अनन्त आनन्द कैसे प्राप्त हो?

April 1955

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(श्री॰ लक्ष्मीनारायण राजपाली)

डडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडड डडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडड डडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडड डडडडडडडड द्वारा। रजोगुण मारता है, धन के द्वारा और तमोगुण मारता है, स्त्री द्वारा। कामिनी−कंचन−कीर्ति यही त्रिगुण की तिकड़म है। यही तीन निशाचर जीवात्मा का सत्यानाश किया करते हैं।”

पर, जब हम साँसारिक द्वन्द्वों से अपने को पृथक हाथ डडडड, एक क्षण के लिए भी, धाँय−धाँय धधकते डडडडडड, डडडड जगत् के अर्थहीन आडम्बरों का तिरस्कार कर, डडडडडड शान्तिमय निर्जन स्थान में, शान्ति का आवाडडडडड के साथ सहयोग देते हुए, डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड धारा प्रवाह के मूक डडडडड डडडडड डडडडड डडडडड डडडड अस्पष्ट संगीत में और डडडड डडडडड डडडडडड डडडडडड आभास देखते डडडड डडडड डडडडड डडडडड ज्योतिर्मयी छटा का−दिव्य आलोक का−आविर्भाव होता है, जो हमें हमारे दिव्य मय होने का बोध कराता है। निस्सन्देह, कुछ क्षण के लिए हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है और मन−शरीर−इन्द्रिय जनित विकारों की असत्यता और निरर्थकता का भी पूरा पूरा पता चला जाता है। शान्त चित्त से विचार करने, मनन करने से हमारे हृदय में उन सात्विक विचारों का प्रादुर्भाव होता है, जो आत्मा में एक नई आशा, एक नवीन ज्योति तथा एक दिव्य विभूति का संचार करते हैं। हम में सत्−असत् की यथार्थता को तौलने की शक्ति अंकुरित हो जाती है।

“जिन असार वस्तुओं के लिए माथा−पच्ची की, वह प्रयास बेकार हो रहा, ख्याति पाई, उसमें भी निस्सारता थी, धनोपार्जन किया, वह भी दुरुपयोग में विनष्ट हुआ। सगे साथी−सम्बन्धी सारे−सर्वथा स्वार्थी निकले, विश्वासपात्र मित्रों ने विश्वासघात किया। जिसके प्रेम पाश में फँस कर प्राणों की बाजी लगाई और अपने को मिटाया, उसने विरक्त ता प्रदर्शित की−ठुकराया।”

पर, इस वैराग्य−मय स्थिति में हम अधिक समय तक टिकने नहीं पाते। हमारे विशुद्ध विज्ञान को, दिव्य विचार को, पुनः साँसारिक प्रलोभन, मधुर रूप धारण कर, थपेड़ मारता है, ठेस लगाता है। अमृत के धोखे में हम विष पान करने लग जाते हैं, फलतः शीघ्र ही अपने को भीषण पतन की कन्दरा में गिरा हुआ पाते हैं। “बुद्धिमान पुरुष के भी मन को यह प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं।” हम फिर छोटी छोटी वस्तुओं की, साधारण चिन्ताओं की, मामूली झगड़ों की तथा सारहीन आकाँक्षाओं और अर्थहीन आशाओं−निराशाओं की उधेड़−बुन में विनष्ट होने लगते हैं।

पर, क्या ऐसा ही सदा होता रहेगा? जब हमें संसार के ही मध्य रहना है−जीवन नाटक में नाट्य रचाना है−तो क्या हमें सदा अस्थायी और सारहीन वस्तुओं का ही आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा? आशा निराशा के भँवर में चक्कर खाते रहना पड़ेगा? अथवा, संसार चक्र में रहते हुए भी, क्या हम उसके मध्य में शान्ति−आनन्द का स्थान प्राप्त कर सकते हैं?

योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अपनी दिव्य वाणी गीता में बताये हुए जिन तीन साधनों के सहारे हम अपने को अनन्त आनन्द की ओर अग्रसर कर सकते हैं, वे साधन पाठकों के हितार्थ यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं (1) इन्द्रिय भोग के विषयों में आसक्त न होना, (2) कर्मफल की इच्छा न रखना, और (3) सदा सर्वदा सत्य आत्मा में ध्यान। संक्षेप में तीनों साधनों पर क्रमशः विचार करते हैं।

प्रश्न साधन निरन्तर अभ्यास तथा रोग द्वारा उपलब्ध हो सकता है।

“जो कोई अनित्य वस्तु में आसक्त और उसके आगमन में हृष्ट होता है, वह उसके नाश या अभाव में दुखी और व्यथित होता है। इस अवस्था को अज्ञान कहते हैं। अज्ञान से अनश्वर आत्मा का सनातन भाव और अन्वय आनन्द घिर जाता है, केवल क्षणस्थायी भाव और वस्तु में मत्त होकर रहता है, उसके नाश के दुःख से शोक सागर में निमग्न होता है।”

पर, इन्द्रिय भोग के विषयों में इस प्रकार आसक्त तथा आच्छन्न न होकर “जो विषय के सब स्पर्शों को सहन कर सके, अर्थात् जो द्वन्द्व की प्राप्ति करके भी सुख दुख, शीत उष्ण, प्रिय अप्रिय, मंगल अमंगल और सिद्धि असिद्धि में हर्ष और शोक का अनुभव कर समान भाव से प्रफुल्ल चित्त और स्मित—वदन रह सके, वही पुरुष राग द्वेष से मुक्त होता है और अज्ञान का बन्धन काट कर सनातन भाव और आनन्द की प्राप्ति करने में समर्थ होता है,—अमृतत्वाय कल्पते।”

दूसरा साधन है—कर्मफल की इच्छा न रखना। “योगस्थ होकर, आसक्ति परित्यागपूर्वक, सिद्धि और असिद्धि में समान होकर तुम कर्म का अनुष्ठान करो चित्त की इस समता का ही नाम योग है।” यह प्रश्न उठ सकता है कि अपेक्षा कृत अच्छे−बुरे का विचार करके कार्य करने से, पाप के भय से पुण्य के लिए कठिन चेष्टा की आवश्यकता के कर्म करना मुश्किल हो जाता है। किन्तु जो मुक्त पुरुष अपनी बुद्धि और इच्छा को भगवान् के साथ युक्त कर चुका है वह इस द्वन्द्वमय संसार में पाप और पुण्य दोनों का परित्याग कर देता है। निस्सन्देह “जो ज्ञानी पुरुष फलकामना का परित्याग करके भगवान् से साथ युक्त होकर कर्म करते हैं वह जन्म बन्धन से मुक्त हो जाते हैं एवं उसी परमपद को प्राप्त होते हैं जहाँ शोक−दुःखमय मानव−जीवन की यंत्रणा का भोग नहीं करना पड़ता।”

“संसारबद्ध अज्ञानी व्यक्ति कीचड़ से भरे हुए जल के समान कामना के सामान्य वेग से विचलित हो उठते हैं, योगी चेतना के विशाल समुद्र के समान है, वह सभी समय समुद्र की भाँति पूरित होता रहता है तथापि वह आत्मा की विराट शान्ति में स्थिर और निश्चल है, समुद्र में जैसे जल प्रवेश करता है, वैसे ही संसार की समस्त कामनाएँ उसमें प्रवेश कर जाती हैं—तथापि उसे कोई कामना नहीं होती, वह तनिक भी विचलित नहीं होता। साधारण व्यक्ति ‘मैं, मेरा, इन सब दुखदायक भावों से भरे रहते हैं, किन्तु योगी पुरुष सर्व व्यापक आत्मा के साथ एक होकर रहता है, एवं उसमें ‘मैं’ मेरा’ का भाव नहीं होता। वह दूसरों की तरह कार्य तो करता है किन्तु वह सारी कामना, सारी लालसा को छोड़ चुका है। वह परम शान्ति पाता है, बाह्य दृश्यों से कभी विचलित नहीं होता। वह परमात्मा के अन्दर अपनी क्षुद्र ‘अहंता’ को निर्वासित कर देता है, वह उसी एकत्व में निवास करता है, एवं मृत्युकाल में उसी ब्राह्मी स्थिति में रहते हुए ब्रह्म निर्वाण लाभ करता है।”

तीसरा साधन−ध्यान अत्यन्त उपयोगी होने के साथ साथ अत्यन्त कठिन है। यह साधन अपने व्यक्ति त्व को सत्य आत्मा के रूप में देखने के सतत् अभ्यास पर निर्भर है—उसके लिए निरन्तर प्रयास की आवश्यकता है। यह साधन कुछ समय निकाल कर किया जा सकता है। “शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं—ऐसे अपने आसन को, ने बहुत ऊंचा और न बहुत नीचा स्थिर स्थापन करके—उस आसन पर बैठ कर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में करके, तथा मन को एकाग्र करके, अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे। काया, शिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किए हुए दृढ़ होकर, अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थिर रहता हुआ, भयरहित तथा अच्छी प्रकार शान्त अन्तःकरण वाला और सावधान होकर, मन को वश में करके, मेरे में लगे हुये चित्त वाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे। इसे प्रकार आत्मा को निरन्तर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ, स्वाधीन मन वाला योगी, मेरे में स्थित−रूप परमानन्द पराकाष्ठा−वाली शान्ति को प्राप्त होता है।

‘जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है, और जिस अवस्था में (परमेश्वर के ध्यान से) शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा, परमात्मा को साक्षात् करता हुआ, सच्चिदानन्द घन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है तथा इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है उसको, जिस अवस्था में स्थित हुआ यह योगी भगवत् स्वरूप से चलायमान नहीं होता है, और (परमेश्वर की प्राप्ति रूप) जिस लाभ को प्राप्त होकर, उससे अधिक दूसरा (कुछ भी) लाभ नहीं मानता है, और (भगवान् प्राप्तिरूप) जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी, बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है, और जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है (तथा) जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग, न उकताए हुए चित्त से अर्थात् तत्पर हुए चित्त से, निश्चयपूर्वक करना कर्त्तव्य है।”

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ‘संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेषता से अर्थात् वासना और आसक्ति −सहित त्याग कर और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सब ओर से अच्छी प्रकार वश में करके, क्रम−क्रम से (अभ्यास करता हुआ) उपरामता को प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके (परमात्मा के सिवाय और) कुछ भी चिन्तन न करे।”

परन्तु जिसका मन वश में नहीं हुआ उसको चाहिए कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस कारण से साँसारिक पदार्थों में विचरता है, उसे उससे रोक कर, (बारम्बार) परमात्मा में ही निरुद्ध करे। क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार शान्त है (और) जो पाप से रहित है (और) जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्द−घन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को अति उत्तम आनन्द प्राप्त होता है।” और वह ‘पाप रहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को (परमात्मा) में लगाता हुआ, सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति−रूप अनन्त आनन्द को अनुभव करता है।


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