आध्यात्मिक जीवन और समाज सेवा

April 1955

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(श्री लालजीराम शुक्ल)

प्रत्येक कार्य की सफलता, हेतु पर निर्भर है—यह आध्यात्मिक विचार का मूल−तत्व है। जिस कार्य का हेतु बुरा है वह कार्य ऊपरी दृष्टि से कितना ही अच्छा क्यों न हो, बुरा ही है। वह मनुष्य का आध्यात्मिक पतन करता है। हमारे कार्यों का हेतु जीवन के आदर्श के ऊपर निर्भर रहता है। आदर्शहीन व्यक्ति के कार्यों के अनेक हेतु होते हैं, आदर्शवान् व्यक्ति के कार्य अनेक होते हुए भी हेतु एक ही होता है, वह है—अपने आदर्श की प्राप्ति।

भारतवर्ष के वर्तमान हिन्दू−समाज में आदर्शहीनता पाई जाती है। यही इस राष्ट्र के पतन का प्रधान कारण है। हम जो कार्य करते हैं, वह अपने लिये करते हैं। उससे दूसरों का क्या लाभ होगा, इस विषय पर हमारा ध्यान नहीं जाता, यह बात अवश्य है कि मनुष्य के प्रत्येक कार्य से किसी न किसी प्रकार समष्टि का लाभ ही होता है, किन्तु जब तक वह लाभ हमारी चेतना के समक्ष हेतु−रूप में नहीं आता, तब तक उस लाभ का श्रेय हमें नहीं। उससे हमारा कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।

आज हिन्दू−संस्कृति की यह दशा है कि इसका जीवन ही दूसरों की कृपा पर निर्भर है। कहीं हमारी संस्कृति ने ही तो हमें निर्बल नहीं बनाया? यह विचार चिंतनशील व्यक्ति यों के मन में बार−बार आता है। यदि भारतीय संस्कृति सर्वोच्च है, तो वह अपना संरक्षण अपने आप क्यों नहीं कर सकती? हम दूसरे राष्ट्रों के अधीन क्यों बने हैं? एक अँग्रेज लेखक का कथन है कि जब संस्कृतियों में संघर्ष होता है, तो

निर्बल संस्कृति को सबल संस्कृति धर दबाती है। राजनैतिक विजय, एक संस्कृति की दूसरी संस्कृति के ऊपर विजय करने की एक मुहर लगा देती है। भारत वर्ष एक समय, संसार का आध्यात्मिक गुरु था। आज वह सब प्रकार के विचारों की भिक्षा दूसरों से माँगा करता है। अनेक लोगों का कथन है कि हमारी राजनैतिक पराधीन अवस्था में भी हम संस्कृति की दृष्टि से सब से ऊँचे हैं। क्या इस प्रकार के विचार में कुछ सत्यता है?

हमारा मत है कि जब तक हम अपने आपको स्वतन्त्र नहीं बना लेते, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हम दूसरे लोगों से अच्छे हैं, दास का स्थान स्वामी से हर समय नीचा रहता है। यदि स्वामी का आध्यात्मिक पतन होता है, तो उसके दास का भी साथ साथ हो जाता है। क्या भारतवर्ष के लोग, मन से आधुनिक खून−खराबी न चाहने के कारण, अपने आपको लड़ाई के, हत्या के काम से रोक सकते है? जिस समय भारतवर्ष के आध्यात्मिक ज्ञान का सूर्य चमकता था, उस समय वह स्वतन्त्र राष्ट्र भी था।

मौर्य−काल का इतिहास देखिए। सिकन्दर ने समस्त पश्चिमी राज्यों पर विजय प्राप्त की, पर उसकी हिम्मत भारतवर्ष में व्यास नदी से आगे बढ़ने की न हुई। त्यों-ही वह भारतवर्ष से गया, उसके राज्य का अन्त तुरन्त हो गया। यहाँ तक कि जब वह भारतवर्ष की सीमा पर था, तभी उसने सुन लिया कि उसके द्वारा नियुक्त पंजाब का शासक मार डाला गया जब उसके सेनापति सेल्यूकस ने फिर से भारत पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा की, तो उसे अपने हाथ का राज्य भी खोना पड़ा। इसी काल में चाणक्य कालनूस, मन्दानीस आदि जैसे प्रबल विचार वाले ब्राह्मण और योगी थे। कालनूस ने अपने शरीर को जला दिया, क्योंकि उसे साँसारिक सुखों का प्रलोभन हो गया था। जिस चाणक्य ने महाराज चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बिठाया, वह स्वयं एक पर्णकुटी में रहता था। मैगस्थनीज ने भारतवर्ष के आध्यात्मिक विचार करने वालों की सभा का वर्णन किया है, उससे जान पड़ता है कि उस समय भारत−भूमि न सिर्फ कर्मयोगियों की, बल्कि तपस्वी और त्यागी महात्माओं की भी भूमि थी। तब क्या हम यह कह सकते हैं कि इस समय हमारा राजनैतिक पतन होते हुए भी हम आध्यात्मिकता में सर्वोच्च हैं?

हमारे जीवन में बड़े बड़े, ऊँचे−ऊँचे आदर्श दिखाई देते हैं, पर ये आदर्श वास्तव में व्यावहारिक जीवन में किसी प्रकार का अपना प्रभाव नहीं दिखाते। जब तक कोई आदर्श व्यावहारिक जीवन को परिवर्तित या प्रभावित नहीं करता, उसे अपनी कमजोरी छिपाने का एक बहाना मात्र समझना चाहिए। अति उच्च आदर्श होना और आदर्शहीनता मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक ही तत्व के दो पहलू हैं।

हमारे जीवन में आज व्यावहारिक वेदान्त की कमी है। यह व्यावहारिक वेदाँत क्या है? अपनी आत्मा को शरीरबद्ध न मानकर सर्वव्यापी मानना, दूसरे के हित को अपने हित जैसा समझना, समष्टि के हेतु ही जीना−यही व्यावहारिक वेदाँत है। एक तरफ हमारे देश के लोग भारी धार्मिकता दिखाते हैं, दूसरी ओर वे समय पड़ने पर समाज के लिए थोड़े−से भी स्वार्थ का त्याग नहीं कर सकते। बिना स्वार्थ−रूपी बकरे का बलिदान किये, यदि कोई आध्यात्मिक यज्ञ को सफल बनाना चाहता है, तो यह उसकी नादानी है। हमारे देश में आज वेदान्तियों की कमी नहीं है। वास्तव में वेदान्त का पठन−पाठन भी तुच्छ स्वप्न की सिद्धि के लिए होता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति मुसलमानों के आगमन के समय ही हमारे देश की, प्रबल हो गई थी, तभी तो यहाँ मुसलमानी यहां स्थापित हो सका। इस प्रकार के पठन−पाठन के विषय में ही कबीरदास ने कहा है—

पंडित और मसालची, डडडडड डडडडड डडडडड औरन को करें चाँदनी, डडडडडड डडडडडड डडडडडड

यह कथन निर्विडडडडड डडडडड डडडडड उत्थान और पतन डडडडड डडडडड डडडडड डडडडड निर्भर है। इस डडडडड डडडडड डडडडड डडडडड अपरोक्ष डडडडड डडडडड डडडडड डडडडड डडडडडडडडडड अंग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जिसका बाह्य व्यवहार शुद्ध है, वही आत्म−ज्ञान का अधिकारी होता है और आत्म ज्ञान होने पर बाह्य व्यवहार अपने आप शुद्ध हो जाते हैं—“ज्ञानाग्नि कर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा” बाह्य शुद्ध आचरण एक दृष्टि से अन्तर शुद्धि का प्रतीक मात्र है। हम जिस मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में पद−पद पर स्वार्थपरता देखते हैं, उसके विषय में हम कैसे कह सकते हैं, कि उसका आन्तरिक जीवन शुद्ध है। जो व्यक्ति कभी अपने पड़ौसियों, समाज व राष्ट्र के बारे में कोई विचार ही नहीं करता, क्या उसके विषय में यह कहा जा सकता है कि उसके जीवन का लक्ष्य ऊँचा है? हम भारतवर्ष के लोगों में यही बात देख रहे हैं। बिना कर्म के अपरोक्ष अनुभूति लाभ करने की योग्यता किसी व्यक्ति में नहीं आती। इस बात को हमारे देश के पंडित गण भूल गये हैं। गीता का प्रवचन, जीवित शिक्षा न होकर दूर से प्रशंसा करने की वस्तु बन गई है।

मनुष्य को कोई भी कार्य समष्टि के लाभ की दृष्टि से करना चाहिए—यही तो डडडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडड डडडडडडड डडडडड डडडडड डडडडडडडडड डडडडडडड डडडडडडडड डडडडडडड डडडडडड डडडडडड डडडडडडडड डडडडडडडडड डडडडड डडडडडडड डडडडडडडडड डडडडडडडडडड डडडडडडड डडडडड डडडडडडडड डडडडडडडड डडडडडडड डडडडडडड डडडडडडडड भी लक्ष्य समाज−सेवा है, तो उसे सर्वोत्कृष्ट समझना चाहिए। इस प्रकार का कार्य ही आत्मोद्धार करता है। जिसे समाज में स्वार्थी व्यक्ति ही रहते, हैं, वह अपने आप पतित हो जाता है। जिस समाज में समष्टि −बुद्धि से कार्य करने वाले व्यक्ति रहते हैं वह अपने आप उठ जाता है। मनुष्य अभ्यास का दास है। जो मनुष्य जिस प्रकार की मनोवृत्ति में अभ्यस्त रहता है, वह संकट के समय उसी प्रकार का आचरण करता है। जब स्वार्थ−बुद्धि से अभ्यस्त लोगों को किन्हीं दूसरे लोगों का सामना करना पड़ता है, तो वे परास्त हो जाते हैं, क्योंकि वे एक दूसरे के लिए अत्यन्त त्याग करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं। यही किसी देश के राजनैतिक तथा आर्थिक पतन का कारण है।

मनुष्य को चाहिए कि कोई काम प्रारम्भ करते समय उसके हेतु का भली प्रकार से निरीक्षण करे। प्रत्येक काम अपने हेतु के चिन्तन में हमें अभ्यस्त करता है, अतएव काम की मौलिकता उसके हेतु में ही है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह अपने जीवन के कार्यों का अन्तिम हेतु स्वार्थ साधन न बनावे। स्वार्थ साधन को अनन्त के प्राप्ति की सीढ़ी माने। मनुष्य का जीवन पानी के बुद-बुदे के समान है, पर उस बुदबुदे का आश्रय अनन्त जल है, हमें इस आश्रय को अपनी कल्पना से अलग न करना चाहिए। सब लोग इस प्रकार के कार्य नहीं करते, जो दूसरों का ध्यान आकर्षित कर सकें, पर सभी लोग ऐसे कार्य कर सकते हैं, जो उन्हें अनन्त से मिलादें, जिनसे उन्हें आत्म ज्ञान और आत्म शान्ति हो। इस प्रकार के व्यक्ति समाज की मौलिक सेवा करते हैं—समाज के लोगों के मन से अपने आचरण द्वारा स्वार्थ बुद्धि को हटाते हैं, धर्म प्रदान करते हैं। उनके संपर्क से वह शक्ति दूसरों में आती है, जिससे वे अपना सर्वस्व समष्टि के उद्धारार्थ निछावर करने के लिये तत्पर हो जाते हैं।


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