घृणा नहीं प्रेम कीजिए

March 1955

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(श्री लालजीराम शुक्ल)

आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों से पता चलता है कि हमारी किसी विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति घृणा का प्रमुख कारण हमारे ही अन्दर रहता है। प्रायः देखा जाता है कि जो व्यक्ति जिस प्रकार के लोगों से घृणा करता है, वह स्वयं भी कुछ काल के अनन्तर उन्हीं व्यक्ति यों के घृणित गुणों को अपना लेता है। हम जिस किसी वस्तु अथवा गुण से घृणा करते हैं, उसकी मूल बुराइयाँ हमारे खुद के ही भीतर रहती हैं। हमारी घृणा की मनोवृत्ति इन बुराइयों का एक आरोपण मात्र होती है। इस प्रकार अपनी बुराइयों का दूसरों पर आरोपण करके हम स्वयं अपने आपमें इनकी उपस्थिति की आत्म स्वीकृति से बचना चाहते हैं। हमारा अचेतन मन बड़ा स्वाभिमानी है। वह किसी भी कमजोरी को जल्दी स्वीकार नहीं करना चाहता। इसी आत्म−स्वीकृति की प्रवंचना से मुक्ति पाने के लिये वह अपनी बुराइयों का घृणा की भावना के रूप में दूसरों में आरोपण कर देता है। अत्यधिक आलोचना की प्रवृत्ति स्वयं की हीनता की द्योतक होती है। यह एक प्रकार से आन्तरिक अवगुणों के बाह्यान्तरीकरण का एक विशेष मार्ग हैं, जिसका अनुकरण हमारा आन्तरिक मन प्रायः किया करता है।

घृणा की मनोवृत्ति किसी विशेष विचार को हमारे मस्तिष्क में बैठा देती है। संवेगों के उत्तेजित होने पर कभी कभी यही बाह्य विचार का रूप धारण कर लेते हैं और जितना ही अधिक हम उनको भूलना चाहते हैं, उतने ही वे हमारे मन को जकड़ते जाते हैं और अन्त में मानसिक रोग का रूप धारण कर लेते हैं। हमारा मन अचेतनावस्था में जिस किसी विचार को मस्तिष्क में स्थान दे देता है, वही विचार कुछ समय के पश्चात् हमारी विशेष प्रकार की मनोवृत्तियों में परिणत हो कार्यरूप में प्रदर्शित हो जाता है। मान लीजिए, कोई आदमी एक कोढ़ी को देखता है और उससे उसके हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ता है तो वह उसी के सम्बन्ध में विचार करने लगेगा। ये विचार धीरे धीरे दृढ़तर होते जाते हैं और इन पर ध्यान केन्द्रित न करने की इच्छा रखते हुए भी वह व्यक्ति इनका आना रोकने में अपने आपको असमर्थ पाता है। अगर यही अवस्था काफी दिनों तक रही तो इस बीमारी के चिह्न उसमें भी प्रकट होने लगते हैं और अन्त में वह कोढ़ी बन जाता है। अतएव जब हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखें, जिसके कारण हमारे मन में घृणा की भावना और तत्सम्बन्धी बाह्य विचारों से हम बहुत कुछ अंश में मुक्ति पाने में सफल हो सकेंगे। हमको बहुत सी मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ केवल इसी कारण होती हैं कि हम उनसे स्वभावतः घृणा करते हैं या उनसे डरते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी कुरूप व्यक्ति को सदा घृणा की दृष्टि से देखता है, तो वह प्रत्यक्ष में तो उससे बचने की चेष्टा करता है, किन्तु कभी कभी जब घृणा की भावना बलवती होती है तो वह स्वप्न में ही उस व्यक्ति को देखने लगता है। यह सब इसलिये होता है कि घृणा का भाव एक प्रकार के आत्मनिर्देश से प्रभावित हो हम घृणित गुणों को अपने आप में ही चरितार्थ करने लग जाते हैं।

अगर हम चाहें तो दूसरे लोगों की शक्तियों को निर्लिप्त भाव से देख सकते हैं। इससे हमारे मन पर कोई भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ने पाता, लेकिन जैसे ही हम किसी के दुर्गुणों पर संवेगात्मक रूप से विचार करने लग जाते हैं, हमारे विचार अपना बुरा प्रभाव हमारे मन पर डालना आरम्भ कर देते हैं। साधारणतया किसी व्यक्ति के दुर्गुणों के सम्बन्ध में बार बार सोचने से हमारे विचार संवेगात्मक रूप धारण कर लेते हैं, अतएव इस प्रकार के विचार सदैव हानिकारक होते हैं। इसी सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए संसार के सभी महापुरुषों ने अपराधी को क्षमा करने को उपदेश किया है। अपराधी को क्षमा प्रदान कर हम अपनी घृणा की भावना का सहानुभूति के द्वारा रेचन कर डालते हैं।

घृणा की मनोवृत्ति का मूल कारण हमारे मन में स्थित कोई ग्रन्थि होती है। हमें इस ग्रन्थि को पहचान कर सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। ग्रन्थि के सुलझते ही हमारी घृणा की मनोवृत्ति भी अपने आप नष्ट हो जावेगी। साधारणतः हम अपनी बुराइयों को स्वीकार नहीं करना चाहते, किन्तु आध्यात्मिक नियम के अनुसार हमें एक न एक दिन अपनी बुराइयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। हमारी प्रकृति धीरे−धीरे हमें आत्म−स्वीकृति की ओर ले जाना आरम्भ करती है। पहले हम अपने इन दुर्गुणों को दूसरों में देखने लगते हैं और धीरे−धीरे उन्हीं पर विचार करते−करते स्वयं उनके शिकार बन जाते हैं। वास्तव में दुर्गुण कहीं बाहर से नहीं आते। वे तो पहले से ही हमारे भीतर मौजूद रहते हैं। हमीं उनकी उपस्थिति स्वीकार नहीं करते, अतएव प्रकृति टेढ़े−मेढ़े रास्ते से उनकी आत्म−स्वीकृति कराती है। अगर प्रारम्भ में ही हम इन दुर्गुणों को मान लें, तो उनसे छुटकारा पा जायें, किन्तु जब प्रकृति जबरदस्ती इन्हें स्वीकार कराती है, तो वे हमें जकड़ लेते हैं। फिर इनसे छुटकारा पाना उतना सरल नहीं होता।

हमारे विचारों का दूसरे पर उसी समय प्रभाव पड़ता है जबकि उसकी मानसिक स्थिति इन विचारों को ग्रहण करने के योग्य होती है। यही बात हमारे स्वयं के विचारों के सम्बन्ध में भी सत्य है। हमारे मन में अच्छे−बुरे जैसे भी विचार उठते हैं, सबकी पृष्ठभूमि हमारे ही अन्दर होती है। किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में बुरे विचारों का कारण भी हमारे ही अन्दर होता है। वास्तव में अज्ञात रूप से वे दुर्गुण हमीं में उपस्थित रहते है, किन्तु प्रकाशन का उचित मार्ग न पा उनका दमन होने लगता है और समय पाकर वे दूसरों की नुक्ताचीनी की आदत के रूप में फूट पड़ते हैं। यही हाल दूसरों के प्रति हमारे श्रद्धा के भाव का भी है। वास्तव में हमारे मन में ही इन श्रद्धा के योग्य गुणों की पृष्ठभूमि रहती है। हमारा मन भी उन्हीं सद्गुणों को ग्रहण करने की योग्यता रखता है, इसलिये वह इन गुणों का सम्मान करने को हमको प्रेरित करता है। उदारचित्त मनुष्य के विचार सदा उदार हैं। इस प्रकार के मनुष्य दूसरों में सदा भलाई ही देखा करते हैं। उसकी नजर किसी की बुराई पर जल्दी नहीं पड़ती।

हमारे मन पर दूसरों के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ता है। दूसरे हमारे बारे में जैसा सोचते हैं, वैसा ही हमारा चरित्र भी अज्ञात रूप से बनता जाता है। हमारे आस−पास हमसे प्रेम करने वाले व्यक्ति होते हैं तो हममें भी प्रेम की भावना का उदय होना स्वाभाविक है। जब हम किसी व्यक्ति के गुणों अथवा दुर्गुणों पर बार−बार विचार करते हैं तो हमारे विचार उसके लिए निर्देश बन जाते हैं। इन निर्देशों का गहरा प्रभाव उसके ऊपर पड़ता है। उस व्यक्ति में धीरे धीरे वही गुण अथवा बुराइयां स्थान पा लेती हैं। इस प्रकार दोनों प्रकार से घृणा की भावना घातक होती है। यह एक तरफ घृणा करने वाले व्यक्ति के मन और विचारों को खराब करती है और दूसरी ओर घृणित व्यक्ति में उन बुराइयों को और भी दृढ़ कर देती है। अगर हमारी घृणा कल्पित हुई तो भी उस व्यक्ति में कुछ दिनों के बाद वे बुराइयाँ आ ही जाती हैं।


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