यज्ञ की व्यवस्था अभी अधूरी है।

March 1955

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विशद् गायत्री महायज्ञ गत बसंतपंचमी से बहुत ही सुव्यवस्थित रीति से, शास्त्रोक्त विधि व्यवस्था के अनुसार आरम्भ हो गया है, देश के सुदूर प्राँतों से अनेक गायत्री उपासक आ आकर इसमें भाग ले रहे हैं साधना तपस्या, यज्ञ, सत्संग आदि के पुण्य आयोजनों के कारण आजकल गायत्री तपोभूमि में प्राचीन काल के ऋषि आश्रमों के स्वर्गीय दृश्य दृष्टिगोचर रहते हैं। सब कार्य अपने ढंग से बहुत शान्ति और व्यवस्था पूर्वक चल रहा है। परन्तु एक ही कमी यहाँ सबको खटकती रहती है वह है महायज्ञ की सुरक्षा−संरक्षण व्यवस्था की कमजोरी।

यज्ञों से सतोगुणी एवं दैवी तत्वों की शक्ति बढ़ती है और असुरता नष्ट होती है। आसुरी तत्व सदा यह प्रयत्न कहते हैं कि वे स्वयं तो बढ़ें और देव तत्व परास्त हों। इसलिए अपनी आत्म रक्षा एवं वृद्धि के लिए असुर सदा ही यज्ञों में नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित करते हैं। प्राचीन काल में ऐसे अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। जब असुरों ने ऋषियों की केवल इसीलिए हत्याएँ कीं कि वे यज्ञ करते थे। रामायण में वर्णन है कि रामचन्द्रजी जब वनवास में थे तो उन्होंने असुरों द्वारा मारे हुए ऋषियों की हड्डियों के पहाड़ से जमा देखे जिससे उन्हें बड़ा दुख हुआ। ऋषियों को वास देने, मारने और नाना प्रकार के विघ्न उत्पन्न करने का प्रयत्न असुर लोग इसीलिए करते हैं कि यज्ञादि द्वारा देवताओं की वृद्धि और उनकी जो हानि होती है वह न हो। इन उपद्रवों और आक्रमणों से यज्ञ की रक्षा के लिये ‘दृढ़ पुरुषों’ एवं संरक्षकों की नियुक्ति का शास्त्रों में सविस्तार उल्लेख है। विश्वामित्र सरीखे महान् ऋषि तक इन असुरों के विघ्नों से घबरा गये थे और उन्हें यज्ञ संरक्षण के लिए दशरथ के पुत्र माँग कर लाने पड़े थे।

प्राचीन काल में राजा लोग यज्ञों की रक्षा के लिए नाना अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित सेना नियुक्त करते थे। पर अब वैसी व्यवस्था नहीं है। हमने गायत्री उपासकों एवं धर्म परायण आत्माओं की तपश्चर्या और साधना को ही संरक्षक शक्ति वरण किया है। यज्ञ की रक्षार्थ गायत्री मन्त्र की एक एक माला सत्पुरुषों द्वारा किया जाना ही वह आध्यात्मिक तलवारें हैं, जिनसे आसुरी आक्रमणों एवं विघ्नों का निवारण होने की सम्भावना है। विशद् गायत्री महायज्ञ इस युग का असाधारण यज्ञ है। इतना बड़ा संकल्पित आयोजन चिरकाल से नहीं हुआ। 125 करोड़ जप, 125 लाख हवन, चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र का पारायण यज्ञ, रुद्रयज्ञ, विष्णु यज्ञ, शतचण्डी यज्ञ, महामृत्युञ्जय यज्ञ, गणपति यज्ञ, सरस्वती यज्ञ, अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम आदि अनेक यज्ञों की शृंखला चलाने का आयोजन इस युग का भूतपूर्व संकल्प है। इसके परिणाम भी असाधारण ही होने वाले हैं। इसे सफल न होने देने के लिए असुरता जो कुछ कर सकती होगी उसे करने में किसी प्रकार की कमी न रहने देगी। क्योंकि यह उनकी जीवन रक्षा का प्रश्न है। यज्ञ द्वारा दैवी तत्वों के बढ़ने से असुरता स्वयमेव घटेगी और नष्ट होगी। अपनी हानि और दुर्दशा कोई भी नहीं चाहता फिर असुरता ही क्यों चाहेगी? “मरता सो क्या न करता” वाली कहावत के अनुसार वह जो कुछ भी कर सकती होगी उसे करने में किसी प्रकार की कमी न रहने देगी।

विशद् गायत्री महायज्ञ का संकल्प जिस दिन से हुआ है उसी दिन से एक के बाद एक अनेक प्रकार के आक्रमण हमारे ऊपर हो रहे हैं। कई आक्रमण तो इतने प्रबल हुए हैं कि कोई दूसरा होता तो अब तक विचलित हो गया होता। उनकी विस्तृत चर्चा करके अपने आत्मीय जनों की चिन्ता एवं खिन्नता को नहीं बढ़ाना चाहते पर इतना निश्चित है कि यदि यह प्रहार इसी प्रकार होते रहे तो यज्ञ संचालकों का प्राण भी जा सकता है। इस प्रकार के आक्रमणों से जब विश्वामित्र जैसे ऋषि घबराते थे तो हमारा विचलित हो जाना कुछ भी असंभव नहीं है। कार्य आरम्भ कर दिया है। जिसकी शक्ति प्रेरणा से यह कार्य प्रारम्भ हुआ है उनकी कृपा दृष्टि से नाव पार लगेगी। पर शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार नियत कर्म भी तो करना ही होगा। यज्ञ के अनेक विधि विधानों की भाँति “यज्ञ रक्षार्थ समुचित संरक्षण व्यवस्था करना” भी एक शास्त्रोक्त विधान है। जिस प्रकार अन्य विधि विधानों में त्रुटि रहने से हानि होती है उसी प्रकार यज्ञ संरक्षण की विधि व्यवस्था का न होना भी हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

हम संरक्षण के लिए किसके पास जावें? हमारे स्वजन, प्रेमी और कृपालु धर्म−प्रेमी महानुभाव ही हमसे, हमारे आयोजनों से ममता और आत्मीयता रखते हैं। उन्हीं से यह आशा की जा सकती है कि वे जहाँ यज्ञ में भागीदार बनकर आत्म−कल्याण का पुण्य लाभ कर रहे हैं वहाँ आसुरी आक्रमणों से यज्ञ की असफलता एवं यज्ञ−संचालकों के अनिष्ट की संभावना को बचाने के लिए संरक्षण की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने से भी पीछे न हटेंगे। अब तक की सूचनाओं के अनुसार यज्ञ−संरक्षण के लिए जितनी व्यवस्था की आवश्यकता है, उससे आधा ही प्रबन्ध हो सका है। इस कमी की पूर्ति जितनी जल्दी हो सके, उतना ही अच्छा है। आवश्यकता के समय कार्य की पूर्ति न होने पर पश्चाताप ही हाथ रह जाता है। इसलिए धर्मात्माओं से ही यह प्रार्थना करनी पड़ती है कि इस संरक्षण−व्यवस्था को पूर्ण करने के लिए पूरी तत्परता के साथ लग जायें। संरक्षकों के निम्न कर्त्तव्य रखे गये हैं:—

चैत्र सुदी 9 सं. 2013 तदनुसार तारीख 11 अप्रैल सन् 1956 को यह विशद् महायज्ञ पूर्ण होगा। तब तक एक माला (108 मन्त्र−गायत्री मन्त्र) प्रतिदिन अपनी नियत साधना के अतिरिक्त जप करते रहें और जप के बाद दाहिने हाथ में जल लेकर यह संकल्प करें—“यह जप विशद् गायत्री महायज्ञ की रक्षा के लिए किया गया।” तदुपरान्त जल को पृथ्वी पर छोड़ दें। यह संरक्षण का दैनिक कृत्य है।

यदि किसी दिन यह संरक्षण की एक माला न हो सके तो सप्ताह में जिस दिन अधिक अवकाश हो उस दिन उसकी पूर्ति कर लेनी चाहिए। ऐसा भी हो सकता है कि सप्ताह में किसी दिन सात मालाएं इकट्ठी कर ली जावें।

आप स्वयं संरक्षक रहें इतना ही पर्याप्त नहीं। वरन् अपने परिचित, समीपवर्ती, धार्मिक प्रवृत्ति के अधिकाधिक लोगों के पास जाकर या उन्हें पत्र आदि लिखकर उनसे संरक्षक बनने के लिए प्रार्थना करें। इस प्रकार जितने अधिक संरक्षक तैयार हो सकें, उनसे संरक्षण−प्रतिज्ञा−पत्र भराकर मथुरा भेज दें। जिससे यह पता चलता रहे कि कौन, कहाँ, किस प्रकार संरक्षण कर रहा है और अब तक कितनी संरक्षण−व्यवस्था हो सकी है। संरक्षकों से आशा भी की जाती है कि वे केवल अपने तक ही संरक्षण भार लेकर शान्त न हो जावें, वरन् और भी नये संरक्षक बढ़ाने के लिए शक्ति भर प्रयत्न करें साथ ही यह भी देखते रहें कि बनाये हुए संरक्षक अपनी प्रतिज्ञा ठीक प्रकार पूरी करते हैं या नहीं। जो सज्जन इस समय संरक्षण कर रहे हैं, उनसे भी संरक्षण−फार्म भरकर भेज देने की प्रार्थना है।

हम लोग यहाँ महायज्ञ योजना में अधिक कार्य−व्यस्त रहने के कारण संभवतः अपनी ओर से यहाँ के कुछ समाचार न लिख सकें, इसलिए संरक्षकों का कर्तव्य है कि कभी−कभी यहाँ की खोज खबर लेने के लिए पूछताछ करते रहें और महायज्ञ के कार्य−कर्त्ताओं को प्रोत्साहन तथा आशीर्वाद देते रहें।

संरक्षण−प्रतिज्ञा−पत्र साथ में संलग्न है। अधिक की आवश्यकता होने पर मथुरा से मँगालें या सादे कागज पर हाथ से नकल करके ऐसे ही अनेक फार्म स्वयं तैयार करके उनका उपयोग किया जा सकता है।

स्मरण रखिए यह विशद् गायत्री महायज्ञ इस युग का असाधारण यज्ञ है। इसका संरक्षण करने का पुण्य लेना भी असाधारण महत्व का कार्य है। यह पुनीत कार्य आपके करने ही योग्य है। ऐसे आयोजन बार बार नहीं होते किन्हीं विरले ही भाग्यवानों को ऐसे अवसर मिलते हैं। (1) आत्म−कल्याण, (2) महायज्ञ की सफलता तथा (3) यज्ञ−संचालकों की प्राण−रक्षा के पुण्य लाभों को प्राप्त करना, निश्चित रूप से एक सत्यपरिणामदायिनी दूरदर्शिता है।


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