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March 1955

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सर्व भूत में आत्मा, आत्मा में सब भूत। यह गूढार्थ जिन्हें विदित, उनका ज्ञान प्रभूत॥

अचरज को कासों कहैं, विन्दु में सिन्धु समात। रहिमन अपने आपते, हैरन हार हिरात॥

हेरत हेरत हे सखी, रह्यौ कबीर हिराय। बूँद समानी समद में, सो कत हेरी जाय॥

लेत आत्म अनुभूति रस, शूल सबल स्वाधीन। सके न कर कबहूँ कहूँ, आत्मलाभ बलहीन॥

कबीर एक न जानियाँ, बहु जाना क्या होहि। एकहि ते सब होत है, सबते एक न होहि॥

विद्या, धन, बल, रूप, यश, कुल सुत बनिता मान। सभी सुलभ संसार में, दुरलभ आतम ज्ञान॥


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