आप में भी शक्ति है

March 1955

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(प्रो. मोहन लाल वर्मा, एम.ए.एल.एल.बी)

मनुष्य के पास जो सबसे मूल्यवान यन्त्र हैं, वह उसके शरीर में हृदय एवं मस्तिष्क हैं। इनमें भी मस्तिष्क हृदय की अपेक्षा शक्ति शाली है, क्योंकि वही हृदय की गतिविधि को संचालित करता है। कितने खेद का विषय है कि हम मस्तिष्क के स्वास्थ्य, उचित विचार संयम, भावनाओं के नियन्त्रण का उचित ध्यान नहीं रखते, अपने स्वभाव या बुरी आदतों को मनमानी करने देते हैं, और अपना मानसिक अथवा भावात्मक संतुलन नष्ट कर लेते हैं।

संसार में किसी क्षेत्र को ले लीजिए, वे ही व्यक्ति सफल मिलेंगे जो स्वयं अपने आपको नियंत्रित या संयमित कर सके हैं, अनुचित प्रवाहों से मन को रोककर एकाग्रता पूर्वक एक ही ओर मानसिक शक्ति यों को लगा सके हैं, जिनकी व्यक्तिगत आदतें उत्तम रहीं और शक्तियाँ समुन्नत होती रहीं।

जब आप संसार की विभिन्न वस्तुओं पर अपना आधिपत्य स्थापित करने चलें, तो पहले स्वयं अपने व्यक्ति त्व, अपनी गुप्त शक्ति यों का स्वामित्व स्वीकार कीजिए अर्थात् प्रारम्भ से यह मान लीजिए कि आप असीम शक्तियाँ और पौरुष लेकर पृथ्वी पर जन्मे हैं, समाज में आपका पद प्रतिष्ठा का है, वही आप पाकर रहेंगे।

जब मनुष्य स्वयं अपने क्रोध, भावावेश, उत्तेजना, वासनामय, मनःस्थितियों, आदतों को अपने वश में नहीं कर पाता, तो भला वह क्योंकर अन्य मनुष्यों या भीड़ इत्यादि को वश में कर पायेगा? वह उस वायुयान की भाँति अस्थिर रहेगा, जो तूफान में यत्र तत्र मारा मारा फिरता है। मन की एक तरंग तेजी से आई तो एक ओर बह गया, जब विपरीत मनोभावना हुई तो दूसरी दिशा में प्रवृत्त हो गया। फिर किसी गुप्त वासना ने जोर मारा तो एक नई दिशा ग्रहण कर ली, क्योंकि ऐसे व्यक्ति यों में सब मनः स्थितियों को नियन्त्रित एवं संचालित करने वाली दृढ़ इच्छा और संकल्प शक्ति यों का अभाव होता है।

हमारे देखने में ऐसे अनेक प्रौढ़ व्यक्ति आये हैं, जो बीड़ी पान सिगरेट अथवा शराब अफीम आदि के लिए बच्चों की तरह अधीर हो उठते हैं, पास पैसे न होने से दूसरों से इन क्षुद्र वस्तुओं की भिक्षा माँगते नहीं लज्जित होते। कुछ वासना में इतने अन्धे होते हैं कि उचित अनुचित का भी ध्यान नहीं देते। कुछ जुआ खेलने के बुरी तरह आदी होते हैं। कुछ खान पान, मिठाई चाय आदि के चटोरे स्वाद के गुलाम होते हैं। खाद्य पदार्थों को देखते ही मुग्ध हो जाते हैं। कुछ निद्रा में सर्वाधिक आनन्द लेते और केवल खान पान में मस्त रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी स्वभावगत और व्यक्ति गत दुर्बलताएँ हैं। जो इन आदतों की खराबियों को जान कर भी उन्हीं में लिप्त हैं और दुःख पा रहे हैं, वे सुप्नावस्था में ही समझे जायेंगे। यदि वे अपनी आदतों के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, तो यह उनकी आत्म नियन्त्रण की निर्बलता ही कही जायगी।

आत्म संयम विहीन व्यक्ति उस जलयान के अनुरूप हैं, जो विरोधी वायु के झकोरों से निरन्तर इधर उधर झोंके खाता खाता पथ भ्रष्ट हो जाता है। उसका मार्ग सरल सीधा न होकर बल खाता रहता है। वह गन्तव्य स्थान तक कभी नहीं पहुँच पाता। प्रथम श्रेणी की मानसिक शक्तियाँ पाकर भी अनेक व्यक्ति जहाँ के तहाँ पड़े हैं। आत्म संयम की कमी ही उनकी मूल त्रुटि हैं।

इस न्यूनता से कभी हम तनिक सी दुर्घटना हानि, विरोध से उदास हो जाते हैं, तो तनिक से लाभ अथवा प्रशंसा से फूल कर कुप्पा बन जाते हैं। कोई भी भावना उनकी महत्वाकाँक्षा को अन्धकार में डाल देती है। अपने प्रलोभनों, इच्छाओं, आवश्यकताओं को न रोक सकने के कारण न केवल व्यक्ति यों का वरन् बड़े −बड़े राज्यों का अधःपतन हुआ है; क्रान्तियाँ मच गई हैं। सम्पूर्ण जाति डरी हुई भेड़ बकरियों की भाँति युद्ध अथवा दिवालियेपन में प्रवृत्त हो जाती है। आज के प्रजातन्त्र के युग में किसी राष्ट्र के नागरिकों द्वारा पाये जाने वाले आत्म−संयम के अनुपात में ही सफलता और समृद्धि की आशा करनी चाहिए। यदि उस राष्ट्र के नागरिक वासना की क्षणिक तरंगों से उद्वेलित हो उठते हैं, छोटी−छोटी बातों से डरकर सशंकित हो जाते हैं, तो उसका नाश अवश्यम्भावी है। उसका विस्तार उस राष्ट्र की रक्षा नहीं कर सकेगा।

अंग्रेज जाति को ही लीजिए। आत्म−संयम के कारण ये विदेश में आकर सफल व्यापारी बन सके, धीरे−धीरे सम्पूर्ण राज्य के अधिकारी बन गए, बड़े−बड़े समुद्र पार किए; युद्धों में सफलता लाभ की। यदि ये नई जगह से डरते, भयभीत होकर पुराने संकीर्ण दायरे में बँधे रहते और साहस एवं पौरुष से आगे न बढ़ते, तो अंग्रेज जाति जहाँ की तहाँ पड़ी रहती। अमेरिका ने अपनी शक्ति को बढ़ाकर स्वतन्त्रता प्राप्त की थी और आज भी अपने सहारे विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बना हुआ है। इन देशों में बड़ी−बड़ी सभाएँ होती हैं, सार्वजनिक कार्य होते हैं, तो जनता शान्त हो आत्म−संयम पूर्वक वक्ताओं के भाषण सुनती है। प्रत्येक कार्य क्रम और व्यवस्था से होता है। न भगदड़ है, न छोटे 2 षडयंत्र या क्षुद्र आन्दोलन! साधारण नागरिक अधिक आत्म−संयमी हैं। अपने कार्य में पर्याप्त रुचि लेकर करते हैं। हिंसा जन्य लूटमार कत्ल भी कम हैं; झगड़े बहुत कम हैं, निर्दयता कम है।

प्रत्येक राष्ट्र तथा जाति में सहिष्णुता अपना विशेष स्थान रखती है। उन्नति का एक लक्षण यह है कि हम दूसरे धर्म, वर्ण, देश के व्यक्ति की भावनाओं को कहाँ तक सहन कर सकते हैं। बाह्य देशों में हर जाति और वर्ग के व्यक्ति सहानुभूति, सहिष्णुता और बराबरदारी से रहते तथा अपना−अपना स्थान करते हैं। उनमें धैर्य और आत्म−संयम पूर्वक कार्य करने की अधिक क्षमता है।

प्राचीन युग में भारतीय ऋषि मुनि आत्म−संयम के देदीप्यमान आदर्श थे। हमारा अध्ययन, गुरुकुल−निवास, ब्रह्मचर्य−धारण आदि ऐसे संस्कार थे, जिन्हें प्रारंभ से ही बच्चे के कोमलपन पर धारण करा दिया जाता था। राजपुत्र से लेकर साधारण व्यक्ति के पुत्र तक को गुरुकुल में उन्हीं नैतिक नियमों−सादा जीवन, श्रम और विद्या−अध्ययन का पालन करना पड़ता था।

आत्म−संयम की कला का अध्ययन करने में सर्वप्रथम हमारा ध्यान मस्तिष्क पर जाता है। जो मस्तिष्क अपने नाना कार्यों को योजनाओं में न बाँध सके, एकसूत्रता प्राप्त न कर सके और विभिन्न प्रलोभनों पर नियन्त्रण न कर सके, वह विजय प्राप्ति में सहायक नहीं हो सकता। मस्तिष्क को सुप्तावस्था से जाग्रत करने और सचेत करने की आवश्यकता है। यह संसार से भागने, योगियों जैसा जीवन व्यतीत करने या इन्द्रिय−निग्रह मात्र से प्राप्त नहीं होता। मस्तिष्क का सही दिशा में क्रियाशील बनना हमारी प्रथम आवश्यकता है।

उत्तम मस्तिष्क कौन सा है? जो मस्तिष्क केवल चिन्तन मात्र करता है, वह एकाँगी है, अपूर्ण है। मस्तिष्क नए ज्ञान को ग्रहण करे और फिर नव−निर्माण करे, नई वस्तु नए विचार अथवा योजना प्रदान करे।

मस्तिष्क से कार्य लेने से वह संयमित बनता है। घोड़े को जैसे टहलाने, जोड़ने, जीन कसने से वह ठीक चलने का अभ्यस्त होता है, उसी प्रकार मस्तिष्क कार्य करने से सुचारु रीति से विकसित होता है। निष्क्रियता मस्तिष्क को पंगु कर देती है। नए सृजनात्मक रूप में सोचने−विचारने से, मानसिक शक्तियों के अधिकाधिक प्रयोग से, स्वाध्याय और दूसरों के पढ़े हुए विचारों पर स्वयं स्वतन्त्र चिन्तन से मस्तिष्क की शक्तियाँ बढ़ती हैं।

सच मानिये, इसमें से अधिकाँश व्यक्ति केवल मस्तिष्क से 10 प्रतिशत भाग को ही जाग्रत रख पाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उनके दिमाग का केवल 10 प्रतिशत भाग ही विकसित सक्रिय रहता है। शेष 90 प्रतिशत सुप्तावस्था में ही पड़ा रहता है। वे अपनी गुप्त शक्ति यों का ह्रास कर देते हैं। उन्हें सोये पड़े रहने का रोगी कहना अधिक उपयुक्त होगा। वे स्वयं चलने वाली गाड़ी की तरह बिना सोचे समझे अंधाधुंध बढ़ते रहते हैं। वे एक लीक में पड़े हुए पहिये की तरह हैं। जैसे घड़ी की सुई निरन्तर उसी डायल पर सदा घूमती रहती है, वे भी उसी प्रकार घूमा करते हैं। हो सकता है, ऐसे मानसिक आलसी व्यक्ति ऊँचे पद पर पहुँच जायं, पर हैं वे अर्द्ध सुषुप्त ही।

वे क्या करें? उन्हें अपने मस्तिष्क से काम लेना प्रारम्भ कर देना चाहिए। शैथिल्य छोड़ देना चाहिए। देश और समाज के रंग−मंच पर अभिवीत प्रत्येक दृश्य तथा कार्य के रहस्यों पर विचार करना चाहिए। नई−नई सृजनात्मक विचारों से परिपूर्ण पुस्तकें पढ़नी चाहिए। भाषण सुनने चाहिए। व्यापार में होने वाली नई प्रगति को, बाजार के रुख को समझना चाहिए। स्वयं उसके मन में जो स्वतन्त्र मौलिक विचार आयें, उन पर स्वयं चिन्तन करना चाहिए अर्थात् उन्हें अपने मानसिक संस्थान को कुछ न कुछ नई प्रवृत्ति, नई प्रेरणा, नया रुख देना चाहिए।

आप देखेंगे, कुछ व्यक्ति यकायक सफल हो जाते हैं। क्यों? वे अपनी शक्ति यों, गुप्त सामर्थ्य और पौरुष को पहचान कर उनसे पूरा कार्य लेना प्रारम्भ कर देते हैं। कुछ प्रेरक विचार उनके मन में यह सब आमूल परिवर्तन ला देता है। आप में भी असीम शक्तियाँ सो रही हैं। केवल उन्हें आत्म−संयम से जाग्रत करने भर की देर है।


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