आत्मदान (Kavita)

March 1955

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मैंने सब देकर सब पाया! अक्षय कोश मिला जब मैंने अपना सारा कोश लुटाया!!

जाने कब से मैं पागल बन, मिट्टी को समझी थी कञ्चन, किन्तु तुम्हारी कृपा किरण ने,

दिया मुझे अनमोल ज्योति कण, जिसके दिव्य प्रकाश−पुञ्ज में, मैंने नूतन पन्थ बनाया!

लक्ष्य प्राप्त करने का यदि प्रण, करो विभव का दूर प्रलोभन, कहीं न स्थिर कर दे पद की गति,

सोने—चाँदी का आकर्षण, छाया वन—वन पथ को रोके मन की मृग तृष्णा की माया!

देव तुम्हारा पूजन—अर्चन, करता है मन प्रतिपल, प्रतिक्षण, रोक नहीं मुझको पायेंगे,

सुख सौरभ के स्वप्न सुहावन, जीवन का सर्वस्व लुटाकर पद−पद्मों में ध्यान लगाया!


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