कर्मयोग का रहस्य

March 1955

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज)

मनुष्य−समाज की स्वार्थहीन सेवा कर्मयोग है। यह हृदय को शुद्ध करके अन्तःकरण को आत्मज्ञान रूपी दिव्य ज्योति प्राप्त करने योग्य बना देता है। विशेष बात तो यह है कि बिना किसी आसक्ति अथवा अहंभाव के आपको मानव−जाति की सेवा करनी होगी। कर्मयोग में कर्मयोगी सारे कर्मों और उनके फल को भगवान के अर्पण कर देता है। ईश्वर में एकता रखते हुए, आसक्ति को दूर करके सफलता व निष्फलता में समान रूप से रह कर कर्म करते रहना कर्म−योग है।

जैमिनी ऋषि के मतानुसार अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म ही कर्म है। भगवद्गीता के अनुसार निष्काम भाव से किया हुआ कोई भी कार्य कर्म है। भगवान् कृष्ण ने कहा है निरन्तर कर्म करते रहो, आपका धर्म फल की चाहना न रखते हुए कर्म करते रहना ही है। गीता का प्रधान उपदेश कर्म में अनासक्ति है। श्वास लेना, खाना, देखना, सुनना, सोचना सब कर्म हैं।

अपने गुरु या किसी महात्मा की सेवा कर्मयोग का सर्वोच्च रूप है। इससे आपका चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। उनकी सेवा करने से उनके दिव्य तेज का आप के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। आपको उनसे दैवी प्रेरणा प्राप्त होगी। शनैः शनैः आप उनके सद्गुणों को ग्रहण कर लोगे।

कर्म योगी का विशाल हृदय होना चाहिये। उसमें कुटिलता, नीचता कृपणता और स्वार्थ बिल्कुल नहीं होना चाहिए, उसे लोभ, काम, क्रोध और अभिमान रहित होना चाहिए। यदि इन दोषों के चिन्ह भी दिखाई देवें तो उन्हें एक एक करके दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, वह जो कुछ भी खाय उसमें से पहले नौकरों को देना चाहिये, यदि कोई निर्धन रोगी दूध की चाहना रखकर उसी के घर आये और घर में उसी के लिए दूध नहीं बचा हो तो उसे चाहिये कि अपने हिस्से का दूध फौरन ही उसे देदे और उससे कहे कि ‘हे नारायण! यह दूध आपके वास्ते है, कृपा कर इसे पीलो, आपकी जरूरत मुझसे ज्यादा है।’ तब ही वह सच्ची उपयोगी सेवा कर सकता है।

कर्मयोगी का स्वभाव प्रेमयुक्त, मिलनसार, समाज−सेवी होना चाहिए। उसे जाति, धर्म या वर्ण के विचार बिना हर एक व्यक्ति के साथ मिलना चाहिए, उसमें सहनशीलता, सहानुभूति, विश्व−प्रेम, दया और सबमें मिल जाने की सामर्थ्य होनी चाहिये। उसे दूसरों के स्वभाव और रीति से संयोग रखने की क्षमा होनी चाहिये, उसे उपस्थित बुद्धि होनी चाहिये, उसका मन शान्त और सम होना चाहिये। उसे दूसरों की उन्नति में प्रसन्न होना चाहिये, उसको सारी इन्द्रियों पर पूरा संयम होना चाहिये, और हर एक वस्तु केवल अपने ही लिए चाहता है तो वह अपनी सम्पत्ति दूसरों को कैसे बाँट सकता है, उसे अपने स्वार्थ को जला डालना चाहिए।

ऐसा ही मनुष्य अच्छा कर्मयोगी बन सकता है और अपने लक्ष्य को जल्दी प्राप्त कर लेता है।

—कर्मयोग, भक्ति योग, अथवा ज्ञानयोग के साथ मिला होता है। जिस कर्मयोगी ने भक्ति योग से कर्मयोग को मिलाया है उसका निमित्त भाव होता है, वह अनुभव करता है कि ईश्वर सब कुछ कार्य कर सकता है और वह ईश्वर के हाथों में निमित्त मात्र है, इस प्रकार वह धीरे−धीरे कर्मों के बन्धन से छूट जाता है, कर्म के द्वारा उसे मोक्ष मिल जाती है। जिस कर्मयोगी ने ज्ञानयोग और कर्मयोग को मिलाया है वह अपने कर्मों से साक्षी भाव रखता है। वह अनुभव करता है कि प्रकृति सब काम करती है और वह मन और इन्द्रियों की क्रियाओं और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी भाव रख कर कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है।

कर्मयोगी निरन्तर निःस्वार्थ सेवा से अपना चित्त शुद्ध कर लेता है। वह कर्म फल की आशा न रखता हुआ कार्य करता है, वह अहंकारहीन अथवा कर्तापन के विचार रहित होकर कार्य करता है, वह हर एक रूप में ईश्वर को देखता है, वह अनुभव करता है कि सारा संसार परमात्मा के व्यक्ति त्व का विकास है और यह जगत वृन्दावन है। वह कठोर ब्रह्मचर्य−व्रत पालन करता है, वह करता हुआ मन से ‘ब्रह्मार्पणम्’ करता रहता है, अपने सारे कार्य ईश्वर के अर्पण करता है और सोने के समय कहता है—’हे प्रभु! आज मैंने जो कुछ किया है आपके लिए है, आप प्रसन्न होकर इसे स्वीकार कीजिए। वह इस प्रकार कर्मों के फल को भस्म कर देता है और कर्मों के बन्धन में नहीं फँसता, वह कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेता है, निष्काम कर्मयोग से उसका चित्तशुद्धि होता है और चित्तशुद्धि होने पर आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। देश सेवा, समाज सेवा, दरिद्र सेवा, रोगी सेवा, पितृ सेवा गुरु सेवा यह सब कर्मयोग है। सच्चा कर्मयोगी दास कर्म और सम्मान पूर्ण कर्म से भेद नहीं करता, ऐसा भेद अन्य जन ही किया करते हैं, कुछ साधक अपने साधन के प्रारम्भ में बड़े विनीत और नम्र होते हैं, परन्तु जब उन्हें कुछ यश और नाम मिल जाता है तब वे अभिमान के शिकार बन जाते हैं।

पश्चिम में तथा अमरीका में बहुत से धनी लोग बेशुमार दान करते हैं, वे बड़े बड़े अस्पताल और बड़ी बड़ी संस्थाएँ बनाते हैं। वे यह सब कुछ केवल सहानुभूति और मनुष्य जाति पर दया करने के नाते ही करते हैं, उनके लिए यह सब समाज सेवा है और ईश्वर समाज का आधार है और मनुष्य ईश्वर का व्यक्तित्व प्रकट करता है। वे अभिमान रहित होकर कर्त्तापन की बुद्धि को छोड़ कर और फल की आशा को छोड़कर सेवा नहीं करते, उनके लिए यह सेवायोग (कर्मयोग) नहीं है। उनके वास्ते यह सेवा केवल दान विषयक कर्म है, उनके लिए सेवा केवल मनुष्यता का धर्म है, उनमें किसी दर्जे तक मनुष्य−जाति के लिये सहानुभूति इस सेवा के द्वारा बढ़ जाती है, उनको कर्मयोग के अभ्यास से चित्त शुद्धि करके आत्मज्ञान प्राप्त करने का विचार नहीं आता, उनको जीवन के लक्ष्य (उद्देश्य) का कुछ ज्ञान नहीं होता, उनको ईश्वर की सत्ता में भी दृढ़ विश्वास नहीं होता। जो कर्मयोग के सिद्धान्त को समझकर ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास रखते हुए कर्म करते हैं वे अपने लक्ष्य को जल्दी पहुँच जावेंगे।

कर्मयोग के अभ्यास के लिए बहुत धन होना आवश्यक नहीं है, आप अपने धन और मन से सेवा कर सकते हैं। यदि किसी निर्धन रोगी को सड़क के किनारे पड़ा हुआ देखो तो उसको थोड़ा जल या दूध पीने को दो, मीठे आश्वासन से उसको प्रसन्न करो, उसको ताँगे में बैठाओ और पास के अस्पताल में ले जाओ, यदि तुम्हारे पास ताँगे का किराया देने के लिये पैसा नहीं है तो रोगी को अपनी पीठ पर उठाकर ले जाओ और उसको अस्पताल में दाखिल कराने का इन्तजाम कर दो। यदि तुम इस प्रकार सेवा करोगे तो तुम्हारा चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। निर्धन, निःसहाय मनुष्यों की इस प्रकार की सेवा से परमात्मा ज्यादा खुश होता है, न कि धनी लोगों की शान−शौकत से की हुई सेवा से।

यदि किसी के शरीर के किसी अंग में घोर पीड़ा हो तो उसके उस अंग को धीरे−धीरे दबाओ और अपने हृदय से प्रार्थना भी करो कि हे भगवान इस मनुष्य का दुःख दूर कर इसको शान्ति में रहने दे और इसका स्वभाव अच्छा हो जावे।

यदि आप किसी मनुष्य या पशु का खून बहता हुआ देखो तो कपड़े के लिये इधर−उधर मत भागे फिरो, बल्कि अपनी धोती या कमीज में से, कुछ परवा नहीं कितना भी कीमती हो एक टुकड़ा फाड़ कर उसके पट्टी बाँध दो, यदि वह कीमती रेशमी कपड़ा भी है तो भी उसको फाड़ने में शंका मत करो, यह सच्चा कर्मयोग है। यह आपके हृदय को जाँचने के लिये काँटा है, आपमें से कितनों ने इस प्रकार की सेवा की है, यदि अभी तक आपने ऐसा नहीं किया है तो आज से शुरू कर दो।

जब आपका पड़ौसी या कोई निर्धन आदमी रोगग्रस्त हो तो उसके लिये अस्पताल से दवाई ला दो। सावधानी से उसकी सेवा करो, उसके कपड़े खाने के बर्तन और टट्टी−पेशाब के बर्तन साफ करो, यह अनुभव करो कि उस रोगी मनुष्य के रूप में आप ईश्वर की सेवा कर रहे हो। इस प्रकार आपका मन बहुत ऊँचा उठ जावेगा और दैवी प्रेरणा प्राप्त होगी, उससे हर्ष−दायक शब्द कहो, उसके पंगग के पास बैठो। उसके स्वस्थ होने के लिए प्रभु से प्रार्थना करो। इस प्रकार के कर्मों से आप में दया और प्रेम की वृद्धि होने में सहायता मिलेगी, इसमें घृणा, द्वेष और शत्रुता का नाश होगा और आप दैवत्व में बदल जाओगे।

जैसा आप चाहते हो कि दूसरे आपके साथ बर्ताव करें वैसा आप भी उनके साथ करो, इस नीतिवाक्य को याद रखो। नित्य के जीवन−व्यवहार में यह आपका आचार−नियम होना चाहिए, समस्त धर्मों का साराँश यही है, आप कोई अनुचित कर्म नहीं करोगे, आपको अमित आनन्द मिलेगा।

जब तुम बाजार में जाओ तो हमेशा अपनी जेब में कुछ पैसे डाले रखो और उन्हें गरीबों को बाँट दो। रेलवे प्लेटफार्म पर गरीब कुलियों से झगड़ा मत करो, उदार बनो उन्हें चार आने या आठ आने दो। अनुभव करो कि सारी देहों में आप ही रम रहे हो, आपका हृदय विशाल हो जावेगा, आप एकत्व का अनुभव करने लगोगे, आप और भी उदार बन जाओगे।

आप दवाइयों की एक पेटी अपने साथ रख सकते हो और गरीब रोगियों की चिकित्सा कर सकते हो, होम्योपैथिक दवाइयों का इलाज कोई हानि नहीं करता है। पुस्तक देख देखकर अप दवाई दे सकते हो। किसी बायोकैमिस्ट से मिलकर अपना सन्देह दूर कर सकते हो। ऐसी सेवा से आपको बहुत आनन्द मिलेगा, इससे चित्त−शुद्धि बहुत होती है।

महात्मा गाँधी की आत्मकथा पढ़िए। वह सम्मानित कार्य और तुच्छ नीच सेवा में भेद नहीं समझते थे। उनके लिये झाडू लगाना और टट्टी साफ करना बहुत बड़ा योग है। उन्होंने स्वयं टट्टियाँ साफ की हैं। अनेक प्रकार की सेवाएँ कर करके, उन्होंने इस मोहकारक ‘मैं’ को बिल्कुल ही नष्ट कर रखा है। बहुत से उच्च शिक्षा प्राप्त सज्जन इनके आश्रम में योग सीखने के लिये आये। वे सोचते थे कि महात्मा गाँधी जी उनको एकान्त कमरे में या परदे के पीछे विचित्र रीति से प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, कुण्डलिनी, योगादि की शिक्षा देंगे, परन्तु जब उनसे कहा गया कि सबसे पहले टट्टियाँ साफ करो तो उनको बड़ी निराशा हुई और वे एकदम आश्रम छोड़कर चले गये।

प्रति दिन जितने अधिक सत्कार्य हो सकें करिये, सोते समय अपने दिन भर के कार्यों की परीक्षा कीजिए और नित्य अपनी आध्यात्मिक डायरी नोट कीजिए। सत्कार्य करना ही आध्यात्मिक जीवन का उदय है।


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