कृपा कर क्रोध मत कीजिए

April 1955

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(श्री अज्ञात)

क्रोध शक्ति की कमी का परिचायक है। मानसिक शक्ति की कमी हो जाने पर क्रोध का वेग विवेक से रुकता नहीं। जब क्रोध आता है तब विवेक दूर भाग जाता है जैसे कि उन्मत्त हाथी जब जंजीर तोड़ लेता है, तो महावत दूर भाग जाता है। क्रोध के द्वारा मानसिक शक्ति का ह्रास भी होता है। कारण और कार्य एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। मानसिक शक्ति की कमी से क्रोध आता है और क्रोध से मानसिक शक्ति की कमी भी होती है। साधारणतया क्रोध दूसरे पर प्रकाशित होता है। उसका लक्ष्य दूसरों की हानि करना होता है। जब वह अपने लक्ष्य में सफल होता है, तो मानसिक शक्ति के ह्रास का शीघ्र पता नहीं चलता किन्तु जिस समय वह अपने लक्ष्य में सफल नहीं होता, वह अपने प्रति ही झीखने लगता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने आप को कोसने लगता है। अपनी कमजोरी को बड़ी तीव्रता से अनुभूति करने लगता है। यह अनुभूति आत्म निर्देश बन जाती है जिसके कारण मनुष्य वास्तव में कमजोर और निराशावादी बन जाता है।

क्रोध का आवेश एक बार आने पर साधारण चतुराई के विचारों से वह नियन्त्रित नहीं होता। क्रोध की अवस्था में मनुष्य विक्षिप्त मन हो जाता है, उसकी चतुराई उसके काम नहीं आती। चतुराई साँसारिक दृष्टि का नाम है। क्रोध इससे अधिक प्रबल होता है। क्रोध के रोकने के लिये विशेष दृष्टि की आवश्यकता है। क्रोध उसके रोकने अथवा निराकरण के पूर्व अभ्यास से रुकता है। क्रोध का निराकरण विरक्ति और प्रेम से होता है। यदि संसार के प्रति अमोह का व्यवहार तथा उसके प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का अभ्यास मनुष्य ने पहले किया है तो वह अभ्यास क्रोध आने की अवस्था में उसे अविवेकयुक्त काम करने से रोक देता है। क्रोध का स्वभाव है कि यदि वह क्षणभर के लिए रोक दिया जाय, तो वह सब समय के लिए रुक जाता है। विलियम जेम्स का कथन है कि क्रोध आने पर दस तक गिनती कहो तो क्रोध विलीन हो जाता है। क्रोध की अवस्था में हम कभी−कभी बालक जैसा व्यवहार करने लगते हैं−पीछे ऐसे व्यवहार पर ही आत्म ग्लानि होने लगती है, अथवा उन पर हँसी आती है। ऐसा एक बार होने पर कई बार ऐसा ही हम करते रहते हैं। यही जीवन का भारी रहस्य है। बड़े−बड़े विद्वान् जब क्रुद्ध होते हैं, तब अपना सिर आप ही फोड़ने लगते हैं। अपना ही नुकसान करने से उन्हें सन्तोष होता है। इस प्रकार बराबर क्रोध प्रदर्शन करने से उनका स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है, तो कितने ही लोग समय से पूर्व ही काल−कवलित हो जाते हैं। इन सब बातों को जान कर भी क्रोध रोके नहीं रुकता। फिर रोकने का उपाय क्या है?

अभिमान की कमी और प्रेम की वृद्धि क्रोध को रोकती है। जिन्हें बातों से अभिमान की वृद्धि होती है, उन्हें त्यागना चाहिए। चापलूसी की बातें सुनने से अभिमान की वृद्धि होती है। अभिमान की वृद्धि मानसिक शक्ति के ह्रास का सूचक है। जिस प्रकार विद्युत−शक्ति के रखने के लिए इन्स्यूलेटर की जरूरत पड़ती है उसी प्रकार मानसिक शक्ति को कायम रखने के लिये इन्स्यूलेटर की जरूरत है। अतएव जिस व्यक्ति को अपनी मानसिक शक्ति कायम रखना है, उसे जान बूझकर प्रतिदिन अपने साथियों से थोड़ी देर के लिए अलग हो जाना चाहिए। उसे सब समय समाज में न रहना चाहिए। समाज के लोगों में उनकी सेवा करने के लिए तथा अपने प्रेम−प्रदर्शन भर के लिए आना चाहिए, पीछे उसे अपने आप में चला जाना चाहिए। जो मनुष्य किसी भारी विचार में लगा रहता है वह सामाजिक कार्यों में उतना ही भाग लेता है, जितना कि अति आवश्यक है। ऐसा करने से वह अपनी मानसिक शक्ति का ह्रास नहीं होने देता। उसके ध्वंसात्मक संवेग पहल से ही निर्बल हो जाते हैं, और अगर वे किसी समय उत्तेजित भी हुए तो वह उन्हें सरलता से काबू में कर लेता है।

समाज में दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं—एक वे जो क्षण भर भी अकेले नहीं रह सकते। यदि उन्हें अकेला रहना पड़ जाय तो वह पागल हो जावें, और दूसरे वे जो समाज में आने से डरते हैं। जब तक समाज में रहते हैं सतर्क रहते हैं, सदा उससे भागने की चेष्टा में रहते हैं और जब वे उससे अलग हो जाते हैं तो अपने−आपको सुखी पाते हैं। पहले प्रकार के व्यक्ति बहिर्मुखी कहलाते हैं और दूसरे प्रकार के अन्तर्मुखी। पहले प्रकार के लोग प्रसन्न चित्त दिखाई देते हैं। दूसरे प्रकार के लोग दुखी दिखाई देते हैं पर होते हैं शान्त। पहले प्रकार के लोगों का क्रोध अति प्रबल होता है। वे सभी से अपने प्रसन्न रखे जाने की आशा करते हैं। पर जब यह आशा पूरी नहीं होती तो उनका क्रोध अपरिमित हो जाता है। जब इस क्रोध का प्रदर्शन किसी दूसरे व्यक्ति पर नहीं होता, तो वह निराशा में परिणत हो जाता है। इस तरह समाज में अधिक रहने कि इच्छा क्रोध और निराशा मूलक होती है। यह इच्छा मनुष्य को परावलंबी बनाती है तथा स्वावलंबन को कम करती है। ऐसी ही अवस्था में क्रोध हमें अपने आवेश में उड़ा लेता है। जिस प्रक्रिया से हम स्वावलम्बी बनते हैं उसी से हम क्रोध पर विजय पाते हैं। अंतर्मुखी होना स्वार्थी बनना नहीं है। जो दूसरों की सेवा से बचना चाहते हैं, वे वास्तविक अन्तर्मुखी नहीं हैं वे स्वार्थी हैं। अन्तर्मुखी दूसरों की सेवा करने में सब से आगे और दूसरों से सेवा ग्रहण करने में सब से पीछे रहता है।

प्रत्येक भाव के संस्कार हमारे अदृश्य मन में रहते हैं और इन संस्कारों के अनुसार हमारा आचरण बनता जाता है। जो व्यक्ति अपने मन के कुसंस्कारों को तुरंत मिटा देता है वह बड़ा बुद्धिमान है। क्रोध के संस्कार प्रेम से मिटते हैं। जिसे व्यक्ति के प्रति क्रोध कि या जाय उसके प्रति शीघ्रातिशीघ्र प्रेम प्रदर्शित करना चाहिए। कभी भी अपनी भूल को स्वीकार करना बुरा नहीं है। भूल स्वीकार करने से मन बलवान होता है तथा उसकी भूल करने की प्रवृत्ति जाती रहती है। यहाँ यह सोचना उचित नहीं कि क्रोध जिस व्यक्ति पर किया गया वह तुच्छ है अथवा उससे हमारा कोई प्रयोजन आगे न होगा। हमें दूसरों से कुछ प्रयोजन भले ही न हो अपने आप से तो अवश्य प्रयोजन है। दूसरों के प्रति क्रोध करके हम अपने आपके प्रति अन्याय करते हैं इस अन्याय का प्रतिकार हमें तुरंत करना चाहिए। यदि ऐसा न किया जाय तो अन्याय की प्रवृत्ति प्रतिक्षण बढ़ती जाती है जिसका आगे चलकर भयंकर परिणाम होता है। अन्याय का प्रायश्चित पश्चात्ताप में नहीं है, न्याय में है। दूसरों के प्रति किए अनर्थ का पाप उनकी सेवा करने से दूर होता है। क्रोध का प्रतिकार प्रेम है न कि आत्मग्लानि, वह उसका स्वाभाविक परिणाम है। प्रेम, क्रोध और उसके सभी परिणामों को नष्ट करता है।


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