(कविराज श्री महेन्द्रनाथ शास्त्री, प्रयाग)
शरीर में एक प्रकार का विष इकट्ठा हो जाता है और वही विष रोग का कारण होता है। शरीर स्थित यह विष शरीर की माँसपेशियों, स्नायुओं, शिराओं, धमनियों, सूक्ष्म कोषों, अस्थियों, लसीकाओं और कोशिकाओं तक में प्रविष्ट कर जाता है। सारे शरीर में स्थित विषों को निकाल कर बाहर कर देना ही पक्का और अचूक इलाज है।
और ढंग से तो शरीर का विष बाहर निकलता ही है पर इसके लिए मालिश भी बहुत आवश्यक और उपयोगी किया है। शरीर को निरोग रखने में मालिश का जितना प्रभाव है, रोग को दूर करने में उससे कम नहीं है। प्राचीन काल से ही लोग मालिश के गुणों से परिचित हैं। हमारे देश में मालिश इतनी प्रचलित हो गई है कि शिशुओं को बिना तेल मालिश के माताएँ सुलाती ही नहीं। प्राचीन काल में मालिश एक दैनिक नियमित कार्य समझा जाता था। जिस प्रकार दाँतों को साफ करना, स्नान करना, व्यायाम करना, शौच जाना आदि दैनिक और आवश्यकीय कार्य हैं, उसी प्रकार मालिश को भी आवश्यक समझा जाता था।
शरीर की स्थिरता और दृढ़ता के इच्छुक पहलवान भी हर सातवें दिन नियमित रूप से मालिश करते हैं। उनके शरीर की मालिश अन्य दिनों भी थोड़ी बहुत होती ही रहती है।
गाँधीजी प्रतिदिन प्रायः एक घंटा मालिश कराते थे। यह मालिश बिलकुल वैज्ञानिक ढंग की होती और मालिश कराते−कराते गाँधीजी खर्राटे भरने लगते थे। जब गाँधीजी उपवास करते थे तब भी मालिश कराते थे। लम्बे उपवासों में भी उनकी मालिश का रहस्य छिपा हुआ था।
मालिश की अनेक विधियाँ हैं—(1) हथेली से रगड़ना, (2) अँगुलियों से दबाना, (3) मुक्की लगाना या थपथपाना, (4) कम्पन। पश्चिमी विशेषज्ञों ने भी चार ही भेद माने हैं—(1) स्कीजिंग, निचोड़ना अँगुलियों से, (2) नीडिंग, दबाना, मुट्ठी बाँधकर, अँगुलियों के बल पर, (3) रोलिंग, लुढ़काना और (4) स्ट्रोकिंग, मुक्की या थपकी देना। इन सभी प्रकार की मालिशों का अपना महत्व है और अंगों की आवश्यकतानुसार इनका उपयोग किया जाता है। ये मालिशें शरीरस्थित विष को सीधे रक्त वाहिनी नसों और शिराओं में पहुँचा देती हैं जो सीधे फेफड़ों में चला जाता है और वहाँ ऑक्सीजन के संयोग से शुद्ध हो जाता है। मालिश के कारण रक्त का परिभ्रमण बढ़ जाता है, क्योंकि रक्त के परिभ्रमण में रुकावट डालने वाले पदार्थ पिघल जाते हैं। रक्त का बहाव बाहरी सतह की ओर होने लगता है। त्वचा के मुँह खुल जाते हैं और उनमें जीवनी शक्ति तथा चैतन्यता आ जाती है। साथ ही शरीर की वैद्युतिक−चुम्बक शक्ति प्रबल और चैतन्य हो उठती है, जो रोग−निवारण और स्वास्थ्यवर्द्धन का मूल कारण है। बाल के समान पतली कोशिकाओं में जो विष इकट्ठा हो जाता है, वह मालिश द्वारा ही वहाँ से हटता है, उसके हट जाने से ही उन रुके हुए स्थानों में पुनः सम्यक् प्रकार से रक्त संचालन होने लगता है, त्वचा की चैतन्यता के कारण त्वचा से भी विष बाहर निकलने लगता है। सभी स्नायुओं का मुख त्वचा में ही निहित है। सामान्य हस्त संचालन, कम्पन और चुटकियों द्वारा उनमें चैतन्यता आती है, उनका विष निकलता है और जीवनीय शक्ति बढ़ने के साथ−साथ वे सजग हो उठती हैं। यदि तेल की मालिश की जाय तो इन स्नायुओं को बल मिलता है और उन्हीं के द्वारा शरीर में तेल प्रविष्ट करके अंगों को पुष्ट और सबल बनाता है।
मालिश कई प्रकार की होती है−(1) सूखी मालिश, (2) खड़िया चूर्ण की मालिश, (3) तेल की मालिश, (4) उबटन की मालिश। इन सबमें आजकल प्रचलित साबुन की मालिश में हानि अधिक और लाभ कम है; परन्तु कहा जाता है कि त्वचा के कीटाणु साबुन से मर जाते हैं और त्वचा के मुँह खुल जाते हैं। स्वस्थ त्वचा द्वारा शरीर से विष निकलने में बड़ी सहायता मिलती है। इसलिए मालिश की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है।
आरोग्यता लाभ करने के लिए व्यायाम की निताँत आवश्यकता है इसमें दो राय नहीं हो सकती। छोटे बच्चे और खाट पर पड़ा हुआ अस्वस्थ प्राणी क्या व्यायाम करे। यह प्रश्न विचारणीय है। इन लोगों के लिए भी मालिश एक अच्छा व्यायाम है। दूसरे प्रकार के व्यायामों में और मालिश में महान् अन्तर यह है कि जो मालिश कराता है उसे तो कुछ नहीं करना पड़ता, परन्तु उसके शरीर की नसों की माँसपेशियों की और स्नायुओं की तथा आँतों की और आमाशय की अच्छी कसरत हो जाती है। साथ ही उस व्यक्ति की भी कसरत पूरी हो जाती है जो मालिश करता है। इस प्रकार मालिश करने वाला और मालिश कराने वाला दोनों ही बराबर लाभ प्राप्त करते हैं।