंगे ही।) तब हम इस पर सोचें कि गौवध मुनाफे की चीज कैसे न रहे। इस पर प्रयोग किये जाने चाहिये। अर्थशास्त्रियों की मदद से इसमें हमें सफलता मिल सकती है। हम इस तरह से गौवंश का सुधार करें, जिससे हमें काफी दूध मिले और हमारी गायों और बैलों की रक्षा हो। इसके लिए विदेशों में चलने वाले प्रयोगों से भी लाभ उठाना चाहिए। अगर हम दूध घी के प्रश्न को हल कर लें और गौवंश की रक्षा का भी प्रबन्ध करलें तो हमारी खेती की उन्नति केवल जोत से भी नहीं बल्कि और तरीकों से भी हो सकती है।

खेती, मनुष्य और गौवंश का बहुत निकट का सम्बन्ध है। अगर हम जमीन से सिर्फ लेते ही जायँ तो कुछ ही दिनों में वह कमजोर बन जाती है। उसे अगर हम कुछ वापिस भी करते रहें तो उसका उपजाऊपन कायम रहता है। गौ से हमें खाद मिलती है, जो जमीन के लिये बहुत जरूरी है। वह जमीन की उर्वरता को बहुत बढ़ा देती है। यों देखा जाय तो मालूम होगा कि गाय का हर अंश उपयोगी साबित होता है, मरने पर भी उसके शरीर का उपयोग होता है। हमारे यहाँ की हड्डी ओर तिलहन विदेश में भेजे जाते हैं, इसलिए बहुत सी चीजें जो जमीन को वापिस मिलती हैं, आज नहीं मिल रही हैं। खेत की शक्ति बढ़ने से मनुष्य की शक्ति भी बढ़ जाती है। आज कृत्रिम खाद के बड़े बड़े कारखाने खोलने की योजनाएँ तैयार हो रही हैं। सरकार भी अपनी तरफ से इन कारखानों से तैयार होने वाली खाद को किसानों तक पहुँचाने की भरसक कोशिश करेगी। यह सवाल वैज्ञानिकों का है कि कृत्रिम खाद से जमीन को क्या नुकसान पहुँचता है, इसको लोगों के सामने रखें। गृहस्थ किसानों का तो यह अनुभव है कि कृत्रिम खाद से जमीन जल जाती है। और एक साल के बाद उसका उपजाऊपन घट जाता है। यह चीज नैसर्गिक खाद में नहीं है। या खाद पुराने जमाने से इस्तेमाल होती आयी है। और उससे हमारी जमीन का उपजाऊपन कायम टिका है इस दृष्टि से भी गौपालन होना जरूरी है। हमारे यहाँ जो कचरा है, उसका भी इस्तेमाल ठीक ढंग से कर सकें तो हमारी गरीबी का बहुत हल जरूर निकल सकता है। जिन चीजों से आज हमें कष्ट हो रहे हैं, उनका अगर ठीक ढंग से उपयोग किया जाय तो उन्हीं से हम सुख पैदा कर सकते हैं। गौ पालन में इस बात पर भी विचार होना चाहिये। मैं ऐसे सूबे में रहता हूँ, जहाँ गायें बहुत हैं, लेकिन वहाँ पूजा या बीमारी के अलावा और कभी गाय का घी इस्तेमाल नहीं होता, क्योंकि वहाँ गाय का घी मिलना बहुत मुश्किल ही हैं। इसी कारण मैं गाय के घी का व्रत नहीं ले सका हूँ। पुरुषार्थ तो इसी में है कि गाय का घी मिलने का प्रबन्ध करें, लेकिन हम तो पुरुषार्थहीन रास्ता खोजते हैं। वैसे तो पहले भी हम तेल खाते ही थे, पर अब उसे घी का नाम देकर खाने लगे हैं। इश्तहारों में तो इन वनस्पति घी के गुण बहुत गाये जाते हैं। वे कहाँ तक ठीक हैं, यह तो मैं नहीं जानता। पर आज तो लोग वनस्पति घी खाते हैं, वे कोई खुशी से नहीं, बल्कि मजबूरी से खाते हैं, इतना तो मैं अवश्य जानता हूँ। हमारा ध्यान दूध और घी को बढ़ाने की तरफ जाना चाहिये। उसके लिये गौवंश की उन्नति करना आवश्यक है।


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