(श्री रामखेलावन चौधरी, बी.ए. लखनऊ)
मनुष्य ‘स्वर्ग’ तक पहुँचने में क्यों असमर्थ है? इसके उत्तर में केवल यह कहा जा सकता है कि वह अपने और दूसरों के अनुभवों से लाभ नहीं उठाता; इसलिए वह स्वर्ग तक नहीं पहुँच पाता। सुख की प्राप्ति के लिए अनुभवों से लाभ उठाने की शक्ति अपेक्षित है। जो लोग अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने अनुभवों से शिक्षा नहीं ग्रहण करते वे सदैव दुखी रहते हैं। जो बात व्यक्ति गत जीवन के लिए सत्य है, वही सामाजिक जीवन के लिए भी सत्य है। मानव जाति ने प्रारम्भ काल से अब तक जो कुछ अनुभव प्राप्त किए हैं, यदि उनसे मनुष्य की वर्तमान पीढ़ी लाभ नहीं उठाती, तो इसे मानव जाति का दुर्भाग्य समझना चाहिए। जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए मनुष्य सतत् प्रयत्न करता रहा है। उन प्रयत्नों और प्रयोगों का परिणाम ‘पारिवारिक जीवन’ है। यदि पारिवारिक जीवन इतना उपयोगी और सुखकर न होता; यदि उससे मनुष्य के व्यक्ति गत जीवन में, कोई लाभ न होता, तो शायद यह पारिवारिक व्यवस्था आज लुप्त हो गई होती। पृथ्वी भर में जितना भी मानव−समाज है, सबमें किसी न किसी रूप में यह व्यवस्था पाई जाती है। आज यह स्थिति अवश्य हो गई है कि परिवार जैसी उत्तम संस्था का ह्रास पाश्चात्य देशों में होने लगा है और भारतीय समाज भी यूरोप के पद चिन्हों पर चलने लगा है। अतीत की ओर से आँख बन्द करके, भविष्य की कल्पना में मस्त वर्तमान मनुष्य इस परिवार जैसी संसार का विनाश करने के लिए सन्नद्ध है। उसके भयंकर परिणामों की ओर उसका ध्यान नहीं है।
परिवार की उपयोगिता को देखते हुए अनेक विद्वान्, इस स्थिति से बड़े चिंतित हो उठे हैं। उनके मन में, कुछ हेर−फेर के साथ, परिवार को जिंदा रखना, मनुष्य के सुख के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस सम्बन्ध में हम कुछ अमरीकी विद्वानों के विचार प्रस्तुत करते हैं।
मशीनों के आविष्कार और औद्योगीकरण ने अमरीका तथा अन्य पाश्चात्य देशों में समाज की काया पलट करदी है। स्त्री शिक्षा और स्त्रियों की आर्थिक स्वतन्त्रता ने इसमें सहायता पहुँचाई है। इस परिवर्तन का सबसे गहरा असर परिवार पर पड़ा है। पहले परिवार एक संगठित इकाई था। एक−एक परिवार में लगभग पाँच से लेकर बीस तक व्यक्ति होते थे। आयु में सबसे बड़ा पुरुष परिवार का कर्णधार होता था। उसकी छाया में छोटे−बड़े आश्रय पाते थे। भोजन, वस्त्र, विवाह, आजीविका का प्रबन्ध और अन्य साँस्कृतिक उत्सव आदि की व्यवस्था समान रूप से, एक ही स्तर पर सबके लिए एक परिवार में की जाती थी। आज यह सब बातें नष्ट हो रही हैं। दो स्त्री−पुरुष विवाह द्वारा सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं; दोनों आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी होते हैं। दिन में अलग−अलग स्थानों पर दोनों काम करते हैं, भोजन की व्यवस्था होटलों में कर ली जाती है, बच्चों का भार शिशु−गृहों और शिक्षालयों को सौंप दिया जाता है। यह है परिवार का दृश्य, जिसमें माता, पिता और बच्चे ही दिखाई देते हैं, अन्य सम्बन्धी जैसे बड़े भाई, भाभी, बहनें, चाचा−चाची आदि का तो कोई स्थान नहीं है। परिवार का क्षेत्र बिल्कुल सिकुड़ गया है और जो कुछ है भी, तो अव्यवस्थित और कच्चे धागे में बँधा हुआ। व्यवस्था अवश्य बदल गई है, परन्तु उससे समाज की जड़ में घुन लग गया है। परिवार के अभाव में उसके कार्यों की पूर्ति कैसे हो? परिवार के कार्य पूर्णरूप से प्राकृतिक हैं अप्राकृतिक साधनों से उनकी पूर्ति संभव नहीं है।
श्री एम. सी. एल्मर ने (उनकी पुस्तक The Sociology of Family इस सम्बन्ध में पठनीय हैं। अपनी खोजों और गवेषणाओं के उपराँत कुछ बड़े ही तथ्यपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। मनुष्य का सुख विशेष रूप से तीन बातों पर निर्भर करता है। वे हैं− (क) स्वास्थ्य, (ख) विवाह, (ग) जीविका का साधन। इन तीनों क्षेत्रों में परिवार की अमूल्य सेवाओं का अंदाजा लगाना कठिन है।
पहले स्वास्थ्य को लीजिये। यदि मनुष्य शरीर से निर्बल और रोगग्रस्त है, तो उसे किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना कठिन हो जाता है। इससे जन्मकाल से ही स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना उचित है। यदि बचपन में ही शरीर का विकास रुक गया, तो सारा जीवन रोते ही बीतता है। बच्चों के पालन−पोषण और स्वास्थ्यवर्धन का भार प्राचीन काल से परिवार की बड़ी−बूढ़ी औरतों और बच्चों की माता पर रहा करता था। उनका स्थान अब सरकार की देख−रेख में चलने वाले जनन−गृहों और अस्पतालों ने ले लिया है। शिशु को जनाने के लिए वहाँ कुशल दाइयों का प्रबन्ध होता है। वे ठीक समय पर दूध पिलाती हैं, रोग से बच्चों की रक्षा करती हैं और उनके शरीर की अच्छी तरह सफाई रखती हैं। जनन−गृहों से निकलने के बाद बच्चों के स्वास्थ्य की देख−रेख शिशुगृहों और बाल−शिक्षा−संस्थाओं में होती है। सभी प्रकार के वैज्ञानिक साधनों से युक्त, साफ स्वच्छ, विशालकाय भवनों की तुलना में पारिवारिक वातावरण बड़ा ही हीन जँचता है। डाक्टरों और विद्वानों ने इस नये प्रबन्ध को जन स्वास्थ्य की गारंटी बताया है। फिर भी जन−स्वास्थ्य में कोई विशेष प्रगति नज़र नहीं आती है। इसका कारण है−यह साधन सम्पन्न भवन, परिवार की झोंपड़ी की एक विशेषता अपने में पैदा करने में असमर्थ हैं। वह विशेषता है ‘स्नेह’ या ‘प्रेम’। अस्पताल का शिक्षित तथा विशेष योग्यता प्राप्त नर्स कभी भी एक अशिक्षित माता के हृदय का वह एक भी अमृततुल्य स्नेहबिंदु नहीं दे सकती, जिसके बिना बच्चों का स्वस्थ रहना असम्भव हो जाता है। घर में दुलार से ही माताओं ने कितने ही वीर सैनिक, मेधावी विद्वान्, योग्य कलाकार और नेता सिखा पढ़ाकर तैयार किये हैं। उतनी प्रेरक शक्ति बाल−शिक्षा−संस्थाओं की योग्य शिक्षिकाओं में नहीं होती; क्योंकि दूसरों के बच्चों के प्रति उनके मन में उतना स्वाभाविक प्रेम हो ही नहीं सकता। माता या पत्नी के अंचल की वायु का सेवन करते हुए रूखी−सूखी रोटी खाकर मनुष्य हाथी का बल प्राप्त कर सकता है, परन्तु होटल में बैठकर मनों मक्खन उड़ा जाने पर भी वह रोगी बना रहता है। कारण, परिवार की सूखी रोटी में मातृ−स्नेह का अमृत मिला होता है और होटल के मक्खन में स्वार्थ और शोषण का विष होता है। इन सब बातों को बहुत कम लोग समझ पाते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि अस्पतालों, शिक्षालयों के निवासों और होटलों के प्रेमशून्य वातावरण में पलने वाला मनुष्य आजीवन अतृप्त रहता है और अतृप्त मनुष्य जीवन में कभी भी सुखी नहीं हो सकता।
मनुष्य के सुख की दूसरी आधार शिला है—सफल विवाहित−जीवन। विवाहित−जीवन, दो स्त्री− पुरुषों के बीच वैध यौन सम्बन्ध का प्रतीक है। उससे मनुष्य की कामवृत्ति संतुष्ट होकर, रचनात्मक कार्यों की ओर अग्रसर होती है। अविवाहित मनुष्य प्रायः असफल रहते हैं और उनकी सृजनात्मक शक्ति अविकसित रह जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने खोज की है कि तोड़−फोड़ और विध्वंसात्मक कार्यों को बड़े भाव से करने वालों में अविवाहित मनुष्यों की संख्या अधिक होती है। प्राचीन काल के विद्वानों ने संभव है इस तथ्य को इतने अधिक वैज्ञानिक ढंग से न सोचा हो, परन्तु समाज की स्थिरता बनाये रखने के लिए ही, विवाहित−जीवन को अवश्य ही आवश्यक बताया था। परिवार के बिना सुखी विवाहित जीवन संभव नहीं है। परिवार के बड़े बूढ़ों के पथ−प्रदर्शन में नवयुवकों का विवाहित−जीवन आरम्भ होता है। वे हर प्रकार से जीवन को सुखी बनाने में सहायता देते हैं। अब भी ऐसे परिवारों की संख्या बहुत अधिक है, जिनमें विवाह हो जाने के बाद नव दंपत्ति के भरण−पोषण का भार परिवार के कर्णधार पर रहता है। उन्हें कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती और वे अपनी व्यक्ति गत उन्नति तथा सामाजिक हित के लिए जितना चाहें समय और शक्ति लगा सकते हैं। रूढ़िग्रस्त परिवारों में कुछ झंझट अवश्य होते हैं, परन्तु उन झंझटों की तुलना में, सुविधायें अधिक मिलती है। एम. ई. वाट्सन का कथन है कि पारिवारिक संरक्षण में, सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का जितना अधिक सुअवसर प्राप्त होता है, उतना अकेले रहकर मिलना असम्भव है। थोड़े से खर्च में जीवन निर्वाह होता है। सबसे अधिक लाभ स्त्रियों को होता है। भारत जैसे देश में स्त्रियों की शिक्षा अभी अपर्याप्त है; जो कुछ होती भी है, वह दाम्पत्य−जीवन से सम्बन्ध नहीं रखती। दाम्पत्य−जीवन व्यवहारिक होता है, किताबी ज्ञान से कोई सहायता इसमें नहीं मिलती। यही कारण है पढ़े लिखे दंपत्ति सुख से दूर रहते हैं। दांपत्य−जीवन की शिक्षा तो परिवार में ही मिलती है। स्त्रियाँ भोजन बनाना, गृहस्थी का प्रबन्ध करना, बच्चों का लालन−पालन करना और साँस्कृतिक जीवन का निर्माण करना आदि परिवार में रहकर ही सीखती हैं। इन सब बातों पर विचार करने से स्पष्ट हो जायगा कि परिवार द्वारा मनुष्य के सुख का बड़ा सुन्दर आयोजन होता है।
जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए आर्थिक संपन्नता भी बहुत जरूरी है। निठल्ले, अकर्मण्य और पैसा न पैदा करने वाले व्यक्ति का सब जगह निरादर होता है। इसलिए सुख की इच्छा करने वाले व्यक्ति को किसी ने किसी रोज़गार या नौकरी में लगे रहना चाहिए। इस क्षेत्र में परिवार व्यक्ति की पूरी सहायता करता है। प्राचीन काल में, और भारतवर्ष में अब भी काम-धंधा, रोजगार या नौकरी दिलाने में परिवार का मुख्य हाथ होता है। हमारे देश में यह प्रथा चली आ रही है कि परिवार में कोई न कोई ‘पुश्तैनी रोज़गार’ अर्थात् कई पीढ़ियों से चले आने वाला रोज़गार स्थायी रूप से किया जाता है। उसी के द्वारा परिवार के सभी सदस्य धनार्जन करते हैं। उदाहरण के लिये खेती और दुकानदारी के व्यवसाय वंश परम्परा से परिवारों में चले आते हैं। ऐसे व्यवसायों में परिवार के सभी लोग मिलजुल कर काम कर लेते हैं; बेरोज़गारी और बेकारी की समस्या, जिसे हल करने में साधन−सम्पन्न सरकार भी असमर्थ हो रही है, परिवारों द्वारा बड़ी सरलता से निपटा दी जाती है। वर्तमान काल में सरकार अपना उत्तरदायित्व बढ़ाती जा रही है। नवयुवकों को काम दिलाने के लिए उसने दफ्तर (एम्प्लॉयमेन्ट एक्सचेंज) खोल रखे हैं, परन्तु परिवारों द्वारा आयोजित कार्यक्रम अब भी आदर्श है। भविष्य में घरेलू उद्योग−धन्धों और ग्रामोद्योगों तथा कुटीर उद्योगों का पुनः विकास होने पर पारिवारिक आर्थिक व्यवस्था ही ज्यादा जनप्रिय और लाभदायक सिद्ध होगी। महात्मा गाँधी ने अपनी बुनियादी शिक्षा के कार्यक्रम में, इसे महत्वपूर्ण स्थान देते हुए इसकी बार−बार प्रशंसा की और पाश्चात्य विद्वान् भी इसकी आवश्यकता अनुभव करने लगे हैं। एलमर और वाट्सन, जिनके विचारों का हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं, इस विषय में एकमत हैं। आज के युग में व्यक्ति गत भिन्नता और रुचि के आधार पर मन पसन्द का रोज़गार या नौकरी चुनने को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है, परन्तु अपरिपक्व बुद्धि और अपनी शक्ति को न पहचान सकने वाले नवयुवक उपयुक्त मन चाहे व्यापार चुन सकने में असमर्थ होते हैं और यदि वे चुन भी लें, तो वह रोज़गार या नौकरी उनको मिल ही कैसी सकती है। मान लीजिये, किसी परिवार में कपड़े की दुकानदारी का काम अच्छे पैमाने पर होता है, सभी लोग मिलजुल कर उसमें काम करते हैं। परिवार का एक शिक्षित नवयुवक साहित्य−सृजन द्वारा धनार्जन करना चाहता है। ठीक है और संभव भी है कि वह इस काम में अधिक सफल हो सके और अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन कर सके; परन्तु इस नये काम को जमाने के लिए उसे न जाने कितना संघर्ष करना पड़ेगा और सफलता संदिग्ध रहेगी। इसके विपरीत पारिवारिक व्यवसाय में उसे हर प्रकार की सहायता मिल सकती है; अनुभव प्राप्त करने का भी ज्यादा मौका मिलेगा और सफलता प्राप्त करने में ज्यादा आसानी होगी। अब नौकरी को लीजिये। परिवार द्वारा इसमें भी सहायता मिलती है। कल−कारखानों या दफ्तरों में काम करने वाले व्यक्ति अपने पुत्रों, पौत्रों और सम्बन्धियों को बड़ी सरलता से काम पर लगा लेते हैं। रेलवे और दूसरे सरकारी विभागों में कर्मचारी के पुत्र या भाई को नौकरी देने में अधिक ख्याल रखा जाता है। प्रतिभाशाली और बुद्धिमान व्यक्ति भले ही अपनी क्षमता के बल पर मन चाहे काम में सफल हो जायं और वे हो जाते हैं। उनको परिवार या सरकार की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं होती, परन्तु साधारण व्यक्ति यों के लिये (और इन्हीं की संख्या सबसे अधिक होती है) परिवार की सहायता जरूरी है।
इस प्रकार पारिवारिक जीवन स्वास्थ्य, विवाह और जीविका की समस्या को सरल बनाने और सुख शाँति की वृद्धि में सर्व साधारण के लिए बहुत सहायक होता है। परमार्थ−प्रेमी, लोक−सेवी और कुछ महान् कार्यों के लिए कोई उच्च आदर्श वाले व्यक्ति एकाकी अविवाहित जीवन व्यतीत कर सकते हैं, पर सर्व साधारण के लिए तो पति−पत्नी तक का छोटा परिवार बच्चों की अपेक्षा बड़े परिवार में रहना ही लाभदायक है।