भारतीय सभ्यता की विशेषता

March 1955

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(श्री सालिगराम शर्मा बी. ए.)

इस द्वितीय विश्व−व्यापी नर संहारकारी महा युद्ध की समाप्ति के पश्चात् इंग्लैंड के प्रसिद्ध विचारक सी. आई. एम. जोड़ ने लन्दन के शिक्षित लोगों की एक सभा में भाषण देते हुए कहा—“पश्चिम के देशों के करने वाले हम लोगों ने मनुष्यों और नगरों को शीघ्रातिशीघ्र नष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के आविष्कार किए। हमारी बुद्धि को इसमें बड़ी ही सफलता मिली। हम निरपराध प्राणियों को नष्ट करने के अनेक तरीके जान गये हैं पर अभी तक यह नहीं जान पाये कि जीवित किसी प्रकार रहा जाता है। अगर हम जीवित रहने की इच्छा रखते हैं तो हमें भारतवर्ष की ओर देखना पड़ेगा।” जोड़ साहब के शब्द को पढ़ कर सभी समझदार लोगों के मन में भारतीय सभ्यता के विषय में कुछ जानने की भावना उत्पन्न होती है। अतः ‘भारतीय सभ्यता की विशेषता’ शीर्षक लेख में हम इसी पर कुछ विचार प्रकट करेंगे।

किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति और विचार धारा वहाँ की भौगोलिक स्थिति से सर्वथा प्रभावित रहती है। जिस देश के निवासियों को अहिर्निश रोटी और कपड़े के लिए ही संघर्ष करना पड़ता हो उस देश की सभ्यता कभी महान् नहीं हो सकती। उस देश में उच्च विज्ञान और दर्शन कभी जन्म नहीं पा सकते। इतिहास इस बात का साक्षी है। आइए, अब भारतवर्ष की भौगोलिक अवस्था पर भी थोड़ा सा विचार कीजिये। यहाँ की भूमि उपजाऊ है। खाने पीने की वस्तुओं का कभी अभाव नहीं रहा। जीवन धारण करने के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है वे वस्तुएँ यहाँ के निवासियों को बड़ी ही सुगमता से उपलब्ध हो जाती थीं। जिस समय भारत से बाहर के देशों के लोग जीवन धारण करने के लिए निरन्तर परिश्रम किया करते थे उस समय भारतवासी बड़े ही प्रेम के साथ सुख शान्ति का जीवन व्यतीत करते थे। यहाँ के निवासी इस बात को जानते भी न थे कि संसार युद्ध−क्षेत्र है जिसमें हमें अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए दिन रात संघर्ष करना पड़ता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती हैं तो इस भौतिक जीवन से परे की वस्तुओं पर भी विचार करता है। मनुष्य के अन्दर की अव्यक्त शक्ति उसे जीवन, मृत्यु, सुख दुःख, आत्मा, जगत और परमात्मा के विषय में विचार करने के लिए विवश कर देती है। जो बात एक व्यक्ति के जीवन में सत्य हो सकती है वह एक समाज या राष्ट्र के जीवन में भी सत्य होगी। यही कारण है कि भारत ने एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति को जन्म दिया जिस पर यहाँ के निवासियों को बड़ा ही अभिमान है। यहाँ की भूमि ने ऐसे दार्शनिक और वैज्ञानिक उत्पन्न किये कि जिनकी प्रतिमा का लोहा पश्चिम के बड़े बड़े महारथी भी मानते हैं।

आश्रमों ने जिस सभ्यता को जन्म दिया है उसमें आध्यात्मिकता की प्रधानता रही है। यद्यपि भारतवर्ष में भी अनेक ऐसे दार्शनिक हुए हैं जो घोर वस्तुवादी थे। पर ऐसे विचारकों की संख्या नहीं के बराबर है। इसके विपरीत पश्चिम के देशों में प्रकृति वादी दार्शनिकों का ही बोलबाला रहा है। भारतीय नवयुवक पश्चिम के भौतिक वादी दार्शनिकों के ग्रन्थों का अध्ययन करके थोड़ी देर के लिए अपने को चाहे भले ही नास्तिक समझने लगें पर यह अवस्था अधिक समय तक नहीं रहेगी। नास्तिकता तो भारतीय लोगों को रक्त में है ही नहीं। अगर कोई अपने को नास्तिक कहता है तो यह कहना चाहिये कि वह अपने को नहीं समझता। अगर वह कभी गम्भीरता पूर्वक विचार करेगा तो उसे अपनी भूल स्वीकार करनी पड़ेगी।

चूँकि यूरोप और अमेरिका की सभ्यता का जन्म विश्वविद्यालयों में हुआ है इसलिए वहाँ संग्रह का पाठ पढ़ाया गया है। जिस मनुष्य के पास जितनी ही अधिक भौतिक वस्तुएँ हैं वह उतना ही अधिक सभ्य समझा जाता है। भौतिक आवश्यकताओं की तृप्ति के साधन जुटाने में ही पश्चिम ने सभ्यता समझी है। पर भारतवर्ष के साथ ऐसी बात नहीं। यहाँ की सभ्यता तो तपोवनों की देन है। अतः त्याग का ही महत्व दिखलाई पड़ता है। मनुष्य अपनी इच्छाओं को जितनी ही कम करेगा उसका जीवन उतना ही अधिक सुखी होगा। भारतीय लोगों का यह विश्वास बड़ा ही दृढ़ है। त्याग का यह आदर्श उनकी रग रग में समा गया है। जहाँ यूरोप और अमरीका के लोग अपने को किसी लखपती या करोड़पती सेठ का वंशज सिद्ध करके गौरवान्वित मानते हैं वहाँ भारतवर्ष के लोग अपने को उस महात्मा या ऋषि का वंशज सिद्ध करने का यत्न करते हैं जिसने सबसे अधिक त्याग किया हो।

भारतवर्ष ने सर्वदा से क्रियात्मक जीवन पर जोर दिया है। साहित्य दर्शन और विज्ञान के बड़े बड़े ग्रन्थों का अध्ययन करना ही काफी नहीं। जब तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम उनके अनुसार आचरण नहीं करते तब तक हमारी शिक्षा अधूरी ही है—निकम्मी ही है। भारतवर्ष के लम्बे चौड़े प्रभावशाली भाषणों और झूठे सच्चे प्रचारों पर कभी भरोसा नहीं रहा। इस देश ने उसी व्यक्ति का सम्मान किया है जोकि भीतर और बाहर दोनों ओर से एक सा है। जो केवल सत्य और ईमानदारी के महत्व पर भाषण ही नहीं देता वरन् स्वयं सत्यवादी और ईमानदार भी है। यहाँ पर कहने का इतना महत्व नहीं जितना करने का। हम महात्मा गाँधी का इतना सम्मान करते हैं तो उसका कारण उनकी विद्वता और भाषण−शैली का प्रभाव नहीं। उसका कारण तो उनका क्रियात्मक जीवन ही है। वे जैसा कहते थे वैसा करते भी थे। पर पश्चिम के देशों में आपको यह बात नहीं दिखाई पड़ेगी। वहाँ अगर कोई व्यक्ति बड़ी बड़ी बातें करता है, ऐसे व्याख्यान देता है जो जनता को मुग्ध करने की शक्ति रखते हैं, तो उनका सम्मान होने लगता है। उसके व्यक्ति गत चरित्र की ओर कोई भी ध्यान नहीं देता।

जब हम भारतीय साहित्य का अध्ययन करते हैं तो हमें उसकी एक विशेषता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यहाँ सभी विद्वानों, दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों को अपने अति प्राचीन साहित्य वेद, उपनिषद् और गीता आदि में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास है। जो कुछ भी इन ग्रन्थों में लिखा है वह सत्य है—अक्षरशः सत्य है। वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है और उसका एक एक शब्द त्रिकाल सत्य है। अगर हमें वेद में कोई बात गलत जान पड़ती है तो यह हमारी बुद्धि की कमी है। हम उसे समझ नहीं सके हैं। वेदों की निन्दा आचार्य लोग कभी सहन नहीं कर सकते। राम और कृष्ण जिनको आज हिन्दू लोग ईश्वर का अवतार मानते हैं अगर वे वेदों की निन्दा करते और हमसे उनके विरुद्ध आचरण करने को कहते तो कभी भी उनका इतना सम्मान न होता। भारतवासियों को अपनी प्रत्येक पुरानी वस्तु से प्रेम है। नवीन वस्तु चाहे वह कितनी ही सुन्दर क्यों न हो—जब तक उस पर प्राचीनता की मुहर नहीं लग जाती तब तक हिन्दुओं को स्वीकार नहीं हो सकती। परिवर्तन प्रेमी नवयुवक जो बिना सोचे समझे आँधी के साथ बह जाना पसन्द करते हैं और उसी में उन्नति समझते हैं, इसे अवश्य ही अन्धविश्वास, हठवादिता तथा बुद्धि का दिवालियापन कहेंगे। पर मेरा तो विश्वास यह है कि इसी हठवादिता ने भारतवासियों को अभी तक जीवित रखा है। इसी अन्धविश्वास और श्रद्धा ने यहाँ के लोगों को अनेक प्रचण्ड तथा भयंकर तूफानों से रक्षा की है।

हिन्दुओं को अपनी प्रत्येक प्राचीन वस्तु से प्रेम है। इसका आशय यह नहीं कि उनके विचारों में संकीर्णता है तथा हृदय विशाल नहीं। अगर हम भारत के इतिहास को निष्पक्ष होकर पढ़ें तो पता लगेगा कि यहाँ पर हमेशा से धार्मिक सहिष्णुता रही है। जिस समय इंग्लैंड तथा यूरोप में रोमन कैथोलिक और प्रौस्टेन्ट धर्म के नाम पर एक दूसरे का रक्त बहा रहे थे, ठीक उससे एक हजार वर्ष पहले भी भारतवर्ष गुप्त−सम्राटों के शासनकाल में पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता का उपभोग कर रहा था। सम्राट वैदिक−धर्मावलम्बी थे और ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार कार्य करते थे, परन्तु बोद्धधर्म और जैन−धर्म के अनुयायियों के साथ किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं होता था। धर्म के नाम पर भारत में शास्त्रार्थ हुए तो हैं पर खून की नदियाँ नहीं बहाई गयीं। (देश के दुर्भाग्य से अगर हिन्दू और मुसलमान लड़ते हैं तो इसका कारण धर्म नहीं है। कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के कहने में आकर ही जनता बिना सोचे समझे लड़ती है।) पश्चिम के देशों ने अपने यहाँ के महापुरुषों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। जिस किसी व्यक्ति ने ऐसी बातें कहीं एवं जिसको उस काल की जनता न समझ सकी तो उसको प्राण दण्ड ही भोगना पड़ा। सुकरात को अपनी सेवा के पुरस्कार स्वरूप विष का प्याला पीना पड़ा। ईसा को सामाजिक बुराइयाँ दूर करने के अपराध में फाँसी का दण्ड भोगना पड़ा। पर भारत में आपको इसका एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा। महात्मा गौतम बुद्ध जिन्होंने वेदों की निन्दा की उन्हें भी भारतीय जनता ने ईश्वर का अवतार माना। इस देश में अनेक नास्तिक दार्शनिक हुए पर कभी भी यहाँ के समाज ने वह भूल नहीं की जो पश्चिम में होती आई है।


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