यह अच्छी आदतें डालिए

April 1955

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(श्री मोहनलाल वर्मा, बी.ए., एल.एल.बी.)

सुप्रवृत्तियों के विकास से अच्छी आदतों का निर्माण होता है, मनुष्य अपने उत्तम गुणों का विकास करता है और चरित्र में, अंधकार में प्रविष्ट दुर्गुणों का उन्मूलन होता है। अतः हमें प्रारंभ से ही यह जान लेना चाहिए कि हम किन किन गुणों तथा आदतों का विकास करें।

नैतिकता:—

उत्तम चरित्र का प्रारंभ नैतिकता से होता है। नैतिकता अर्थात् श्रेष्ठतम आध्यात्मिक जीवन हमारा लक्ष्य होना चाहिए। नैतिकता हमें सद् असद्, उचित अनुचित, सत्य असत्य में अन्तर करना सिखाती है। नैतिकता सद्गुणी जीवक का मूलाधार है। यह हमें असद् आचरण, गलतियों अनीति और दुर्गुणों से बचाती है। नैतिकता का आदि स्रोत परमेश्वर है। अतः यह हमें ईश्वरीय जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्रदान करती है। यह वह जीवन शास्त्र है जो हमारे जीवन के कार्यों की आलोचना कर हमें उच्च आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रेरित करती है।

नैतिकता धर्म का व्यवहारिक स्वरूप है। हम प्रायः उत्तम ग्रन्थ पढ़ते हैं, अनेक जीवन सूत्र जानते हैं किन्तु उत्तम आचरण जीवन में नहीं करते हैं। नैतिकता उस ज्ञान के व्यवहार और प्रयोग का नाम है। यह हमें जीवन को सही रूप में जीना सिखाती है। हमें क्या करना चाहिए? हमारा क्या कर्त्तव्य है? सही मार्ग कौन सा है? किस कार्य से हमें सर्वाधिक आत्म संतोष प्राप्त हो सकता है?—यह नैतिकता के मूल प्रश्न हैं। आपको वही करना चाहिए, जो उचित है, सबसे अधिक फल

देने वाला है, जिसमें कोई गलती नहीं है। यह सब ज्ञान हमें नैतिकता से जीवन व्यतीत करने पर प्राप्त होते हैं।

नैतिकता के बिना धर्म का कोई अर्थ नहीं है। यह अव्यावहारिक और कल्पना शील बनता है। बिना नैतिकता के धर्म एक ऐसे वृक्ष के समान है जिसमें जड़ नहीं है। बिना नैतिकता के व्यवहारिक जीवन ऊँचा नहीं उठ सकता, न ईश्वरीय तथ्यों का जीवन में प्रकाश हो सकता है।

संयम :—

नैतिकता जीवन की आधार शिला संयम पर निर्भर है। संयम का तात्पर्य है अपने ऊपर अनुशासन रखना, विवेक के अनुसार शरीर को चलाना इत्यादि। संयमी व्यक्ति अपने मन, वचन, तथा शरीर पर पूर्ण अधिकार रखता है। वह उसे उचित ढंग से चलाता है और मिथ्या प्रलोभनों के वश में नहीं आता। जैसे ही कोई प्रलोभन मन मोहक रूप धारण कर उसके सम्मुख आता है, वैसे ही आत्म−अनुशासन उसकी रक्षा को आ उपस्थित होता है।

संयम हमारे असंयमी उन्मुक जीवन को अनुशासन में लाता है। संयम हमें उचित और विवेक पूर्ण मर्यादा में रहना सीखता है। जो वस्तुएं, आदतें अथवा कार्य हानिकर हैं, उनसे हमारी रक्षा करता है।

मनुष्य तथा पशु, उच्च तथा निम्न कोटि के जीवन में क्या अन्तर है? मनुष्य गन्दगी, त्रुटि, ज्यादती, खराबी, दुर्भाव से अपने आपको रोक सकता है, पशु में यह नियंत्रण नहीं होता। वह वासना के प्रवाह में अन्धा हो जाता है उसे हिताहित, कर्त्तव्य−अकर्त्तव्य, विवेक अविवेक का ज्ञान नहीं होता। मनुष्य संयम द्वारा अपनी इन्द्रिय मन तथा शरीर पर अनुशासन कर सकता है।

विवेक के विकास से संयम आता है। जैसे जैसे मनुष्य का विवेक बढ़ता है उसे यह ज्ञान होता है कि किस बात के अनियंत्रण से क्या क्या हानियाँ संभव हैं। वह इनसे अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता है। फलतः उसका आत्म विकास होता है।

संयम का प्रयोग पाँचों इन्द्रियों के विग्रह में करना चाहिए। हमारी इन्द्रियों के अमर्यादित और अनियंत्रित हो जाने से अनेक रोग पाप दुर्भावों की सृष्टि होती है। अतः सर्वप्रथम इन्द्रिय निग्रह से ही संयम का प्रयोग करना चाहिए।

जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जिसमें संयम का उपयोग का हो। संयमी व्यक्ति अपनी वासनाओं के परिष्कार द्वारा दीर्घजीवन प्राप्त करता है और शरीर को रोग मुक्त रखता है।

संयम अनुशासन का पिता है और हमें वैराग्य भावना प्रदान करता है, योग मार्ग पर एकाग्रता पूर्वक चलने की शिक्षा प्रदान करता है। यह हमारी शक्ति को संग्रह, बुद्धि को स्थिर और मन को अनुशासन से परिपूर्ण करता है।

परिस्थितियों के अनुकूल ढल जाना :—

अपने आपको नई नई विषम तथा विरोधी परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेना, इच्छाओं, आवश्यकताओं और रहन सहन को नवीन परिस्थितियों के अनुसार घटा बढ़ा लेना एक बड़ा गुण है। मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे व्यक्तियों, चाहे वे कैसे ही गुण स्वभाव के क्यों न हों, के अनुसार अपने को ढालना सीखे। नई परिस्थितियाँ चाहे जिस रूप में आयें, उसके वश में आ जायं। अच्छी और बुरी आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार अपने को घटा बढ़ा लिया करें।

अधिकाँश व्यक्ति दूसरे के अनुसार अपने को ढाल नहीं पाते, इसलिए वे दूसरों का हृदय जीत नहीं पाते, न झुक सकने के कारण वे सफल नहीं हो पाते। पत्नी पति के अनुसार, पति पत्नी के अनुसार, विक्रेता ग्राहक के अनुसार, मातहत अफसर के अनुसार, विद्यार्थी गुरु के अनुसार, पुत्र पिता के अनुसार न ढल सकने के कारण दुःखी रहते हैं।

आप बेंत की तरह लचकदार बनें जिससे अपने को हर प्रकार के समाज के अनुसार ढाल लिया करें। इसके लिए आप दूसरे की रुचि, स्वभाव, आदतों और मानसिक स्तर का ध्यान रखें। शक्कर से मीठे वचन बोलें, प्रेम प्रदर्शित करें, दूसरों की आज्ञाओं का पालन करें। आपसे बड़े व्यक्ति यह चाहते हैं कि आप उनकी आज्ञा का पालन करें। सभ्यता पूर्वक दूसरे से व्यवहार करें। ढलने की प्रवृत्ति से मित्रताएं स्थिर बनती हैं, व्यापार चलाते हैं, बड़े बड़े काम निकलते हैं। इस गुण से इच्छा शक्ति बढ़ती है और मनुष्य अपने ऊपर अनुशासन करना सीखता है। इससे आत्मबलिदान की भावना का विकास होता है, स्वार्थ नष्ट होता है।

विरोध तथा प्रतिकूलता में धैर्य :—

विपत्ति, दुख या वेदनामय जीवन एक बड़ा शिक्षक है। यह वह स्थिति है जिसमें चारों ओर से कष्ट आते हैं, आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है, मन दुखी रहता है और कहीं से कोई सहारा नहीं दीखता। विपत्ति ऐसी घटनाओं का क्रम है, जो सफलता का शत्रु है और आनन्द को नष्ट करने वाला है। यह दुःख की मनः स्थिति है।

विपत्ति दूसरे रूप में एक वरदान सिद्ध होती है। जो व्यक्ति धैर्य बनाये रखता है, वह अन्ततः विजयी होता है। विपत्ति से हमारी इच्छा शक्ति में वृद्धि होती है और सहिष्णुता प्राप्त होती है। इससे हमारा मन ईश्वर की ओर प्रवृत्त होता है। अन्ततः इससे वैराग्य की प्राप्ति होती है। सत्य की पहली सीढ़ी है। विपत्ति वह गुरु है जो मनुष्य को उद्योगी और परिश्रमशील बनाता है। इससे मनुष्य की सोई हुई शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं, साधारण कार्य करती हुई शक्ति तीव्र हो जाती हैं और जागरुकता प्राप्त होती है। समृद्धि के प्रकाश में आनन्द मनाना साधारण सी बात है, किन्तु प्रतिकूलता और विपत्ति में स्थिर बुद्धि रखना।

आप विपत्ति में चिंतित न रहें, धैर्य धारण करें, प्रसन्न मुद्रा बनाएँ, हँसते रहें आत्मा से शक्ति खींच कर अपनी समस्याओं को नवीन रूप में विचार करें। आपकी आत्मा में विपत्ति से जूझने की अनन्त शक्ति है। इसे अनुभव करें।

सोच कर देखिए, प्रशान्त सागर में रह कर क्या कोई सफल नाविक बन सकता है? सागर की उत्ताल लहरों से जूझ कर आँधी तूफान को झेल कर ही बड़े कप्तान बनते हैं विपत्ति के समुद्र में ही आप जीवन के कप्तान बनते हैं। आपके धैर्य, साहस, लगन, शक्ति , अध्यवसाय की परीक्षा विपत्तियों के भयंकर तूफानों में ही होती है। विपत्ति में चारों ओर से घिर कर हम नई नई बातें खोजते हैं, नई खोजें करते हैं, खूब सोचते विचारते और अपने व्यक्ति त्व का विकास करते हैं। विपत्ति हमारे मित्रों को परखने की सच्ची कसौटी है। विपत्ति एक ऐसा साँचा है, जो हमें नए सिरे से ढालता है और विषम परिस्थितियों से युद्ध करना सिखाता है।

विपत्ति संसार के बड़े बड़े महात्माओं, राजनीतिज्ञों, विद्वानों पर आई है। वे उसमें तपे, पिसे, कुटे और मजबूत बने हैं। फिर आप क्यों निराश होते हैं? काले बादलों की तरह वह हवा में उड़ जाने वाली क्षणिक वस्तु है। यह तो आपकी इच्छाशक्ति और दृढ़ता की परीक्षा लेने के लिए आती है।

जागरुकता :—

जो जीवन में जागरुक रहता है, उन्मत्त होता रहता है। जो तन्द्रा आलस्य या विलास में सोया रहता है, क्षय और पतन को प्राप्त होता है। जागरुक व्यक्ति अपने चारों ओर, संसार में देश तथा समाज में होने वाले क्रम तथा घटनाओं पर तीखी दृष्टि रखता है और उनसे लाभ उठाता है।

जागरुकता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति मानसिक तथा शारीरिक दृष्टि से चौकना रहता है। उसका मन संसार की प्रगति को देखता रहता है। उसमें शैथिल्य और आलस्य नहीं रहता। सतर्क पहरेदार की भाँति वह अपने इर्द गिर्द के परिवर्तनों को देखता और उनसे लाभ उठाता है। डाक्टर को देखिए, सिपाही या मल्लाह को देखिए, वे कैसे चुस्त, सतर्क, जागरुक रहते हैं। अपने काम पर तीखी दृष्टि लगाये रहते हैं। आध्यात्मिक जगत् के पथिक के लिए जागरुकता अतीव आवश्यक गुण है।

जीवन में अपने कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों, आगे आने वाली जिम्मेदारियों, व्ययों के प्रति जागरुक रहिये। आपकी प्रगति कैसी हो रही है, आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, शारीरिक सभी रूपों में आप कितना आगे बढ़ रहे हैं, अथवा नीचे सरके आ रहे हैं?—यह चौकन्ने हो कर नापते रहिये। चौकन्ना व्यक्ति आने वाले खतरों से मार नहीं खाता। जरासा खतरा देखते ही वह गिलहरी की तरह जागरुक हो उठता है और बच निकलता है।

वे ही व्यक्ति अधिक वेतन प्राप्त करते हैं, जिनमें जागरुकता की अधिक आवश्यकता होती है। एंजिन तथा हवाई जहाज के चालक, बम चलाने वाले, मोटर ड्राइवर, डाक्टर, इंजीनियर, मजिस्ट्रेट इत्यादि सब ही को जिस गुण की अतीव आवश्यकता है, वह सतत् चेतनशीलता है।

शरीर में रोगों की ओर से सतर्क रहिये। तनिक सी लापरवाही से इन रोगों का अत्यधिक विकास हो सकता है। तनिक सी अशिष्टता से लड़ाई, झगड़ा, मुकदमेबाजी तक की नौबत आ सकती है। चारों ओर से आक्रमण आ सकते हैं पर जागरुकता सबसे हमारी रक्षा कर सकती है। अच्छा सेनापति सब जरूरतों के लिए तैयार रहता है।

मृदुता :—

स्वभाव की मृदुलता ग्रहण करें। मृदुल स्वभाव उस व्यक्ति का है जिसे देख कर स्वतः मन में उसके प्रति आकर्षण का भाव उत्पन्न होता है। उसके मुख, स्वभाव तथा चरित्र से मानसिक आकर्षण, प्रेम, तथा आनन्द प्रस्फुटित होता है। मृदुलता के अंतर्गत वे सभी विधियाँ आती हैं जिनके द्वारा मनुष्य दूसरों को प्रसन्न रखता तथा हृदय में अपने प्रति प्रेम उत्पन्न करता है। उसका सबके प्रति प्रेममय, मित्रतापूर्ण व्यवहार होता है। उसका व्यवहार मित्रों और हितैषियों को उसकी ओर आकर्षित करता है। उसमें चिड़चिड़ापन, उत्तेजना, क्रोध, कटुता, कुढ़न इत्यादि नहीं होती।

मृदु व्यक्ति बड़ा मीठा हंसमुख स्वभाव रखता है सभ्यतापूर्ण ढंग से व्यवहार करता है और प्रेम सहानुभूति से स्निग्ध रहता है। जो व्यक्ति उसके संपर्क में आता है, उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।

मृदु व्यक्ति सदा दूसरों को प्रसन्न रखने और प्रेम करने की बात सोचता रहता है उसके मित्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। वह उदार, दयावान, और प्रेममय रहता है। इन सद्गुणों के कारण मृदुल व्यक्ति सब स्थितियों और सब प्रकार के व्यक्ति यों से बड़ा अच्छा निभाव कर लेता है।

यथा शक्ति दूसरों से प्रेम कीजिए। सहानुभूतिपूर्ण ढंग से अप्रिय कामों को कीजिए। जिससे भी मिलें आपके वाक्य, शब्द और अक्षर प्रेम से सरस स्निग्ध रहें। जगत् के विदग्ध हृदयों को आपके शब्दों से ऐसा मरहम प्राप्त हो कि वे अपने संताप भूल सकें और दो घड़ी अपने महत्त्व का अनुभव कर सकें।


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